परमहंस-२७

गदाधर अब दक्षिणेश्‍वर के कालीमाता मंदिरसंकुल का अभ्यस्त हो चुका था और उसका हररोज़ का दिनक्रम भी नियमित रूप से संपन्न होने लगा था। लेकिन कालीमाता के प्रत्यक्ष दर्शन करने की उसकी आस दिनबदिन बढ़ती ही जा रही थी।

उसके हररोज़ के दिनक्रम के भजनों में भी अब अधिक आर्तता आने लगी थी। बीच में ही उसकी माता के मुखकमल पर टकटकी लगती, बीच में ही उसकी आँखों से आँसू बहने लगते, बीच में ही गाते गाते वह धड़ाम से ज़मीन पर गिरता। लेकिन भजन चाहे कौनसा भी हो, उसकी संपूर्ण देहबोली – ‘माँ, तुम यहीं पर हो, तो फिर मुझे दिखायी क्यों नहीं देती’ यही व्याकुलतापूर्वक पूछती रहती थी।

दिनक्रमलेकिन मंदिर में पुजारी की नौकरी करने के लिए उसका अभी भी विरोध था। ‘मैं किसी भी प्रकार के बंधन में बँधना नहीं चाहता’ ऐसा वह हृदय से कहता। मथुरबाबू उसे किसी न किसी तरह से मंदिर के कामकाज़ में शामिल कराना चाहते हैं, इस बात का उसे थोड़ाबहुत एहसास हुआ होने के कारण वह उनसे जितना हो सके उतना दूर ही रहता था।

लेकिन आख़िर एक दिन मथुरबाबू ने उसे मंदिरप्राकार में हृदय के साथ बातचीत करते हुए पकड़ ही लिया और नौकर से कहलवाकर उसे उनसे मिलने के लिए कहा। गदाधर बहुत सोच में पड़ गया। ‘क्यों बुलाया होगा मुझे उन्होंने? यक़ीनन ही नौकरी के सिलसिले में ही कुछ होगा!’ ऐसी उसकी हृदय के साथ चर्चा भी हुई। हृदय ने उसे – ‘फिर उसमें हर्ज़ ही क्या है? ये भले लोग हैं, इतना तो तुम मानते हो ना? फिर नौकरी नहीं तो ना सही, लेकिन कम से कम सेवा के तौर पर करने में तो कोई हर्ज़ नहीं है’ ऐसा थोड़ाबहुत समझाया।

फिर गदाधर, हृदय और मथुरबाबू की इस विषय पर ठेंठ ही चर्चा हुई। उस चर्चा के दौरान, नौकरी करने के लिए गदाधर को होनेवाले सभी ऐतराज़ों का मथुरबाबू ने हल्के से खंडन कर दिया। आख़िरकार गदाधर को मनाने में मथुरबाबू को सफलता प्राप्त हो ही गयी, लेकिन गदाधर ने कालीमाता के गहनें-आभूषण आदि ज़ोख़म की चीज़ें सँभालने के बारे में उसे लगनेवाला डर ज़ाहिर किया और ‘यदि यह ज़िम्मेदारी कोई उठायेगा, तो मैं बतौर पुजारी काम करने के लिए तैयार हूँ’ ऐसा उसने मथुरबाबू से कहा। यह ज़िम्मेदारी फिर हृदय को सौंपी गयी और गदाधर की नियुक्ति रामकुमार की देखरेख में, ‘मंदिर के पुजारी’ के तौर पर की जाकर, हृदय को रामकुमार एवं गदाधर के सहायक के तौर पर नियुक्त किया गया।

रामकुमार की परेशानी हालाँकि इससे थोड़ीबहुत कम हो गयी, लेकिन गदाधर का कालीमाता का दैनंदिन साजशृंगार करते समय घण्टों तक रमना उसे चिंताग्रस्त करता था। हाँ, अक़्सर निजानंद में मग्न होनेवाले गदाधर को होश में लाने के लिए उसका लाड़ला भतीजा हृदय था ही। अब गदाधर भी हृदय के वहाँ पर होने का आदी हो गया था और उसके बिना गदाधर का पलभर भी दिल नहीं लगता था।

अपना अन्त नज़दीक आ रहा होने का एहसास भी वृद्ध रामकुमार को होने लगा था। अपने बाद यह कालीमाता मंदिर का ‘प्रमुख पुजारी’पद यदि गदाधर सँभालें तो अच्छा है, इस उद्देश्य से उसने; गदाधर को उसकी ज़िम्मेदारी का एहसास हों इसलिए, उसे कालीमाता मंदिर के कामकाज़ में अधिक से अधिक उलझा रखते हुए, खुद ज़्यादातर राधाकृष्णमंदिर में रहना शुरू किया। कालीमाता का नित्यपूजन करने के लिए आवश्यक रहनेवाला चण्डिपाठ भी रामकुमार ने गदाधर को सिखाया। स्मरणशक्ति मज़बूत होने के कारण अल्प-अवधि में ही गदाधर को चण्डिपाठ कण्ठस्थ हो गया।

अब जीवन का परला किनारा दिखायी देने लगे रामकुमार की गदाधरविषयक चिन्ता बहुत ही कम हुई होने के कारण – ‘अब मैं इस दुनिया से विदा लेने के लिए मुक्त हो चुका हूँ’ ऐसी कृतार्थ भावना उसके मन में थी। अपनी ज़िम्मेदारियों से अधिकांश रूप से मुक्त हो चुका होने के कारण एक बार गाँव हो आने का रामकुमार ने तय किया। लेकिन वह होना नहीं था….

….क्योंकि आख़िर वह घड़ी आ ही गयी….दक्षिणेश्‍वर आकर कालीमातामंदिर के प्रमुख पुजारी पद का स्वीकार करने के साल भर में ही, यानी सन १८५६ में ही अल्प बीमारी के कारण रामकुमार ने इस दुनिया से विदा ली!
गदाधर पर तो मानो आकाश ही टूट पड़ा। पिताजी की मृत्यु के पश्‍चात्, माँ के बाद रामकुमार ही उसके लिए सर्वस्व था और पिता की ममता से ही रामकुमार ने उसका पालन किया था। इसलिए गदाधर फिर एक बार मानो अनाथ हो गया था….

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