नेताजी – ४२

जैसे जैसे युवराज के कोलकाता पधारने का दिन क़रीब आ रहा था, वैसे वैसे सरकार एक के बाद एक आत्मघाती फैसले करते ही जा रही थी। सबसे पहले वासंतीदेवी को गिऱफ़्तार कर आन्दोलन को शिथिल करने के दाँवपेंच नाक़ाम हो जाने के बाद, आन्दोलन को जड़ से उखाड़ने की दृष्टि से सरकार ने दासबाबू को गिऱफ़्तार किया था। लेकिन उससे कोई नतीजा नहीं निकल रहा है, यह देखकर सरकार ने एक के बाद एक करके आन्दोलन के अन्य नेताओं को और आख़िर १०  दिसम्बर को सुभाषबाबू को भी गिऱफ़्तार किया और उन्हें भी प्रेसिडेन्सी जेल में रखा गया।

netaji- ‘सुभाषबाबू से नेताजी’

सुभाषबाबू का पहला कारावास – ‘सुभाषबाबू से नेताजी’ बनने के प्रवास की मानो जैसे शुरुआत ही!

इतनी गिऱफ़्तारियाँ होने के बावजूद भी आन्दोलन थमने का नाम नहीं ले रहा था, बल्कि वह बढ़ते ही जा रहा था।

सरकार हर सम्भव प्रयास कर रही थी। कोलकाता में ‘प्रिन्स’ को इस तरह के दृश्य दिखायी देना यह सरकार के लिए सिरदर्द की बात बन सकती थी। जहाँ तक भारत का सवाल है, अँग्रे़जों की दृष्टि से कोलकाता का महत्त्व अनन्यसाधारण ही था। दरअसल भारत में अंग्रे़जों ने चंचुप्रवेश किया था, वह इस कोलकाता में से ही; और अँग्रे़जों को भारत से मिलनेवाली आमदनी का महत्त्वपूर्ण हिस्सा कोलकाता, आसाम परिसर की चाय और सन की बाग़ानों से मिलता था। एक एक करके भारत के सभी रियासतदारों और राजा-महाराजाओं को अंकित बनाकर सारे देश को निगलने के बाद अँग्रे़जों ने भारत की अपनी पहली राजधानी कोलकाता में ही स्थापित की थी। संक्षेप में, अँग्रे़जी हुकूमत का एक हिस्सा होनेवाले भारत को जलाकर निकलनेवाला सोने के धुआँ अधिकतर उद्योगसम्पन्न कोलकाता से ही प्राप्त हो रहा था।

….और ऐसे कोलकाता में दुनियाभर में फैली हुई अँग्रे़जी हुकूमत के भावी सम्राट का आना, यह अँग्रे़जों के भारतस्थित प्रतिनिधियों की दृष्टि से यक़ीनन ही कोई मामूली बात नहीं थी। इसीलिए युवराज के आने से पहले कोलकाता का गरमागरमी का माहौल शान्त हो जाये, इस दृष्टि से दिल्ली से लेकर गली तक सरकार के बाशिंदे इसी काम में जुट गये थे। व्हाईसरॉय रीडिंग काँग्रेस से समझौता करने के लिए तैयार थे। ‘सभी राजकीय कैदियों तो रिहा कर दिया जायेगा और स्वयंसेवक दल पर लगी पाबन्दी को समाप्त कर दिया जायेगा; साथ ही युवराज के वापस लौटते ही भारत के सभी राजकीय पक्षों के साथ भारत की भावी राज्यपद्धति और राज्यघटना के बारे में सरकार चर्चा करेगी’ यह गाजर भी उन्होंने दिखाया था। इस काम में मध्यस्थ की भूमिका पंडित मदनमोहन मालवीयजी ने निभायी थी।

लेकिन गाँधीजी अलीबन्धुओं की रिहाई करने की माँग पर अटल थे। बिना उनकी रिहाई के, चर्चा आगे बढ़ ही नहीं सकती, यह उन्होंने सरकार से साफ़ साफ़ कह दिया था, क्योंकि असहकार आन्दोलन के लिए अलीबन्धुओं से समर्थन लेते हुए अलीबन्धुओं एवं उनके खिलाफत आन्दोलन को समर्थन देने का वादा गाँधीजी ने किया था और अपना हर वादा निभाने के लिए आग्रही रहनेवाले गाँधीजी की ताकत ‘सत्याग्रह’ ही थी। युवराज के वापस लौट जाने के बाद अलीबन्धुओं को रिहा कर दिया जायेगा, ऐसा आश्‍वासन हालाँकि सरकार ने दिया तो था, लेकिन सरकार के खोख़ले आश्‍वासनों पर गाँधीजी को बिल्कुल भी भरोसा नहीं था।

