नेताजी – १०४

हरिपुरा काँग्रेस के अध्यक्षपद पर से किये हुए क्रान्तिकारी भाषण के कारण सुभाषबाबू की पुरोगामी विचारधारा से सभी भली-भाँति परिचित हो ही चुके थे। अब उनके चाहनेवालों में महज़ भारतीय जनता ही नहीं, बल्कि विचारक, छात्र, शास्त्रज्ञ एवं अर्थविशेषज्ञ भी शामिल होने लगे थे। सुभाषबाबू ने अपने भाषण में जिन जिन मुद्दों का ज़िक्र किया था, उन उद्दिष्टों तक पहुँचने के लिए उन्होंने प्रत्यक्ष रूप में कदम उठाना शुरू कर दिया। अपने अध्यक्षीय भाषण में उन्होंने नियोजनसमिति के गठन का सूतोवाच किया ही था। इस सन्दर्भ में सोव्हिएत रशिया का उदाहरण उनके सामने था और उन्हीं की तरह सर्वसमावेशक राष्ट्रीय नियोजन किये बिना देश का विकास होना सम्भव नहीं है, यह उनकी राय थी। इस नीति को दिशा देने की दृष्टि से उन्होंने दिल्ली में सभी प्रान्तों के मुख्यमन्त्रियों (जिन्हें उस समय उस सम्बन्धित प्रान्त के प्रधानमंत्री कहा जाता था) एवं उद्योगमन्त्रियों की बैठक आयोजित की और उसमें उन्होंने रशिया को मद्देनज़र रखते हुए राष्ट्रीय नियोजन करने पर ज़ोर दिया। उसके अनुसार उन्होंने जवाहरलालजी की अध्यक्षता में राष्ट्रीय नियोजन समिति की स्थापना की। इस समिति के कार्य में उन्हें मुंबई के के. टी. शाह जैसे कई मान्यवर अर्थविशेषज्ञों से बहुमूल्य मार्गदर्शन मिला।

इंडियन सायन्स न्यूज असोसिएशन के तीसरे अधिवेशन के लिए अध्यक्ष के रूप में सुभाषबाबू को चुना गया। प्रा. मेघनादजी साहा ने उनका एक इन्टरव्ह्यू भी लिया, जिसमें उन्होंने उस समय जड पकड़ रही भारत के विभाजन के माँग की समस्या के बारे में एवं सुभाषबाबू के सपनों के अखण्ड भारत के सन्दर्भ में जब उनसे पूछा, तब सुभाषबाबू ने कहा – अनेकविध भाषाएँ, जातिधर्म इनका अस्तित्व रहनेवाले भारत को एकसन्ध रखना यह बड़ा मशक्कतभरा काम है, लेकिन उन सबके हृदय में भारतीयत्व के अखण्ड सूत्र के कायम रहने के कारण यह नामुमक़िन भी नहीं है। लेकिन राष्ट्रीय एकता यह जितनी समान भाषा, समान संस्कृति आदि घटकों पर निर्भर करती है, उससे कई गुना अधिक वह राष्ट्र के सभी की एकसाथ रहने की इच्छा पर निर्भर करती है। राष्ट्र की अखण्डता यह उनकी तड़प थी और उसके लिए उन्होंने व्यक्तिगत सम्मान-अपमान को बाजू में रखकर बॅ. जिना से भी मुलाक़ात की, लेकिन अपनी ज़िद पर अड़े जिना ने किसी भी प्रकार से उनकी बात नहीं मानी। उनकी सारी कोशिशें नाक़ाम हो गयीं और आगे चलकर जो कुछ हुआ, वह तो हम सभी जानते ही हैं।

क्रान्तिकारी भाषण

बीच में ही उन्होंने एक अकल्पित कार्य किया। मुंबई के एक मशहूर मुखौटे बनानेवाले से उन्होंने अपने लिए एक मुखौटा बनवा लिया। उनके बहुत ही क़रीब जाने के बाद ही वह मुखौटा है, इस बात का पता चलता था। आगे चलकर पुलीस को भनक तक न लगने देते हुए उन्होंने इस मुखौटे का उपयोग जर्मन, इटालियन एवं जापानी उद्योगमन्त्रियों मिलने के लिए किया।

