नेताजी-१०६

त्रिपुरी काँग्रेस के अध्यक्षपद के मुद्दे पर माहौल गरमा चुका था। कई सहकर्मियों के सुस्पष्ट सुझाव के बाद जब निरुपाय होकर सुभाषबाबू ने अध्यक्षपद के लिए पुनः पर्चा भरने का निर्णय ले लिया, तब तो वह उनके विरोधकों को उन्हें मात देने के लिए एक अच्छा अवसर प्रतीत हुआ। उन्होंने इस प्रश्‍न को प्रतिष्ठा का मुद्दा बनाकर, चाहे जो भी हो जाये लेकिन सुभाषबाबू को पुनः अध्यक्ष बनने नहीं देंगे, यह ठान ली और गाँधीजी को भी यह फ़ैसला करने पर मजबूर करने के हेतु से वे सेवाग्राम के चक्कर काटने लगे; और ज़ाहिर है कि सर्वसाधारण हालात में एक ही व्यक्ति लगातार दो बार काँग्रेस अध्यक्ष नहीं बन सकता, यह गाँधीजी द्वारा ही काँग्रेस की घटना में निर्दिष्ट किये गये कलम का आधार ये लोग ले रहे थे।

त्रिपुरी काँग्रेस

सुभाषबाबू भी शरदबाबू के साथ अपना पक्ष रखने के लिए सेवाग्राम पहुँच गये।

हालाँकि गाँधीजी के मन में सुभाषबाबू के प्रति बेहद प्रेमभाव था, मग़र साथ ही वे भी अपने तत्त्वों से किसी भी प्रकार का समझौता कभी नहीं करते थे। सबसे अहम बात थी, सुभाषविरोधकों ने गाँधीजी को प्रस्तुत किये हुए – सुभाषबाबू का पत्रव्यवहार, क्रान्तिकारियों के साथ हुए उनके गुप्त वार्तालाप, राशबिहारीजी के ‘उस’ ख़त की कॉपी, कुछ ही दिनों पूर्व भेंस बदलकर मुम्बई आये सुभाषबाबू ने जर्मन उद्योग प्रतिनिधियों के साथ की हुई गुप्त मुलाक़ात का वृत्तान्त (इस शिष्टमण्डल में हिटलर के मन्त्रिमण्डल के दो मन्त्री भी थे। इस वार्तालाप की जानकारी हासिल करने में अँग्रेज़ गुप्तचरों को क़ामयाबी मिली थी और उन्होंने ही उस जानकारी और अन्य सबूतों को गाँधीजी तक पहुँचाने के लिए सुभाषविरोधकों के हवाले कर दिया था), साथ ही त्रिपुरी काँग्रेस के लिए चल रहे सभासद पंजीकरण में बोस बन्धुओं द्वारा किये गये तथाकथित भ्रष्टाचार की शिक़ायतें इन दस्तावेजों से भरी फ़ाईल उनके लिए सिरदर्द का कारण बन गयी। हिंसात्मक मार्ग पर चलकर प्राप्त किया हुआ यश दीर्घकाल तक नहीं टिक सकता, इस सिद्धान्त पर अटल भरोसा रखनेवाले गाँधीजी का हालाँकि सुभाषबाबू पर सम्पूर्ण विश्‍वास था, लेकिन सभी क्रान्तिकारी सुभाषबाबू जैसे नहीं होते, यह भी गाँधीजी जानते थे। किसी भी क्षेत्र में आगे बढ़ने के साथ साथ कहाँ पर रुकना चाहिए, इसका ज्ञान होना भी महत्त्वपूर्ण रहता है। यह भान सुभाषबाबू के पास अवश्य है, इस बारे में हालाँकि गाँधीजी को पूरा यक़ीन था, लेकिन दूसरों के पास वह होगा भी या नहीं, यह गाँधीजी नहीं जानते थे। इसीलिए जो एक बार शुरू हो जाते ही सर्वनाश किये बिना नहीं रुकती, ऐसी हिंसा का समर्थन करनेवालों को उनका स़ख्त विरोध था। इसी वजह से अहिंसा के तत्त्वज्ञान की ना़फ़रमानी करने की दिशा में आगे बढ़ रहे सुभाषबाबू का लगातार दूसरी बार काँग्रेस अध्यक्ष बनना गाँधीजी को नामंज़ूर था।

इसीलिए उन्होंने इसी कलम के बलबूते पर, उस तरह के असाधारण हालात न होने के कारण इस बार सुभाषबाबू अध्यक्ष नहीं बन सकते, यह कह दिया। हालाँकि सुभाषबाबू का आग्रह स्वयं के नाम के लिए कदापि नहीं था। स़िर्फ़ तेज़ी से बदल रहे जागतिक हालात का सबसे अधिक लाभ भारत के पलड़े में डालनेवाले दृढ़निग्रही व्यक्ति का अध्यक्षपद के लिए चयन किया जाना आवश्यक है, इतना ही उनका मन्तव्य था। लेकिन सुभाषबाबू ने स्वयं के अलावा जिन अन्य नामों का सुझाव गाँधीजी को दिया था, वे गाँधीजी को मंज़ूर नहीं थे। आख़िर ‘सुभाषमध्यस्थी’ नाक़ामयाब होकर बोसबन्धु कोलकाता लौट आये और यह गुत्थी अनसुलझी ही रही।

