परमहंस-१०८

रामकृष्णजी की शिष्यों को सीख

आध्यात्मिक दृष्टिकोण से इन्सान प्रायः चार प्रकार के होते हैं –

१) हमेशा गृहस्थी में ही आकंठ डुबे हुए और उसके अलावा और कोई भी सोच न होनेवाले;

२) मोक्ष की आकांक्षा रखनेवाले;

३) इस सांसारिक आसक्ति से मुक्त हो चुके; और

४) नित्य जीवन्मुक्त।

इस बात को स्पष्ट करते समय रामकृष्णजी ने, मच्छिमार ने पानी में फेंके हुए जाल का और उसमें फँसी मछलियों का उदाहरण दिया।

‘मच्छिमार पानी में जाल फेंकता है। उसमें मछलियाँ फँसती हैं।

लेकिन कुछ मछलियाँ इतनी होशियार होती हैं कि उन्हें दूर से ही जाल का पता चल जाता है और वे उससे दूर ही रहती हैं और जाल में कभी भी नहीं फसतीं। नित्य जीवन्मुक्त लोगों का समावेश प्रायः इस प्रकार में होता है। इसमें नारद जैसे देवर्षि का उदाहरण दे सकता हैं, जो इस जग में केवल लोगों का उद्धार करने हेतु ‘ईश्‍वर के प्रतिनिधि’ बनकर आते हैं।

लेकिन सभी मछलियाँ इतनी होशियार न होने के कारण कई मछिलियाँ उस जाल में फँसती हैं। ये आम सांसारिक लोग हैं।

रामकृष्ण परमहंस, इतिहास, अतुलनिय भारत, आध्यात्मिक, भारत, रामकृष्णलेकिन उनमें से भी कुछ मछलियाँ छूटने की जानतोड़ कोशिशें करती हैं। ये हैं सांसारिक लोगों में से वे लोग, जो भक्तिमार्ग पर चलते चलते मोक्ष की आकांक्षा रखते हैं। लेकिन इनमें से सभी जाल के बाहर नहीं आ सकते। बहुत ही थोड़े प्रयासों की पराकाष्ठा कर जाल में से बाहर निकल सकते हैं। ये जाल में से बाहर आ सकीं मछलियाँ यानी, भक्तिमार्ग पर चलते चलते धीरे धीरे सांसारिक आसक्ति से मुक्त हो चुके लोग, ऐसा कहा जा सकता है। वास्तविक साधु-संत-महात्माओं का समावेश इस वर्ग में होता है।

लेकिन अधिकाश मछलियाँ, खुदपर आ धमके संकट की भयावहता को ध्यान में न लेते हुए शांतिपूर्वक, तल की बालू में या फिर जहाँ जगह मिलें वहाँ सिर घुसाकर बेठी रहती हैं। ‘मैंने संकट की ओर पीठ फेरी यानी मेरा संकट टल गया’ ऐसी इनकी छिछोरी धारणा होती है। लेकिन उन्हें कल्पना भी नहीं होती कि थोड़ी ही देर में वह मछुआरा वह जाल खींचनेवाला है और मैं उस जाल के साथ ही उसके हाथ लगनेवाला हूँ। ये हैं वे लोग, जो सांसारिक बातों में ही आकंठ डुबे हुए और उससे परे कोई भी सोच न होनेवाले होते हैं। उन्हें यह जाल अर्थात् संसार की आसक्ति यही ‘संकट’ है, इसका एहसास भी नहीं होता है। खाली समय मिलें तो ये लोग फ़जूल गप्पें हाँकना, फ़ालतू काम करना इनमें ही दंग रहते हैं। ईश्‍वर का नामस्मरण यह तो इनके लिए बहुत ही दूर की बात होती है। ईश्‍वर का खयाल यदि मन में आये भी, तो वह केवल फ़ायदे तक ही सीमित होता है। ऐसा मनुष्य यदि मृत्युशय्या पर हो, तो भी उसकी (ऐसे ही स्वभाव की) पत्नी उसे पूछ सकती है कि तुम तो चल दिये, लेकिन तुमने मेरे चरितार्थ के लिए क्या इन्तज़ाम किया है?’

‘लेकिन फिर ऐसे लोगों को इस ‘जाल’ में से बाहर निकलने का क्या कोई भी मार्ग नहीं है’ इस प्रश्‍न का उत्तर देते समय रामकृष्णजी ने कहा –
‘ऐसे लोगों को चाहिए कि वे निरन्तर श्रद्धावानों की संगत में रहें। अधिक से अधिक समय ईश्‍वर के बारे में ही सोचें। सदसद्विवेकबुद्धि से आचरण करने का प्रयास करें और ‘मुझे विश्‍वास और भक्ति देने की’ ईश्‍वर से ही प्रार्थना करें। क्योंकि भक्ति और विश्‍वास ही सबकुछ है।’

ईश्‍वर पर का, गुरु पर का विश्‍वास कुछ भी कर सकता है, यह प्रतिपादित करते हुए रामकृष्णजी ने एक कथा बतायी –

‘एक मनुष्य शीघ्र ही एक नदी को पार करना आवश्यक था, लेकिन उस समय उसके पास कोई भी साधन उपलब्ध नहीं था। तब वहाँ बैठे एक तपस्वी को उसकी दया आयी और उसने एक पत्ते पर ‘राम’नाम लिखकर वह पत्ता उसकी पीठ पर बाँध दिया और उसे कहा कि ‘जब तक मैंने तुम्हें दिये इस साधन पर तुम्हारा विश्‍वास है, तब तक तुम यक़ीनन ही इस नदी को पार कर सकोगे। लेकिन यदि विश्‍वास उड़ गया, तो तुम डूब जाओगे।’ उस मनुष्य ने कृतज्ञतापूर्वक उस नदी पर कदम रखा, तो क्या आश्‍चर्य….वह नदी पर चलने लगा। ऐसी आधी नदी पार करने के बाद उसके मन में खयाल आया कि ‘ऐसा क्या इतना जादू का साधन इन साधुबाबा ने दिया वह देखें तो सही।’ ऐसा कहकर उसने पीठ पर से निकालकर उसे देखा। वह पेड़ का एक छोटा सा पत्ता है, यह देखकर उसके मन में विकल्प आया कि ‘अरे, क्या मैं इतने छोटे से पत्ते के कारण यहाँ तक आ सका? कैसे संभव है?’

….और इस विकल्प के मन में आते ही वह उसी जगह डूब गया।’

यह कथा कहकर रामकृष्णजी ने बताया कि ‘जब तक उस तपस्वी के वचन पर उसका विश्‍वास था, तब तक ही वह नदी पर चलके जा सका। जिस पल उसके मन में विकल्प आया और उसका विश्‍वास डाँवाडोल हो गया, उसी पल वह डूब गया।’

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