इन सभी गतिविधियों में सन १९३८ यह वर्ष अपने अस्त की ओर आगे बढ़ रहा था।

अब सभी की नज़रें लगी थीं अगले काँग्रेस अधिवेशन की ओर – त्रिपुरी काँग्रेस की ओर। जैसे तैसे पिछला वर्ष बीतने का इन्तज़ार करनेवाले, होश उड़ चुके सुभाषविरोधकों ने अब राहत की साँसें लेना शुरू कर दिया था। गाँधीजी कम से कम अब तो किसी गाँधीसमर्थक का नाम सूचित करेंगे, ऐसी आशा उनके मन में जग रही थी। विद्यमान अध्यक्ष सुभाषबाबू भी संभाव्य अध्यक्ष के नाम पर सोचविचार कर रहे थे, कार्यकारिणी सदस्यों के साथ बातचीत कर रहे थे। अब तक तो गाँधीजी द्वारा सूचित किया गया व्यक्ति ही अध्यक्ष बनेगा, यह पत्थर की लक़ीर थी। लेकिन बदलते जागतिक हालातों में यदि विश्‍वयुद्ध छिड़ ही जाता है – और वे यह भली भाँति जानते थे कि वह घड़ी काफी़ क़रीब आ ही चुकी है – तो इंग्लैंड़ अपने साथ भारत को भी युद्ध की खाई में धकेल देगा, बल्कि इस युद्ध के संसाधनों के लिए अर्थात् शस्त्र-अस्त्र, सैनिकबल, वाहन और युद्ध का खर्च, इन सबके लिए पुनः भारत का ही शोषण करेगा, यह ज़ाहिर था। इस घड़ी में शहद घोलनेवाले, आज़ादी के खोख़ले आश्‍वासन देते रहनेवाले अँग्रेज़ों के सामने घुटने टेकनेवाले नेता की अपेक्षा, जो देशहित को प्रधानता देकर अँग्रेज़ों को साफ़ साफ़ ‘ना’ कह सके; इतना ही नहीं, बल्कि भारत को ग़ुलाम बनानेवाले अँग्रेज़ मुश्किल में पड़ जाने पर, उनसे स्वतन्त्रता प्राप्त करने का यह भारत को मिला स्वर्णिम अवसर ही है, यह मानकर जो देशव्यापी आन्दोलन छेड़ सके, ऐसे किसी मज़बूत इरादोंवाले, युद्धकुशल प्रवृत्ति के अध्यक्ष की काँग्रेस को ज़रूरत थी, लेकिन सुभाषबाबू द्वारा सूचित किये गये अध्यक्ष के नाम को गाँधीजी से मंज़ुरी मिलेगी या नहीं, इस बारे में सन्देह ही था। इसलिए उस दृष्टि से सुभाषबाबू अपने क़रीबी सहकर्मियों के साथ एक एक करके संभाव्य नामों के बारे में विचारविमर्श कर रहे थे।

लेकिन गर्दिश में फँसे अँग्रेज़ों की हालत के स्वर्णिम अवसर का लाभ उठाकर किसी विराट जनआन्दोलन को छेड़ने की ना तो उनमें क्षमता थी और ना ही गाँधीजी के विरोध में जाने की हिम्मत। इसीलिए आख़िर तक ये लोग अपने निर्णय के साथ अटलतापूर्वक चलते रहेंगे भी या नहीं, इसका यक़ीन दिलाया नहीं जा सकता था।

एक के बाद एक करके सारे नाम रद हो गये। आख़िर अन्य सहकर्मियों ने आपस में विचारविमर्श कर यह तय कर लिया कि अकेले सुभाषबाबू ही यह अग्निपरीक्षा देने में क़ाबिल रहने के कारण उन्हें ही पुनः अध्यक्ष बनना चाहिए। इसलिए सर्वसंमति से सुभाषबाबू ही पुनः अध्यक्षपद का चुनाव लड़ें, यह तय कर लिया गया और सुभाषबाबू से सभी ने यह आग्रह भी किया। पहले तो, किसी भी पद का मोह न रखनेवाले सुभाषबाबू, ज़ाहिर है कि इसके लिए तैयार ही नहीं थे। लेकिन इस निर्णायक दौर के प्रारंभिक वर्ष के अध्यक्ष का नर्मवादी रहना मुनासिब नहीं था। आख़िर गाँधीजी को इन हालातों से केवल वे ही अवगत करा सकते हैं, यह सभी के द्वारा निर्धारपूर्वक कहे जाने के बाद निरुपायित होकर सुभाषबाबू ने पुनः अध्यक्ष बनने के लिए हाँ कर दी।

इस मामले में गाँधीजी के साथ विचारविमर्श करने के लिए उन्होंने सेवाग्राम जाने का निश्चय कर लिया।

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