बातचीत करने के बाद भी गाँधीजी अपनी बात पर अटल है, यह देखकर २४ दिसम्बर से पहले समझौता करने की जल्दी में रहनेवाले व्हाईसरॉय ने अब कोलकाता के आन्दोलन के सर्वेसर्वा रहनेवाले दासबाबू के माध्यम से भी कोशिशें शुरू कर दीं। समझौता करने के लिए स्वयं व्हाईसरॉय रीडिंग कोलकाता में दाखिल हो चुके थे। मौलाना आ़जाद, मोतीलाल नेहरू, लाला लजपतराय ये नेता भी प्रेसिडेन्सी जेल में एकत्रित हुए थे। दासबाबू की सहायता करने सुभाषबाबू, किरणशंकर रॉय आदि युवा नेता तो थे ही। बातचीत का दौर शुरू हो गया। प्रेसिडेन्सी जेल और साबरमती आश्रम इनके बीच टेलिग्राम्स का आना-जाना शुरू हो गया।

सुभाषबाबू तो इस प्रस्ताव से बहुत ही खफा  थे। जिस गाँव में जाना ही नहीं है, उसका भला रास्ता पूछने की जरूरत ही क्या है? यह उनकी भूमिका थी। अभी अभी तो आन्दोलन के शोलें भड़क उठे हैं और सफलता के आसार ऩजर आ रहे हैं, तो इस मुक़ाम पर आन्दोलन को बीच में ही बन्द कर देना, यह लगभग जीत चुकी लड़ाई को आधी-अधूरी छोड़कर रणभूमि में से भाग जाने जैसा है, अँग्रे़ज सरकार की नाक में दम करने का सुनहरा अवसर हाथ से गँवाने जैसा है, यह उनकी राय थी। सरकार को मुँह के बल गिराने के लिए शुरू किये हुए इस आन्दोलन को सरकार की ही विनति की वजह से बन्द करना, यह अपने ही पाँव पर कुल्हाड़ी मार लेने जैसा है। नहीं, नहीं….इस दिशा में सोचना ही नहीं है।

सुभाषबाबू आदि युवा नेताओं के जवान जोश से बनी उनकी राय को सुनते हुए, दासबाबू एक तरफ  उन सभी की रगों में दौड़ रहे आत्यन्तिक अँग्रे़जद्वेष के अंगारों को देखकर खुश भी हो रहे थे; लेकिन उन लोगों की यह राय भविष्यकाल का अनुमान, भूतकाल की सीख तथा सभी पहलुओं का विचार किये बिना ही बनी थी, इसका भी एहसास उन्हें था। युद्ध में कभी कभी दीर्घकालीन लक्ष्य को ध्यान में रखकर उस वक़्त के लिए दो कदम पीछे भी हटना पड़ता है, इस बात को सुभाषबाबू से उम्र में, अनुभव में बुज़ुर्ग रहनेवाले दासबाबू का तजुर्बा उनसे कह रहा था। गाँधीजी ने सरकार को स्वराज्य के लिए दी हुई मोहलत के ख़त्म होने में बस अब कुछ दिन ही बाक़ी बचे थे। ‘एक वर्ष में स्वराज्य’ यह गाँधीजी ने लोगों के मन में जगाया हुआ विश्‍वास कहीं टूटकर बिखर न जाये, ऐसे हालात बन चुके थे। अब इस मोड़ पर यदि हम हमारे अड़ियल रवैये को कायम रखते हैं, तो सरकार भी स़ख्त कदम उठाकर पुनः दमनतन्त्र शुरू कर देगी और मोहलत के ख़त्म होने के बावजूद भी हमें कुछ भी हासिल नहीं होगा; साथ ही, लोगों का आन्दोलन पर का भरोसा उड़कर उनमें शिथिलता आ जायेगी। इसके बजाय, यदि अभी दो कदम पीछे हटकर नर्म रवैया अपनाया जाये, तो सरकार राजकीय कैदियों को रिहा करनेवाली थी, स्वयंसेवक दल पर लगी पाबन्दी समाप्त कर देनेवाली थी; जिससे कि खुली हवा में साँस लेने की फ़ुरसत मिलनेवाली थी और स्वयंसेवक दल के माध्यम से फिर एक बार ते़जी से कार्य की शुरुआत करना मुमकिन होनेवाला था।

कभी कभी अगले मार्ग सुकर बनाने की दृष्टि से इस तरह दो कदम पीछे हटना भी (टॅक्टिकल रिट्रीट) दीर्घकालीन हितकारी साबित होता है। लोकमान्य टिळकजी ने मंडाले की जेल से रिहा हो भारत लौटने के बाद जब सरकार को समर्थन देने का ऐलान किया था, तब उन्हें भी इसी तरह की आलोचना का सामना करना पड़ा था। लेकिन उनपर लगी स्थानबद्धता-ऩजऱकैद और लेखन-भाषण पर लगी पाबन्दी इन्हें हटाने के लिए टिळकजी ने सोच-समझकर चली हुई वह एक चाल थी, यह बात कइयों की काफी  समय बाद ध्यान में आयी। उसी तरह, सरकार के समझौते के प्रस्ताव का स्वीकार करने में कोई हर्ज नहीं है, यह कहनेवाले दासबाबू की यही रणनीति थी।

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