परमहंस-१४३

इस प्रकार १५१६ अगस्त १८८६ की मध्यरात्रि के बाद रामकृष्णजी ने इस भौतिक विश्‍व से और नश्‍वर देह से बिदा ली थी। ‘ईश्‍वर से नितांत प्रेम करके उसकी प्राप्ति की जा सकती है, जो कि आम इन्सान के लिए भी आसानी से संभव है’ इस तत्त्व को जीवनभर प्रतिपादित करनेवाले रामकृष्णजी के चले जाने से भक्तिविश्‍व के एक महान पर्व की समाप्ति हुई थी।

उनके नित्यशिष्य एवं भक्तपरिवार शोकसागर में डूबा था। चन्द कुछ पल पहले उनका भावविश्‍व दुनिया में में सबसे समृद्ध है ऐसा उन्हें प्रतीत हो रहा था और अब उसी भावविश्‍व में एक अजीब सा खालीपन उन्हें महसूस होने लगा था।

अब हमें कौन मार्गदर्शन करेगा? अब हमें कौन आधार देगा? अब हमारा कौतुक कौन करेगा? अब हमसे ग़लती होने पर कौन हमारा कान ऐठेगा?’ – ‘रामकृष्ण’ यही विश्‍व होनेवाले नित्यशिष्यों की, ‘उनके बिना करना क्या है’ यही समझ में नहीं आ रहा था। सर्वसंगपरित्याग किये हुए भक्तों के मन में तो – ‘अब हमारे गुरु नहीं रहे, तो हम भी क्यों ज़िन्दा रहें?’ यह पहली प्रतिक्रिया उठी थी।

शाम तक यह ख़बर कोलकात्ता में सर्वदूर फैल गयी और रामकृष्णजी के भक्तों पर मानो बिजली ही टूट पड़ी।

रामकृष्ण परमहंस, इतिहास, अतुलनिय भारत, आध्यात्मिक, भारत, रामकृष्णशाम को रामकृष्णजी का पार्थिव शरीर भगवे वस्त्र पहनाकर नीचली मंज़िल पर दर्शन हेतु रखा गया। उसे चंदन का लेप किया गया था और फूलों से सजाया गया था। डॉ. सरकार की सूचना के अनुसार रामकृष्णजी के पट्टशिष्यों की उनके पार्थिव के साथ एक फोटो खींची गयी।

रामकृष्णजी के अंत्यदर्शन के लिए आनेवालों का बहुत बड़ा ताँता लगा था। दूरदूर से लोग चले आ रहे थे। अब रामकृष्णजी इस साकार रूप में पुनः कभी भी दिखायी नहीं देनेवाले, इस विचार से उनसे रोना रोका नहीं जा रहा था।

कुछ घण्टों बाद उनका पार्थिव अंत्यसंस्कारों के लिए बारानगर (बारणगोर) के घाट पर ले जाया गया। अंत्ययात्रा के मार्ग में भी उनके अंत्यदर्शन हेतु शोकाकुल लोगों की दोतरफ़ा प्रचण्ड भीड़ जमा हुई थी। अंत्ययात्रा ले जाते समय और घाट पर भी उनके शिष्य उन्हें प्रिय होनेवाले भक्तिगीत आर्ततापूर्वक गा रहे थे।

घाट पर पार्थिव को अग्नि दी गयी। जैसे जैसे ज्वालाएँ ऊपर ऊपर चढ़ने लगीं, वैसे वैसे शिष्यों के मन का दुख भी अनावर होने लगा। उस स्थिति में भी वे, एक ही बोट के यात्री होने के बावजूद भी एकदूसरे को आधार दे रहे थे जो रामकृष्णजी को उनके अपेक्षित था। रामकृष्णजी के आख़िरी कालखण्ड में इन सबने एकदिल से की हुई उनकी सेवा के कारण एकसंघता की यह भावना उनके मन में दृढ़ हुई थी।

लेकिन….लेकिन जब लगभग दो घण्टों में रामकृष्णजी का पार्थिव अनंत में विलीन हो गया और सबकुछ शान्त हो गया तब, अबतक फूटफूटकर शोक करनेवाले शिष्यों के मन भी आश्‍चर्यकारक रूप में अपने आप शान्त हो चुके थे!

रामकृष्णजी की पत्नी शारदादेवी के बारे में भी रामकृष्णजी के अंत्यसंस्कारों के बाद का एक अनुभव बताया जाता है। शारदादेवी जब, सब ज्ञान होते हुए भी शोक में डूबने लगीं, तब उन्हें एक विलक्षण साक्षात्कार हुआ ऐसा कहा जाता है जिसमें उन्हें स्पष्ट रूप में रामकृष्णजी की आवाज़ सुनायी दी कि ‘शोक किसलिए? मैंने केवल एक दालान में से दूसरे दालान में प्रवेश किया है!’

यहाँ अपने गुरु के पार्थिव को बिदा कर, उनकी जयकार करते हुए, उनके पवित्र अवशेष लेकर काशीपुरस्थित रामकृष्णजी के आख़िरी कालखंड के निवासस्थान पर लौटते हुए – ‘हमारे गुरु रामकृष्णजी कहीं भी नहीं गये हैं, वे हममें ही….हमारे साथ ही हैं। देह में होनेवाले रामकृष्णजी और देह से परे होनेवाले रामकृष्णजी ये एक ही हैं’ यह एहसास उनके मन में दृढ़तापूर्वक जागृत हो चुका था।

….लेकिन फिर भी अब वह घर उनसे देखा नहीं जानेवाला था!

Leave a Reply

Your email address will not be published.