नेताजी – ६

Netaji Subhas Chandra Bose - 1936कम से कम पढ़ाई पूरी होने तक तो नेताजी सुभाष को अन्य किसी भी झमेले में न पड़ते हुए पढ़ाई पर ही अपना ध्यान केन्द्रित करना चाहिए, ऐसी मृदु चेतावनी पिता के द्वारा मिलने के बाद सुभाष का देर रात तक बाहर भटकना थोड़ा कम हो गया और क़िताबें पढ़ने पर उसने जोर दिया। प्रौढ़साक्षरता आदि समाजसेवा भी थोड़ीबहुत चल ही रही था। विवेकानंदजी के वाङ्मय का अध्ययन तो वह कर ही चुका था, साथ ही विवेकानंदजी के गुरु रामकृष्ण परमहंस के बारे में भी उसने जानकारी इकट्ठा की थी और इसीसे उसके मन में योगमार्ग के प्रति आकर्षण उत्पन्न हुआ था। एकान्त में ध्यान लगाकर वह घण्टों तक बैठता था। अब ईश्वर की खोज करने की उत्कटता उसके मन में जागृत हो चुकी थी। किसीने उससे कहा कि गुरु ही अगला मार्ग दिग्दर्शित कर सकते हैं। फिर सुभाष और उसके मित्र गुरु की खोज में जुट गये। कटक के पास ही स्थित जगन्नाथपुरी यह तीर्थक्षेत्र रहने के कारण कई साधुबैरागियों का कटक में भी आनाजाना रहता था। लेकिन सुभाष के मन को सन्तोष प्रदान करनेवाला कोई भी अधिकारी मनुष्य उसे नहीं मिला।

इसी दौरान आसपास की राजनीतिक परिस्थिति भी अलग अलग रंग दिखा रही थी। सन 1911 में अँग्रे़ज सम्राट पंचम जॉर्ज उनके राज्यारोहण के पश्चात् भारत पधारे थे। उनकी इस यात्रा के पहले भारत के गंभीर हालातों में सुधार करने की दृष्टि से राज्यारोहण के अवसर पर सम्राट द्वारा भारत की जनता के लिए ख़ास उपहारस्वरूप दो घोषणाएँ की गयी थीं। उनमें से पहली थी – देश भर के असन्तोष की वजह बना बंगाल का बँटवारा आख़िर रद कर दिया गया था और दूसरी घोषणा थी – अँग्रे़जी हुकूमत की राजधानी का दर्जा अब कोलकाता के बजाय दिल्ली को मिलनेवाला था। इसके लिए पुरानी दिल्ली के पास ही एक सुनियोजित शहर को बसाया गया था – यही है आज की नयी दिल्ली। इसी दिल्ली के व्हाईसरॉय के जंगी राजमहल में बड़े शाही दरबार का आयोजन किया था। उसके लिए देशभर से रियासतदार, गिनेचुने अमीरजादे आदि चुनिन्दा पॉंच-छः सौ प्रतिष्ठित व्यक्तियों को न्योता दिया गया था। कटक से जानकीबाबू को भी निमन्त्रित किया गया था। सुभाष को उन हालातों में से बाहर निकालने के लिए जानकीबाबू को यह एक अच्छा अवसर लगा और वे अपने साथ सुभाष को भी ले गये।

नेताजी सुभाष अपने पिता के साथ शाही दरबार जा पहुँचा। लेकिन वहॉं पर हो रहे साम्राज्यशाही और भारतीयों की ग़ुलामी मानसिकता के घिनौने प्रदर्शन को देखकर वह ऊब गया। शाही सम्राट को ईश्वर का दर्जा देकर उनकी चाटुकारिता करनेवाले आत्मसम्मानशून्य रियासतदारों को देखकर उसका संवेदनशील मन बार बार अंगार की तरह ङ्गूल रहा था – क्या ये जीवित लोग हैं या दरबारी पोषाक़ पहनी हुईं जीवित लाशें? यह प्रश्‍न उसके मन में उठ रहा था। उसका खून इस कदर खौल रहा था कि सबसे हस्तान्दोलन करते करते जब सम्राट उसके पास आये, तब उसने ना तो औरों की तरह गर्दन झुकाकर मुजरा किया और ना ही हस्तान्दोलन; वह तो सीना तानकर उनकी ऩजर से ऩजर मिलाकर खड़ा था। आसपास के लोगों के मन में यह भय उत्पन्न हुआ कि इस गुस्ताख़ी के लिए सम्राट अब इसे किस प्रकार का दण्ड देंगे? लेकिन भारत की जनता की दारुण स्थिति को ध्यान में रखकर भारतीयों के ही पैसों को इस तरह शाही समारोह वगैरा आयोजित कर बेतहाशा उड़ानेवाले अँग्रे़ज सम्राट को देख वह आगबबूला हो गया था।

