परमहंस-११५

रामकृष्णजी की शिष्यों को सीख

ईश्‍वरप्राप्ति के लिए श्रद्धावान को चाहिए कि वह शांत, दास्य, सख्य, वात्सल्य, मधुर आदि भावों से ईश्‍वर को देखना सीखें; इन भावों की उत्कटता को बढ़ाएँ।

‘शांत’ भाव – ईश्‍वरप्राप्ति के लिए तपस्या करनेवाले हमारे प्राचीन ऋषि ईश्‍वर के प्रति शांत, निष्काम भाव रखते थे। वे किसी भौतिक सुखोपभोगों के लिए या भौतिक इच्छाओं की पूर्ति के लिए ईश्‍वरप्राप्ति नहीं चाहते थे, दरअसल ईश्‍वर से उन्हें, सिवाय उसके दर्शन के, और कुछ भी नहीं चाहिए था। इस कारण, तपस्या करते समय उनके मन में किसी भी प्रकार की असमंजसता नहीं होती थी, मन शान्त ही रहता था।

‘दास्य’ भाव – जैसे किसी सेवक का अपने प्रिय स्वामी (मालक) के लिए होता है वैसे। जैसा हनुमानजी का श्रीराम के प्रति था वैसा। इस कारण, रामकार्य करते समय उनके शरीर में और भी ताकत का संचरण होता था।

‘सख्य’ भाव – ईश्‍वर यह हमारा सखा है, ऐसा मानकर चलते हुए की हुई उसकी आराधना। पेंद्या, सुदामा आदि श्रीकृष्ण के सखा – ‘श्रीकृष्ण ये परमात्मा हैं’ यह जानते होने के बावजूद भी उसे ‘मित्र’ की दृष्टि से ही देखते थे। इस मित्रता के नाते को मानवी रंगों से ही रंगाते थे। खाना खाते समय ‘तेरा-मेरा’ ऐसा भेदभाव न करते हुए सबके द्वारा लाये गये खानों का एकसाथ ‘काला’ करके खाना खाते थे। हम अपने सबसे प्रिय मित्र से जैसा आचरण करते हैं, वैसा ईश्‍वर के साथ करना हमें आना चाहिए – जहाँ ‘लेने’ की अपेक्षा ‘देने’ की ही वृत्ति हो।

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‘वात्सल्य’ भाव – जैसा किसी माता का अपनी सन्तान के प्रति होता है वैसा। जैसा यशोदा का श्रीकृष्ण के प्रति था वैसा। ‘मेरे पास जो कुछ भी है, उसमें से सर्वोत्तम मैं मेरी सन्तान को दूँगी’ यही वह भाव है। अपना बच्चा पेट भरके खाना खाये, तो माँ को सु़कून मिलता है। श्रीकृष्ण मक्खन खायें, इसलिए माता यशोदा मक्खन हाथ में लिये पूरे घर में उसके पीछे भागती रहती थी। भौतिक प्रेम के पड़ाव सफलतापूर्वक पार किये हुए पती-पत्नी में भी कई बार यह वात्सल्यभाव एक-दूसरे के प्रति निर्माण हो सकता है।

‘मधुर’ भाव – जैसे गोपगोपियों को श्रीकृष्ण के प्रति था। जिसमें उपरोक्त चारों भाव अंतर्भूत रहते हैं।

लेकिन यह सब करते समय भक्ति में अनुशासन आवश्यक होता है। भक्तिमार्ग पर चलते हुए संतुलन न खोना, मर्यादाभंग न करना आवश्यक है; और यह मर्यादापालन भक्ति में से ही आता है। भक्ति में से ही सदसद्विवेकबुद्धि जागृत होती है, नीरक्षीरविवेक बढ़ने लगता है।

जब मर्यादापालन करते हुए श्रद्धावान भक्तिमार्ग पर चलने लगता है, तब धीरे धीरे उसके एहसास विकसित होने लगते हैं। सर्वसाधारण मनुष्य को या अंतरिम पड़ाव में होनेवाले साधक को ईश्‍वर चर्मचक्षुओं से दिखायी नहीं दे सकता, उसके लिए ‘प्रेममय मन की आँखें’ आवश्यक हैं। जैसे जैसे इस मार्ग पर साधक मार्गक्रमणा करता रहेगा, वैसे वैसे उसमें ये प्रेममय मन की आँखें, कान, नाक जागृत हो जाते हैं। इस पड़ाव में ईश्‍वर के साथ इसी माध्यम से श्रद्धावान का संपर्क हो सकता है।

अन्य मार्गों में पतनभय है, वैसा भक्तिमार्ग में नहीं है।

अभी अभी चलना सीखा बच्चा जब चलते समय स्वयं होकर अपने पिता का हाथ थामता है, तब उसकी पकड़ अभी तक नाज़ूक होने के कारण, अर्थात् मज़बूत न होने के कारण, वह चलते चलते हाथ छूटकर लड़खड़ाकर गिर भी सकता है;

लेकिन जब पिताजी बच्चे का हाथ पकड़ते हैं, तब बच्चा लड़खड़ाकर गिर पड़ने का ख़तरा संभव नहीं, क्योंकि अब पिताजी ने उसका हाथ मज़बूती से पकड़ा हुआ होता है।

वही भक्ति तथा अन्य मार्गों के बारे में भी सच है। अन्य मार्गों में हमें ईश्‍वर का हाथ पकड़ना होता है, इस कारण हमारे लड़खड़ाकर गिरने की संभावना अधिक होती है। भक्तिमार्ग में भी शुरुआती दौर में हमारे मन में ईश्‍वर के प्रति, ईश्‍वर के अस्तित्व के बारे में कई बार सन्देह पैदा हो सकता है। यह पड़ाव – ‘हमारे द्वारा ईश्‍वर का हाथ पकड़ा जाने का’ पड़ाव होता है और हमारी पकड़ उतनी मज़बूत न होने के कारण हम लड़खड़ाकर गिर पड़ने के वाक़या घटित होते हैं;

वहीं, जब ईश्‍वरी कृपा से श्रद्धावान के मन में ईश्‍वर के प्रति होनेवाला, भक्तिमार्ग के प्रति होनेवाला सन्देह दूर होने लगता है और भक्ति दृढ़ होने लगती है; तब – ‘ईश्‍वर ने हमारा हाथ पकड़ा है’ ऐसा समझें और ईश्‍वर पर सारा भार सौंपकर हम केवल निष्काम भक्ति-सेवा में रममाण हो जायें।

लेकिन ईश्‍वर की यह कृपा श्रद्धावान पर कब होगी, तो जब वह श्रद्धावान निग्रहपूर्वक, गिरने के कितने भी वाक़ये घटित हुए, तब भी न डगमगाते हुए, अपने ईश्‍वरप्राप्ति के ध्येय को न भूलकर इस मार्ग से जितना हो सके उतना चलता रहेगा।

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