नेताजी – ५

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हालाँकि सुभाष के पिताजी ने उसे हवाबदली के लिए कोलकाता भेजा, लेकिन कोलकाता के अँग्रे़जों की निरंकुश साम्राज्यवादी प्रवृत्ति का घिनौना प्रदर्शन देखकर उसका दिमाग और भी ख़ौल गया। प्रत्यक्ष अत्याचार से भी ज्यादा हमारी ग़ुलामी मानसिकता का ग़ुस्सा उसके मन में उबलने लगा। अपने प्रजाजनों के प्रति अनास्था होनेवाले इंग्लैंड़ के सम्राट तथा महारानी के प्रति तो उसके दिल में विशेष रूप से चीढ़ पैदा हो गयी। इस सबका जाय़जा लेते हुए ही सुभाष कटक वापस लौट आया। कठोर वास्तव के इस ऩजदीकी से हुए दर्शन ने उसके मन पर गहरा असर कर दिया था। मन अभी भी ग़ुस्से से उबल रहा था। उस उबलते हुए ग़ुस्से को बाहर आने का पहला मार्ग स्कूल में ही मिल गया।

वह हुआ यूँ कि उनके रॅव्हेनशॉ कॉलेजिएट स्कूल में प्रतिदिन सुबह सभी बच्चे स्कूल के मैदान में इकट्ठा होकर इंग्लैंड़ की महारानी की प्रार्थना गाया करते थे। उसका जिम्मा व्यायाम के अध्यापक पर था। रो़ज एक नया बच्चा प्रार्थना की शुरुआत करता था और बाक़ी बच्चे उसके सूर में सूर मिलाते। कोलकाता से वापस आने के बाद जब प्रार्थना शुरू करने की बारी सुभाष पर आ गयी, तब उसने यह इंग्लैंड़ की महारानी की प्रार्थना गाने से सा़फ इनकार कर दिया। व्यायाम के अध्यापक ग़ुस्से से आगबबूला हो गये। महारानी की प्रार्थना गाने से इन्कार करना, यह उस समय राजद्रोह का गुनाह माना जाता था और हमारे स्कूल का एक बच्चा यह करने की जुर्रत कैसे कर सकता है? इंग्लैंड़ की महारानी यानि हमारी….भारत की सर्वेसर्वा….और उनकी प्रार्थना गाने से इनकार करने की ग़ुस्ताख़ी यह बच्चा कर रहा है! इससे अत्यधिक क्रोधित होकर व्यायाम के अध्यापक ने न आव देखा न ताव, बस्स नन्हें सुभाष के हाथों पर छड़ियाँ बरसाने लगे। हाथ लाल-नीला पड़ गया, छड़ी की चोट के दाग़ दिखाई देने लगे, फिर भी ‘नहीं, मैं हरगी़ज नहीं कहूँगा रानी की प्रार्थना….नहीं कहूँगा….नहीं कहूँगा’ यह सुभाष का निश्‍चय हर घाव के साथ और भी दृढ़ होता गया और मास्टरजी का ग़ुस्सा हर घाव के साथ और भी बढ़ता गया। इतने छोटेसे बच्चे की मास्टरजी ने बैल की तरह पिटाई कर दी। इतने में इस घटना के बारे में पता चलते ही बेणीमाधवजी अपने ऑफिस से दौड़े चले आये और उन्होंने व्यायाम अध्यापक से और पिटे जाने से सुभाष को बचाया। ये व्यायाम अध्यापक भी ‘भारतीय’ ही तो थे। लेकिन वे अँग्रे़जों की केवल नौकरी नहीं कर रहे थे, बल्कि वे उनके ‘ग़ुलाम’ बन चुके थे और हम भारतीयों की इस ग़ुलामी मानसिकता की ही सुभाष को अत्यधिक चीढ़ थी। हम खुद ही यदि स्वयं को अँग्रे़जो के ग़ुलाम मानकर चलने लगे, तब वे तो हमें निश्चित ही ग़ुलाम माननेवाले हैं, ऐसा वह हमेशा कहता था।

इस घटना के बाद सुभाष को ते़ज बुख़ार चढ़ गया। इस घटना से सुभाष के माता-पिता पर तो जैसे पहाड़ ही टूट पडा। आनेवाला हर दिन उनके दिल में भय के साये को और भी घना कर रहा था कि आज हमारा बच्चा बाहर जाकर क्या ग़ुल खिलानेवाला है! आसपास का वातावरण भी कुछ विशेष आशादायी नहीं था।

