नेताजी-६१

सुभाषबाबू ने जमशेदपूरस्थित टाटा स्टील कंपनी के म़जदूरों की जाय़ज माँगों के लिए व्यवस्थापन के साथ किया हुआ यशस्वी संघर्ष और लाहौर में सायमन कमिशन के खिला़फ़ निकाले गये निषेध मोरचे पर किये गये लाठीचार्ज में लालाजी का हुआ निधन इन घटनाओं को अपने में समेटकर १९२८ का वर्ष अपने अस्त की ओर बढ़ने लगा। लेकिन अस्त के पूर्व यह वर्ष एक और महत्त्वपूर्ण घटना का गवाह होनेवाला था और वह थी – दिसंबर महीने में होनेवाला काँग्रेस का कोलकाता अधिवेशन।

कोलकाता अधिवेशन

गत वर्ष मद्रास काँग्रेस में संपूर्ण स्वतन्त्रता के प्रस्ताव को पारित करते हुए जो दो बातें करना तय किया गया था, उनमें से एक यानि कि ‘सायमन कमिशन का जगह जगह पर निषेध’ यह बात तो हो ही रही थी। लेकिन दूसरी – अधिक पेंचींदा बात यह थी कि भारतमंत्री लॉर्ड बर्कनहेड के – ‘भारतीयों में एकता न होने के कारण वे सर्वसंमत ऐसे प्रस्ताव को प्रस्तुत कर ही नही सकते’ इस विधान को गलत ठहराना। उस दृष्टि से सर्वधर्मियों का एकमत होने के लिए ही १९२७ के नवंबर में ‘युनिटी कॉन्फ़रन्स’ का आयोजन किया गया था। उसमें, सभी भारतीयों की ओर से मात्र एक ही प्रस्ताव प्रस्तुत किया जाना चाहिए इस बात पर तो सहमति हो चुकी थी, लेकिन उस प्रस्ताव के मसूदे को अंतिम स्वरूप देने की दिशा में १९२८ साल में सर्वपक्षीय बैठकों का आयोजन किया गया। पहली सर्वपक्षीय बैठक फ़रवरी में मुंबई में आयोजित की गयी। उसमें बाक़ी सभी बातों पर सहमति हो गयी, मग़र ‘धर्माधिष्ठित विभक्त-आरक्षित चुनावक्षेत्र’ यह विवादास्पद मुद्दा रहा। सन १९०५ में बंगाल का बँटवारा कर लॉर्ड कर्झन ने जो फ़ूट के बीज बोये थे, उन्हें बढ़ावा देने के उद्देश्य से सन १९०९ में किये गये ‘सुधारों’ में चुनावक्षेत्रों का धर्मों के अनुसार विभाजन होकर उनमें मुस्लिमों को विभक्त-आरक्षित चुनावक्षेत्र प्राप्त हुए थे और इन बैठकों में मुस्लिम लीग की उस बारे में आग्रही भूमिका थी। वहीं, काँग्रेस का यह कहना था कि विभक्त-आरक्षित चुनावक्षेत्रों को न रखते हुए उन्हें जनसंख्या के अनुपात में संयुक्त-आरक्षित चुनावक्षेत्र दिये जायें। इस मुद्दे पर सहमति नहीं हो रही थी।

ये चर्चाएँ विफ़ल होकर कहीं बर्कनहेड का विधान सत्य न हो जाये, इसलिए गांधीजी ने मोतीलाल नेहरूजी की अध्यक्षता में विभिन्न धर्मों का प्रतिनिधित्व करनेवाले ८ लोगों की समिति का गठन किया। अलाहाबाद के मोतीलाल नेहरूजी के निवासस्थान – आनंदभवन में इस समिति की कई बैठकें होकर अगस्त में ‘नेहरू रिपोर्ट’ को प्रकाशित किया गया, जिसमें संयुक्त चुनावक्षेत्रों का पुरस्कार किया गया था। लेकिन उसपर विचारविमर्श करने के लिए लखनौ में बुलायी गयी सर्वपक्षीय परिषद में उसपर सहमति नहीं हो पायी। इसलिए अगली परिषद दिसंबर में कोलकाता में बुलाने का तय किया गया।

सुभाषबाबू की दृष्टि से नेहरू रिपोर्ट में एक अन्य विवादास्पद मुद्दा था और वह यह था कि इस रिपोर्ट में ‘उपनिवेशी स्वराज्य यह अपना उद्देश्य है’ इस पुराने राग को ही अलापा गया था। उन्होंने काँग्रेस कार्यकारिणी की बैठक में उसपर ऐतरा़ज जाहिर कर, उसके बदले ‘संपूर्ण स्वतंत्रता’ यह सुधार करने का सुझाव दिया। इसे जवाहरलाल नेहरूजी ने समर्थन दिया। लेकिन उसे अन्य किसी का समर्थन न होने के कारण उन दोनों ने अपने अपने सेक्रेटरीपद से इस्ती़फ़ा देकर काँग्रेस के तहत ही अलग ‘इंडिपेन्डन्स लीग’ का गठन करने का निश्‍चय किया। लेकिन काँग्रेस में रहकर भी वे इस कार्य को कर सकते थे, इसलिए उनके इस्ती़फ़े मंज़ूर नहीं किये गये। नवम्बर में सुभाषबाबू और जवाहरलालजी ने दिल्ली में ‘इंडिपेन्डन्स लीग’ का पहला अधिवेशन बुलाकर युवाओं को मार्गदर्शन किया। लेकिन उनका प्रमुख लक्ष्य था – दिसम्बर में कोलकाता में हो रहा काँग्रेस का अधिवेशन।

