परमहंस- २४

राणी राशमणि द्वारा निर्मित दक्षिणेश्‍वर के कालीमाता मंदिर का उद्घाटनसमारोहसंपन्न होने के बाद गदाधर अकेला ही पुनः अपने कोलकाता के घर वापस लौट आया, क्योंकि रामकुमार कुछ काम खत्म करके लौटनेवाला था। लेकिन वह ५-६ दिन बीतने पर भी नहीं आया, इस कारण हैरत में पड़ गये गदाधर ने पुनः दक्षिणेश्‍वर जाकर पूछताछ की, तब उसे पता चला कि रामकुमार ने दक्षिणेश्‍वर कालीमाता मंदिर के ‘प्रमुख पुजारी’ पद का स्वीकार किया है।

इस मंदिर के ‘प्रमुख पुजारी’ पद का रामकुमार ने स्वीकार किया, यह बात गदाधर को पसन्द नहीं थी और उसने वैसा स्पष्ट रूप में भाई को बताया। इस बारे में भी ऐसी कथा बतायी जाती है कि –

बचपन से दिल पर सामाजिक उच्चनीचता के संस्कार हुआ गदाधर, उस ज़माने में प्रचलित वर्णव्यवस्था के अनुसार उच्चवर्णीय न मानी जानेवाली स्त्री ने निर्माण किये मंदिर में प्रसाद ग्रहण करना, वहाँ पर नौकरी करना आदि बातों के स़ख्त विरोध में था और इसके लिए उसकी आँखों के सामने उसके पिताजी का उदाहरण था। इसके अलावा ‘माँ को कैसा लगेगा’ यह विचार भी उसके दिल में था। इसलिए उसने ये सारे युक्तिवाद करते हुए, रामकुमार को इस नौकरी का स्वीकार करने से परावृत्त करने के बहुत प्रयास किये। रामकुमार भी उसे समझाने की लाख कोशिशें कर रहा था कि यह साक्षात् देवीमाँ की पूजा का काम है, यहाँ पर उच्चनीचता बीच में आ ही नहीं सकती; लेकिन एक बार गदाधर के दिमाग में कोई बात बैठ गयी, तो उसे बदलना लगभग नामुमक़िन ही होता था।

इस पेचींदा परिस्थिति में से रास्ता निकालने के लिए आख़िर रामकुमार ने देवीमाँ का ही सहारा लिया। उस ज़माने में प्रचलित ‘कौल’पद्धति के अनुसार उसने मंदिर में देवीमाँ के सामने – ‘नौकरी का स्वीकार करें’ और ‘नौकरी का स्वीकार ना करें’ ऐसी चिठ्ठियाँ रखकर उसका ‘कौल’ चाहा। ऐसे विकल्पों की चिठ्ठियाँ देवीमाँ के सामने रखकर, सारी पूर्वपीठिका देवीमाँ को यथोचित रूप में बयान करके, उनमें से एक चिठ्ठी उठाने को किसी अबोध बालक को कहा जाता था। इस उठायी हुई चिठ्ठी में जो कुछ भी विकल्प रहता था, उसे ‘देवीमाँ के कौल’ के रूप में बिनशर्त स्वीकारा जाता था। वैसे इस समस्या का उत्तर – ‘नौकरी का स्वीकार करें’ ऐसा आया। कालीमाता यह गदाधर के लिए सर्वस्व होने के कारण और ‘उसीने यह ‘नौकरी का स्वीकार करने का’ कौल दिया है’ यह बात उसे मान्य होने के कारण, गदाधर का विरोध पूरी तरह लुप्त ही हो गया और उसने अब – मन के खिलाफ़ नहीं, बल्कि मन में रहनेवाले सारे पूर्वग्रह निकाल फेंककर बहुत ही प्रसन्न मन से रामकुमार के वहाँ नौकरी करने के लिए सहमति दर्शायी और वह स्वयं भी वहीं आकर रहने लगा।

यहाँ कालीमाता मंदिर के जितना ही उसका दूसरा आकर्षण, मंदिर से सटकर ही रहनेवाला गंगानदी पर बँधवाया गया घाट था। यहाँ पर वह घण्टों तक टकटकी लगाकर बैठता था।

लेकिन वह अपने बड़े भाई का उसके विभिन्न कामों में हाथ भी बटाता था। इस कारण उस विशाल मंदिरसंकुल का प्रचंड बड़ा कारोबार सँभाल रहे रामकुमार के लिए तो वह एक बड़ा ही आधार था। अपनी देखरेख में सिद्ध होकर अपने बाद गदाधर ही यह, कालीमाता मंदिर के ‘प्रमुख पुजारी’ पद को सँभालें, इसके लिए रामकुमार प्रयासशील था। तब तक, कम से कम संकुल में स्थित ‘राधाकृष्ण’ के या फिर दूसरे किसी मंदिर का पुजारी पद का तो गदाधर स्वीकार करें और अपना पेट खुद पालें, ऐसा रामकुमार को लगता था। पुजारीपद ना सही, लेकिन कम से कम राधाकृष्ण के मंदिर की मूर्तियों के गहनों की व्यवस्था तो, सोनेचाँदी का बिलकुल?भी आकर्षण न रहनेवाले गदाधर जैसा भरोसेमन्द इन्सान सँभालें, ऐसे प्रयास रामकुमार ने करके देखे। लेकिन ‘नौकरी’, ‘वेतन’, ‘रुपयेपैसे’, ‘सोनाचाँदी’ आदि बातों की घिन दिमाग में बैठे गदाधर का मन बदलना रामकुमार के लिए मुमक़िन नहीं हो रहा था। आख़िरकार, ‘जो जैसा चल रहा है, उसे वैसा ही चलने देते हैं, मुझे उस कौल के माध्यम से इस नौकरी का स्वीकार करने का आदेश देनेवाली कालीमाता ही उचित समय आने पर गदाधर का प्रबंध करेगी’ इस विचार तक आकर रामकुमार ने अपने ये प्रयास बन्द किये थे। अपने बाद इस व्यवहारी दुनिया में अपने इस अव्यवहारी भाई का निबाह कैसे होगा, यह चिन्ता उसे अब अधिक ही कुरेदने लगी थी।

लेकिन जिस देवीमाँ ने रामकुमार को वहाँ नौकरी करने का आदेश दिया था, उसे स्वाभाविक रूप में गदाधर का भी खयाल था ही!

इसी दौरान उन दोनों का एक भाँजा (बड़ी बहन का बेटा) ‘हृदय’ नौकरीव्यवसाय की?खोज में रामकुमार के पास आया था और नौकरी का प्रबन्ध होने तक फिलहाल उन दोनों के साथ ही रह रहा था। वह लगभग गदाधर की ही उम्र का होने के कारण इस मामा की (गदाधर) भाँजे के साथ अच्छी दोस्ती हो चुकी थी। हृदय वृत्ति से हालाँकि नेक था, मग़र वह व्यवहार भी अच्छी तरह समझता था। अहम बात यह थी कि गदाधर से वह अत्यधिक प्रेम….मानो भक्ति ही करता था और गदाधर की हर बात सरआँखों पर लेने के लिए वह तैयार रहता था।

‘हृदय’ के रूप में, इस व्यवहारी दुनिया में व्यवहार से संबंध रखना न चाहनेवाले गदाधर का खयाल रखनेवाला कोई तो, उस देवीमाँ ने ही मानो वहाँ पर भेज दिया था….

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