इस मामले को उलझता हुआ देखकर जवाहरलालजी ने भी सुभाषबाबू को इस विचार से परावृत्त करने की कोशिशें कीं। ‘तुम्हारी ऊँचाई इस अध्यक्षपद से कई गुना अधिक है, क्यों ख़ामख़ाह विवाद में स्वयं को उलझा रहे हो? हम बाहर रहकर देशकार्य करेंगे’ यह कहकर उन्हें मनाने की का़फ़ी कोशिश की। लेकिन व्यक्तिगत मानसम्मान, स्वयं की ऊँचाई इनका अणुमात्र भी विचार न करनेवाले सुभाषबाबू ने भी निर्धारपूर्वक – अध्यक्षपद के लिए पर्चा भरने की इच्छा मेरी नहीं है, बल्कि अनगिनत सभासदों एवं कई प्रान्तीय समितियों की है। मेरा जीवन देश के लिए समर्पित रहने के लिए उनके फ़ैसले का सम्मान करना मेरा कर्तव्य है, यह कहकर पीछे हटने से इन्कार कर दिया।

सुभाषबाबू पीछे हटनेवाले नहीं हैं, यह समझते ही गाँधीजी ने सुभाषबाबू के टक्कर के नेता जवाहरलालजी को ही अध्यक्षपद के चुनाव के मैदान में उतरने के लिए कहा। लेकिन उन्होंने हालात का जायज़ा लेते हुए विनम्रतापूर्वक इन्कार कर मौलाना आज़ाद का नाम गाँधीजी को सूचित किया। लेकिन इस होड़ में अपना पत्ता सा़फ़ हो जायेगा, यह जानकर आज़ादजी ने भी विनयपूर्वक ‘ना’ कर दी। बाक़ी के लोगों की क्षमताओं से गाँधीजी अवगत थे और मुक़ाबला सुभाषबाबू के साथ था। इसीलिए गाँधीजी ने अधिक समय न गँवाते हुए सीधे सीधे कार्यकारिणी के पटेल, राजेन्द्रप्रसाद, कृपलानी आदि गांधीसमर्थकों को बुलाकर उनसे एकनिष्ठ गाँधीभक्त डॉ. पट्टाभि सीतारामय्याजी को अध्यक्षपद के लिए पर्चा भरने कहा। वे मुझे ‘ना’ नहीं कहेंगे, इसका गाँधीजी को यक़ीन था।

अब शुरू होनेवाली थी, एक काँटे की टक्कर, क्योंकि अब चुनाव अटल थे और एक युद्ध की तरह ही उसपर अपना रंग चढ़ चुका था।

काँग्रेस के वामपन्थी विचारधारा वाले सदस्यों ने पत्रक प्रकाशित कर सुभाषबाबू को अपना समर्थन ज़ाहिर किया। डॉ. प्रफ़ुल्लचंद्र रॉय, मेघनाद साहा आदि वैज्ञानिकों नें भी सुभाषबाबू को समर्थन दिया। इस भागदौड़ में सुभाषबाबू का हौसला बढ़ानेवाली एक ही अच्छी घटना हुई और वह थी, शान्तिनिकेतन में गुरुदेव रविन्द्रनाथ टागोरजी के साथ हुई उनकी मुलाक़ात, जिसका होना अच्छेअच्छों को भी नसीब नहीं होता था। उस मुलाक़ात से उनके मन को सुकून मिला। साथ ही गाँधीजी जिन्हें गुरुतुल्य मानते थे ऐसे रविन्द्रनाथजी ने पहले ही सुभाषबाबू ज़ाहिर रूप में अपना समर्थन दे दिया था और इस सिलसिले में गाँधीजी को ख़त भी भेजा था। लेकिन रविन्द्रनाथजी जैसे ऋषितुल्य व्यक्तित्त्व पर भी, केवल वे बंगाली होने के कारण सुभाषबाबू का समर्थन कर रहे हैं, यह इल्ज़ाम लगाने में भी सुभाषविरोधक नहीं हियकिचाये। सम्पूर्ण देश की राजनीति में तेजस्वी सूर्य के समान चमकनेवाले सुभाषबाबू को इस तरह के प्रान्तीय लेबल चिपकाना गुरुदेवजी को कतई मंज़ूर नहीं था। इसीलिए संकुचित मनोवृत्ति वाले सुभाषविरोधकों द्वारा उछाले गये कीचड़ से बुज़ुर्ग गुरुदेवजी व्यथित हो गये।

वहीं, दूसरी तऱफ़ इस ‘लड़ाई’ को प्रतिष्ठा की बना चुके सुभाषविरोधकों ने अपना मोरचा सँभालते हुए पहली तोप दाग दी।

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