कटक लौट आने के बाद सुभाष और उसके मित्रों की समाजसेवा पुनः शुरू हुई| जानकीबाबू को उसके समाजसेवा करने में कोई आपत्ति नहीं थी। उल्टा वे सुभाष को समाजसेवा करने के लिए प्रोत्साहित ही करते थे।

दिल्ली के उस शाही दरबार ने सुभाष के मन पर का़ङ्गी गहरा ज़ख्म किया था। उसका मन उद्वेग से भर गया था। इस क्षति की पूर्ति अगले साल की गयी। दिसम्बर 1912 में व्हाईसरॉय हार्डिंग्ज की शोभायात्री दिल्ली में से गु़जर रही थी। आगे-पीछे घुड़सवार, राजा-महाराजाओं के पथक थे। चॉंदनी चौक में इस शोभायात्रा के पधारने के बाद हाथी पर स्थित हौदे में बैठे हुए हार्डिंग्ज पर किसी जिगरबा़ज क्रान्तिकारी ने बम फेंक दिया। लेकिन दुर्भाग्यवश निशाना ग़लत लगने के कारण हाथी का माहूत मारा गया और हार्डिंग्ज बाल बाल बच गया। लेकिन इस घटना से उसकी बोलती बन्द हो गयी थी।

इस कार्य को अंजाम देनेवाले क्रान्तिकारी का नामोनिशान तक नहीं मिल रहा था। इससे देश भर में इस घटना की तथा उस बहादूर क्रान्तिकारी की प्रशंसापूर्ण चर्चा हो रही थी। सुभाष का घर भी इसके लिए अपवाद नहीं था। उस समय सुभाष ने पिता के सामने उस क्रान्तिकारी की भूमिका का समर्थन ही किया। जानकीबाबू को यह समझने में देर नहीं लगी कि अब सुभाष के मन में क्रान्तिकारी विचार पुनः उङ्गान पर हैं। वे उसे अपने तरीक़े से समझाने की लाख कोशिशें करते, लेकिन अब सुभाष की मनोभूमिका ठोस बन चुकी थी।

अगले कुछ दिनों में ही उस बहादूर क्रान्तिकारी का नाम ‘रासबिहारी बोस’ है और वे बड़ी सफ़ाई से भूमिगत हो चुके हैं, यह भी ज्ञात हो गया। भारत की भूमिका को आन्तरराष्ट्रीय स्तर पर प्रभावी रूप में प्रस्तुत करने के लिए और देश-विदेश के क्रान्तिकारियों में सुसूत्रता लाने के लिए अमरीका में लाला हरदयाल द्वारा स्थापित ‘गदर पार्टी’ की भूमिका का प्रचार करने का कार्य वे करते थे।

जानकीबाबू के मन को सुभाष की चिन्ता दिनबदिन खाये जा रही थी। साथ ही, एक दिन उन्हें सुभाष की रूप में गदर पार्टी का प्रचारपत्र मिला। इस बात से वे चौंक गये। कहीं मेरे बेटे के क्रान्तिकारियों के साथ प्रत्यक्ष सम्बन्ध तो नहीं हैं, इस चिन्ता ने उन्हें घेर लिया था। उसी दिन कोर्ट में उन्हें जब इस बात का पता चला कि रासबिहारी स्वयं ही गुप्त रूप से कटक आकर गये और उनकी मदद के लिए कटक के क्रान्तिकारियों ने जो गुप्त फंड इकट्ठा किया था और सुभाष ने इस काम में का़फी मदद की थी; तब उनके पैरों तले ज़मीन ही खिसक गयी।

सहमे हुए सूर ने उन्होंने सुभाष से कहा कि ‘छात्रदशा के चलते हुए तुम यह जो कुछ भी कर रहे हो, वह ठीक नहीं है। तुमसे हमें काफ़ी उम्मीदें थीं। लेकिन अब मॅट्रिक की परीक्षा को मात्र दस-पंद्रह दिन ही बाक़ी हैं और तुम्हारी इन करतूतों को देखकर तो मुझे ऐसा लग रहा है कि यदि तुम मॅट्रिक की परीक्षा में सभी विषयों में पास भी हो जाते हो, तो वह भी काफ़ी है।’

पिता के इन शब्दों ने सुभाष के हृदय को चीर दिया। मॅट्रिक की परीक्षा हुई। नतीजें घोषित हुए। सुभाष मॅट्रिक की परीक्षा दूसरे नंबर से पास हुआ था।

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