परमहंस-२८

७ साल की उम्र में ही गदाधर के सिर पर से पिता का साया उठ जाने के कारण, उनके बाद उसके लिए पितासमान रहनेवाले बड़े भाई रामकुमार की मृत्यु गदाधर को अधिक ही अंतर्मुख बना गयी। उसके बाद कई दिनों तक गदाधर शोकाकुल अवस्था में ही था और अपना अधिक से अधिक समय वह कालीमाता मंदिर और गंगानदी के किनारे ही व्यतीत करता था।

इस दौरान हृदय ने अपने मामा का सर्वतोपरि खयाल रखा। गदाधर की भावावस्था प्रायः भंग नहीं होगी, इस तरह हल्के से वह गदाधर को सँभालता था। भावावस्था में कई बार गदाधर को खानेपीने की भी सुधबुध नहीं रहती थी; ऐसे समय उसकी भावावस्था भंग नहीं होगी इस तरी़के से उसे खाना खिलाने का काम भी हृदय हल्के से करता था।

गंगानदीधीरे धीरे गदाधर इस दुख से सँभलने लगा। पहले तय कियेनुसार अब दक्षिणेश्‍वर कालीमाता मंदिर के ‘प्रमुख पुजारी’ पद पर उसे नियुक्त किया गया था। कालीमाता के नित्य पूजन के लिए आवश्यक रहनेवाला चण्डिपाठ भी रामकुमार ने उसे पढ़ा रखा था और वह उसे कंठस्थ भी हो चुका था।

लेकिन उसके अलावा मुझे पूजन के अन्य कर्मकांड कुछ ख़ास मालूम न होने के कारण, क्या मुझसे यह प्रमुख पुजारी का काम हो पायेगा, ऐसी आशंका उसने मथुरबाबू के पास प्रदर्शित की। उसपर मथुरबाबू ने – ‘तुम्हें किसी भी कर्मकांड की ज़रूरत नहीं है। कालीमाता के प्रति होनेवाली तुम्हारी भक्ति एवं निष्ठा इऩसे ही कालीमाता प्रसन्न होगी’, ऐसा उसे समझाया और उससे गदाधर का समाधान हो गया।

उस समय की प्रचलित धारणा के अनुसार, यह कालीमाता की उपासना करने के लिए आवश्यक मानी जानेवाली शक्तिउपासना-दीक्षा भी गदाधर ने कोलकाता के ‘केनाराम भट्टाचार्य’ नामक एक गुरु से प्राप्त कर ली थी। उसके बारे में ऐसा कहा जाता है कि यह दीक्षा ग्रहण करते समय भी, दीक्षामंत्र का उच्चारण करते ही गदाधर भावावस्था में चला गया और उसकी यह भावोत्कट स्थिति देखकर उसके गुरु भी हैरान एवं आनंदित हुए थे।

अब दक्षिणेश्‍वर कालीमंदिर में ‘प्रमुख पुजारी’ के तौर पर काम देखना उसने शुरू किया। लेकिन यह देवीमाता के साजशृंगार का एवं पूजन का कार्य करते समय भी गदाधर अधिकांश बार भावावस्था में ही जाता होने के कारण, उसके कामों के व्यावहारिक अंग का खयाल अधिकांश बार हृदय ही रखता था।

देवीमाता को सजाते समय या फिर भजन गाते समय गदाधर भावावस्था में गया कि  देवीमाता के प्रत्यक्ष दर्शन के लिए व्याकुल होकर वह कभी धड़ाम से ज़मीन पर गिरता, तो कभी खून बहने तक सिर पटकता रहता, तो कभी केवल टकटकी लगाकर बैठता था।

ऐसी टकटकी लगाते समय, कालीमाता के चेहरे पर के खलमर्दनसमय के उग्र भाव, उसकी भयंकर लंबी लपलपाती जीभ, गले में रहनेवाली असुररुंडमाला, हाथों में होनेवाले भयंकर शस्त्र इनसे गदाधर को कभी भय प्रतीत ही नहीं हुआ। क्योंकि माता का यह महाभयंकर रूप केवल दुष्टदुर्जनों के लिए है और उसने वह धारण किया है, केवल दुष्टदुर्जनों से श्रद्धावानों की रक्षा करने, इसका गदाधर को पूरा एहसास था। इस कारण माता के ऐसे उग्र चेहरे पर टकटकी लगते समय भी, उसके मन में तो कालीमाता का, श्रद्धावानों के लिए रहनेवाला वत्सल ‘माता’स्वरूप ही होता था।

ऐसी भावोत्कट अवस्था में उसे कई बार खानेपीने की तो क्या, कपड़ों तक की भी सुधबुध नहीं रहती थी। उस अवस्था में भी हृदय उसका हर संभव खयाल रखता ही था। लेकिन मंदिर के अन्य पुरोहितों को यह बात पसन्द न होकर, उन्होंने मथुरबाबू से उसकी शिक़ायत की। मथुरबाबू ने स्वयं आकर यह माजरा देख लिया, लेकिन उसके पीछे का कारण जानकर उनकी गदाधर के प्रति रहनेवाली सम्मान की भावना अधिक ही बढ़ गयी और उन्होंने अन्य पुरोहितों को इसमें दख़ल न देने की आज्ञा दी।

इतना ही नहीं, बल्कि ऐसा कहा जाता है कि एक बार राणी राशमणि भी हररोज़ की तरह वहाँ पर दर्शन के लिए पधारी थी, तभी गदाधर ऐसी भावोत्कट अवस्था में था। लेकिन इससे विचलित न होते हुए, उल्टा गदाधर की इस भावावस्था में बाधा न हों, इसलिए राशमणि ने उसके पीछे ही कुछ दूरी पर शांति से हाथ जोड़कर देवी का ध्यान करते खड़ा रहना पसन्द किया। इतना ही नहीं, बल्कि ‘राणी पधारी है’ इस कारण भागदौड़ शुरू हुए वहाँ के कर्मचारीवृंद को भी उसने शांत रहने का इशारा किया। थोड़ी देर बाद गदाधर उपनी भावावस्था में से जागकर होश में आने के बाद जाने के लिए निकला, तब उसे राशमणि दिखायी देने पर उसने शांति से बालसुलभ निरागस स्मित करते हुए उसके हाथों में प्रसाद रखा और वहाँ से चला गया।

ऊपरि तौर पर अस्तव्यस्त आचरण करनेवाले गदाधर की अंतर्गत मार्गक्रमणा एक विशिष्ट दिशा में हो रही थी….

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