परमहंस-१२०

रामकृष्णजी की शिष्यों को सीख

श्रद्धावान के मन में ईश्‍वर के प्रति, अपने सद्गुरु के प्रति होनेवाली उत्कटता में कितनी आर्तता होनी चाहिए, इसके बारे में बताते हुए रामकृष्णजी ने कुछ उदाहरण दिये –

‘एक बार हमारे यहाँ आनेवाले एक भक्त को कहीं पर तो बबूल का एक पेड़ दिखायी दिया। उस बबूल के पेड़ के दिखायी देते ही वह भावोत्कट अवस्था में चला गया। अब किसी के मन में यह प्रश्‍न आ सकता है कि ऐसा क्या है बबूल के पेड़ में, जो उसे भावोत्कट बना गया? लेकिन वह बबूल का पेड़ देखते ही उसे, उसके आराध्य होनेवाले राधाकान्त के मंदिरपरिसर के पेड़ों की देखभाल करने के लिए जो कुल्हाड़ी इस्तेमाल की जाती थी, उसका डंडा बबूल के पेड़ से बनाया है, यह बात याद आयी और अन्त में विचारों का प्रवाह ‘राधाकांता’ की ओर मुड़कर वह भक्त भावोत्कट हो गया।

रामकृष्ण परमहंस, इतिहास, अतुलनिय भारत, आध्यात्मिक, भारत, रामकृष्णवैसे ही, भक्तिमार्ग में तरक्की किया हुआ दूसरा एक मनुष्य, उसके जो गुरु थे उनके पड़ोसी भी यदि उसे कहीं रास्ते में वगैरा दिखायी देते थे, तो भी वह भावोत्कट हा जाता था, क्योंकि उसके विचारों का प्रवाह, ‘ये ‘मेरे गुरुजी’ के पड़ोसी हैं’ से शुरू होकर अन्त में उसके गुरु तक जा पहुँचता था!

जिस तरह राधाजी को कोई साँवला मेघ देखकर, किसी के पोषाक़ में नीला रंग देखकर श्रीकृष्ण की ही याद आती थी और वह श्रीकृष्ण के न दिखायी देने से व्याकुल हो उठती थी, वैसा ही यह है।

अपने आराध्यदेवता से दूर-दूर से भी संबंधित कोई बात यदि हमारी आँखों के सामने आयी या ङ्गिर उसका खयाल भी दिल में आया, तो भी उस विचार को उस आराध्यदेवता की ओर मुड़ना चाहिए….यदि वैसा हुआ, तो वह भावोत्कटता उच्च श्रेणि की होगी। दरअसल श्रद्धावान के मन में अपने सद्गुरु के प्रति होनेवाली भावोत्कटता और विश्‍वास जैसे जैसे बढ़ता जायेगा, वैसे वैसे उसके जीवन में घटित होनेवाली हर बात में, घटना में सद्गुरु की ही कृपा है, यह एहसास उसके मन में अधिक से अधिक बढ़ता जायेगा।

भक्तिमार्ग में न होनेवालों को अथवा श्रद्धाहीनों को शायद यह पागलपन प्रतीत हों। लेकिन ‘यह’ पागलपन किसी भौतिक बात के प्रति नहीं, बल्कि यह पागलपन अपने आराध्यदेवता के बारे में है और भक्तिमार्ग में प्रगति करना चाहनेवालों के लिए वह उचित ही है, इसपर हमें ग़ौर करना चाहिए।

ईश्‍वर के प्रति ऐसे ‘पागलपन’ के रहे बिना भक्तिमार्ग में प्रगति कर ही नहीं सकते; और ईश्‍वर के प्रति ऐसा पागलपन महसूस होने के लिए सर्वप्रथम – ‘वह है’ और ‘वह ‘मेरा’ है’ इसपर भरोसा होना चाहिए।’

इस तत्त्व को शिष्यों के मन पर अंकित करने के लिए रामकृष्णजी ने यहाँ पर तीन मित्रों की एक कथा बतायी।