सन 1905 में अँग्रे़जों ने बंगाल का बँटवारा कर दिया था, जिससे कि बंगाली जनता के मन प्रक्षुब्ध हो गये थे। लोकमान्य टिळकजी ने यह मह़ज बंगाल की समस्या न होकर सारे देश की समस्या है, यह एहसास भारतीयों के मन में जगाने के लिए जनजागृति करते हुए स्वराज्य, स्वदेसी, बहिष्कार तथा राष्ट्रीय शिक्षा इस चतुःसूत्री का नारा दिया था, जिससे कि सारा देश भड़ककर वंगभंग के आन्दोलन में उतरा था। बंगाल में तो हिंसा आग की तरह भड़की थी। इस वंगभंग के आन्दोलन का जोर उस समय चोटी पर था। सन 1908 के ऐतिहासिक अलिपुर बमविस्फोट मुकदमे ने भारतीय समाजजीवन में का़फी सारा परिवर्तन कर दिया था। टिळकजी के देशप्रेम को राजद्रोह क़रार देकर उन्हें छः सालों के लिए एकान्तवास में मंडाले भेजा गया था। छोटी उम्र के खुदीरामजी बोस को फॉंसी की स़जा दी गयी थी। वे ‘वंदे मातरम्’ का उद्घोष करते हुए सीना तानकर हँसते हँसते फॉंसी पर चढ़ गये थे। देश के कोने कोने में उनकी जयकार गूँज रही थी, फिर देशप्रेम से ओतप्रोत भरे सुभाष के वे ‘हीरो’ कैसे न बनते! जिस दिन खुदीरामजी को फॉंसी पर चढ़ाया गया, उस दिन सुभाष फूट-फूटकर रोया था। उसने खुदीरामजी की एक तसवीर भी अपनी मे़ज पर चिपकाकर रखी थी। अब तक उस तसवीर की तऱफ उसके माता-पिता का विशेष ध्यान नहीं गया था, लेकिन अब स्कूल में इस प्रसंग के घटित होते ही वह तसवीर उनकी आँखों में चुभने लगी।

एक तो जानकीबाबू कटक के प्रतिष्ठित इ़ज्जतदार व्यक्तियों में से थे। इसलिए जानकीबाबू के बच्चे ने इंग्लैंड़ के महारानी की प्रार्थना गाने से इनकार कर दिया, यह बात पूरे कटक में फैल गयी। अब सरकार कहीं इस बात को राजद्रोह का तड़का तो नहीं देगी, इस भयंकर आशंका के साथ जानकीबाबू आया हुआ हर दिन बिताते। सुभाष के प्रति ममता की भावना रखनेवाले बेणीमाधवजी का भी वहाँ से तबादला हो चुका होने के कारण अब इस मनस्वी बच्चे का स्कूल में कौन ख़याल रखेगा, यह भी एक बड़ा प्रश्‍नचिह्न ही था। साथ ही, यहाँ-वहाँ से कुछ अन्य ‘ख़बरें’ भी आने लगीं, तब जानकीबाबू ने सुभाष से जोर देकर इस बारे में प्रश्‍न पूछना शुरू किया और धीरे धीरे कई हैरान कर देनेवाली बातें सामने आने लगीं।

सुभाष जब ‘हवाबदली’ के लिए कोलकाता गया था, तब ‘अनुशीलन समिति’ के कुछ सदस्यो से उसका संपर्क स्थापित हुआ। कोलकाता से लौटने के बाद समिति के कटक स्थित कुछ सदस्यों के साथ भी सुभाष का संपर्क था, उनकी नियमित रूप से मीटिंग्ज हो रही थीं और उनमें से एक मीटिंग शमशान में भी हुई थी, इस बात का पता चलने के बाद तो सुभाष के परंपरावादी माता-पिता को गहरा सदमा ही पहुँचा। और तो और, उन सदस्यों में से कुछ सदस्यों का तो हमारे घर आना-जाना रहता है, यह ज्ञात होते ही जानकीबाबू के पैरों तले जमीन ही खिसक गयी। पुलीस की ‘ऩजर में’ रहनेवालों के साथ सुभाष की मित्रता होना, यह बात जानकीबाबू को बिल्कुल भी पसन्द नहीं थी। लेकिन यदि इस नाज़ूक मोड़ पर सुभाष पर जोर डाला जाये, तो वह मनस्वी सुभाष शायद सिर में खाक डालकर घर छोड़कर चला जायेगा, यह डर भी उनके मन में था। अत एव, पढ़ाई पूरी हो जाने तक पढ़ाई पर ही अपना ध्यान केंद्रित करें, यह उन्होंने सुभाष से प्रेमपूर्वक कहा।

हालाँकि इससे अब सुभाष का वक़्त-बेवक़्त घर से बाहर जाना तो कम हो गया, मग़र अब उसके मन में ग्रन्थों के प्रति रहनेवाली रूचि बढ़ गयी और वह मोटी मोटी क़िताबें बेतहाशा पढ़ने लगा।

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