उसके अध्यक्ष का चुनाव करने की दृष्टि से गतिविधियाँ शुरू हो गयीं। उस समय ऐसी परिपाटी थी कि सभी प्रान्तीयसमितियाँ संभाव्य नामों का सुझाव देती थीं और जिसे सबसे अधिक समर्थन प्राप्त होता था, उसके नाम की घोषणा कर उस प्रस्ताव पर मतदान किया जाता था। दासबाबू के निकटवर्ती रह चुके और स्वराज्यपक्ष के निर्माण में उनका साथ दिये हुए नेता के रूप में मोतीलालजी के प्रति बंगाल प्रान्तीयकाँग्रेस में बहुत सम्मान की भावना थी। इसलिए सुभाषबाबू ने भी बंगाल काँग्रेस की बैठक में उन्हीं के नाम का समर्थन किया और अध्यक्षपद के लिए मोतीलालजी का नाम निश्चित कर उसे कार्यकारिणी के पास भेज दिया। लेकिन अब जीवन के संध्या काल में प्रवेश कर चुके मोतीलालजी की ‘इस बार जवाहरलालजी को अध्यक्ष बनाया जाये’ ऐसी इच्छा थी। उस जमाने में काँग्रेस अध्यक्ष को ‘राष्ट्रपति’ और उसकी कार्यकारिणी को उसका ‘मंत्रिमंडल’ कहकर संबोधित किया जाता था। इसीलिए यह सर्वोच्च सम्मान अपनी आँखों के सामने अपने पुत्र को प्राप्त हो, इसलिए वे कोशिशें कर रहे थे और इसीलिए उन्होंने उस सन्दर्भ में गाँधीजी को खत भी लिखा था। हालाँकि जवाहरलालजी के नाम पर गाँधीजी को कोई ऐतरा़ज नहीं था, मग़र फ़ीर भी बंगाल प्रांतिक काँग्रेस ने मोतीलालजी के नाम का सुझाव दिया है, इस बात का पता चलते ही जनमत के रूख को अचूकता से पहचाननेवाले गाँधीजी ने मोतीलालजी को ही अध्यक्ष बनने के लिए कहा। एक बार गाँधीजी का मत जाहिर होते ही मोतीलालजी अविरोध अध्यक्ष बनने में कोई मुश्किल ही नहीं रही।

बंगाल प्रांतिक काँग्रेस के अध्यक्ष के रूप में सुभाषबाबू पर अब तेहरी जिम्मेदारी आ गयी थी। काँग्रेस के इस कोलकाता अधिवेशन की तैयारी के साथ ही उन्हें सर्वपक्षीय परिषद की तैयारी भी करनी थी। साथ ही, उस वर्ष पहली बार काँग्रेस अधिवेशन के मंडप में ही युवक काँग्रेस का अधिवेशन होनेवाला था। उसकी भी तैयारी उन्हें करनी थी। दिनरात एक कर सुभाषबाबू काम में जुट गये। सुभाषबाबू जिस फ़ूर्ति के साथ काम में जुट गये थे, उसे देखकर कोई इस बात पर विश्‍वास ही नहीं कर सकता था कि एक वर्ष पूर्व वे व्याधिग्रस्त पीड़ितावस्था में अपने जीवन की आख़िरी घड़ियाँ गिन रहे थे। साथ ही, और एक महत्त्वपूर्ण बात यह थी कि चार साल के राजकीय संन्यास के बाद पहली बार गाँधीजी काँग्रेस अधिवेशन में उपस्थित रहनेवाले थे। सुभाषबाबू तथा जवाहरलालजी की भूमिकाओं को देखते हुए और जनमत को किसी भी दिशा में मोड़ने की सुभाषबाबू के वक्तृत्व की ताकत को देखते हुए, कोलकाता काँग्रेस में नेहरू रिपोर्ट की धज्जियाँ उड़ायी जायेंगीं, इस बात का अँदा़जा होने के कारण ही गाँधीजी ने इस अधिवेशन में उपस्थित रहने का निश्चित किया था। गाँधीजी और सुभाषबाबू के बीच भले ही कितनी भी वैचारिक मतभिन्नता हो, लेकिन मूलतः उनके प्रति अत्यधिक आदर होने के कारण उनके स्वागत में कोई कमी न रहे, इसलिए सुभाषबाबू तैयारी में कोई कसर नहीं छोड़ रहे थे।

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