‘एक बार तीन मित्र प्रवास के लिए निकले। मार्ग जंगल से गुज़र रहा था। चलते चलते अचानक एक बाघ उनकी दिशा में आता हुआ उन्हें दिखायी दिया। उनमें से एक मित्र के तो तोते ही उड़ गये और ‘बापरे….सबकुछ ख़त्म हो गया’ ऐसा वह बोलने लगा। उसपर दूसरे मित्र ने, ‘क्यों?….ख़त्म हो गये ऐसा क्यों कहना? हम भगवान को पुकारेंगे, उसकी प्रार्थना करेंगे। भगवान यक़ीनन ही हमें इससे बाहर निकालेंगे’ ऐसा कहा। उसपर तीसरे मित्र ने – ‘अरे, लेकिन क्यों ऐसी छोटी छोटी बातों के लिए भगवान को परेशान करें? जितना हमारे बस में है उतना तो हम पहले करते हैं। हम इस पेड़ पर चढ़ जाते हैं। बाघ पेड़ पर नहीं चढ़ता। थोड़ी ही देर बाद जब बाघ ऊबकर यहाँ से चला जायेगा, तब हम नीचे उतरकर आगे जायेंगे’।

इतनी कथा बताकर रामकृष्णजी ने इस आशय का स्पष्टीकरण दिया –

इन तीनों में, वह घबराया हुआ और ‘सबकुछ ख़त्म हुआ’ कहनेवाला पहला मित्र यानी सर्वसामान्य जन, जिनमें से अधिकांश लोगों को भगवान का, ख़ासकर वह सक्रिय रूप में हमारी पुकार को प्रतिसाद भी देता है, इसका एहसास ही नहीं रहता। उन्होंने यदि भगवान का पूजन-अर्चन किया भी, तो वह केवल – ‘वे कोपित न हों’ इस डर के मारे किया हुआ रहता है।

‘हम भगवान को पुकारेंगे’ कहनेवाला वह दूसरा मित्र यानी भक्तिमार्ग पर चलनेवाले अधिकांश लोग, जिन्हें ‘भगवान हैं’ इसका भी भरोसा होता है और ‘संकट में पुकारे जाने पर वे दौड़े चले आते ही हैं’ इसका भी!

लेकिन – ‘क्यों ऐसी छोटी छोटी बातों के लिए भगवान को परेशान करें’ ऐसा कहनेवाला तीसरा मित्र यानी – ‘भगवान हैं ही और वे मेरे द्वारा पुकारे जाने पर दौड़े चले आयेंगे ही’ इस भक्तिमार्ग के पड़ाव को पार किये हुए, प्रगत स्थिति में होनेवाले साधक। ‘भगवान हैं ही और वे मेरे द्वारा पुकारे जाने पर दौड़े चले आयेंगे ही’ इसके बारे में उनके दिल में अंशमात्र भी सन्देह नहीं होता। उल्टे – ‘हमारे द्वारा गुहार लगायी जाने पर दौड़े चले आते समय भगवान को कितने कष्ट उठाने पड़ रहे होंगे, हम श्रद्धावानों के लिए भगवान की संरक्षक यंत्रणा चौबीसों घण्टें अविरत कार्यरत होती होने के कारण भगवान विश्राम कब करते होंगे’ इसका एहसास निर्माण करा देनेवाला यह अगला विचार-पड़ाव अब इनका शुरू हो चुका होता है। इस स्थिति में होनेवाले साधक अब ईश्‍वर को ‘अपना’ मानकर चलनेवाले और ईश्‍वर से सचमुच का प्रेम करनेवाले होते हैं। अपने आचरण से कहीं अपने भगवान को तकलीफ़ तो नहीं हो रही, इसके बारे में वे हमेशा जागरूक होते हैं। ईश्‍वर के प्रति इस प्रकार का ‘अपना’पन विकसित हुए बिना, उनके बारे में आत्यंतिक प्रेम निर्माण नहीं हो सकता।

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