नेताजी- ६२

गाँधीजी के आदेश के अनुसार मोतीलालजी ने सन १९२८ की कोलकाता काँग्रेस के अध्यक्षस्थान का स्वीकार तो किया, लेकिन अपनी ‘नेहरू रिपोर्ट’ का क्या होगा, यह चिन्ता उन्हें सता रही थी। इस रिपोर्ट पर काँग्रेस कार्यकारिणी में हुई बहस में सुभाषबाबू के विरोधी सूर में उनके बेटे जवाहरलालजी ने मिलाया हुआ सूर और सुभाषबाबू के मत को काँग्रेस में मिल रहा बढ़ता समर्थन यह उसकी वजह थी। सुभाषबाबू इन तीनों अधिवेशनों की तैयारी में जुट गये थे।

युवक काँग्रेस के स्वागताध्यक्ष- सुभाषबाबू

सर्वप्रथम हुआ युवक काँग्रेस का अधिवेशन। यह युवक काँग्रेस का पहला ही अधिवेशन होने के कारण और वह भी काँग्रेस अधिवेशन के मंडप में ही, युवाओं का उत्साह चरमसीमा पर था। इस तरह काँग्रेस अधिवेशन के मंडप में ही युवक काँग्रेस के अधिवेशन का नियोजन होना, यह एक प्रकार से काँग्रेस में युवाशक्ति के बढ़ते प्रभाव को मान्यता ही मिली है, ऐसी भावना युवाओं में थी। इसलिए केवल पंजाब, मुंबई, चेन्नई से ही नहीं, बल्कि दूरदरा़ज के इलाक़ों में से भी युवा प्रतिनिधि बड़ी तादाद में अधिवेशन के लिए दाखिल हुए थे। उनके अध्यक्ष थे, मुंबई के के. एफ़. नरिमन, ये फ़ूर्तिले वक़ील। मुंबई असेंब्ली में स्वराज्य पक्ष के सदस्य रहनेवाले नरिमनजी ने अपनी अध्ययनशील वृत्ति और अँग्रे़जी पर रहनेवाले प्रभुत्व से कई बार सभागृह को हिलाकर रख दिया था। विशेष रूप से वे मशहूर हुए थे, तत्कालीन मुंबई सरकार द्वारा उस समय ‘बॅकबे रेक्लमेशन’ प्रोजेक्ट में पैसों को ग़ैरवाजिब ढंग से खर्च किया जा रहा है, यह उन्होंने जब सप्रमाण सिद्ध किया था, तब। इसके लिए उन्हें मुक़दमा भी लड़ना पड़ा था। लेकिन उसमें उन्हें जीत हासिल हुई थी। उनके अंगभूत गुणों के कारण आगे चलकर गाँधीजी की सूचना के अनुसार काँग्रेस कार्यकारिणी पर भी उन्हें नियुक्त किया गया था।

इस युवक काँग्रेस के स्वागताध्यक्ष थे, सुभाषबाबू। अब तक केवल जिनका नाम ही सुना था, उन सुभाषबाबू को सुनने का पहला ही अवसर मिलने के कारण उनके भाषण के समय मंडप खचाखच भरा हुआ था। सुभाषबाबू ने अपने भाषण में सर्वप्रथम ‘संपूर्ण स्वतन्त्रता’ यही भारत की जरूरत है यह दृढ़तापूर्वक प्रदिपादित किया। लेकिन उसके लिए निवृत्तिवाद को तिलांजलि देकर सक्रियता से कार्य में जुट जाने का वक़्त आ चुका है और इसमें युवाओं की भूमिका बहुत ही महत्त्वपूर्ण है, यह राय भी उन्होंने जाहिर की। निवृत्तिवाद का चंचुप्रवेश हो सके ऐसी ग़लत अति-आध्यात्मिक विचारधाराओं की भी उन्होंने कड़ी आलोचना की। इनमें प्रमुख रूप से साबरमती तथा पाँडिचेरी से प्रतिपादित की जानेवाली विचारधाराओं का समावेश था।

दरअसल किसी समय अरविंदबाबू ये सुभाषबाबू के आदर्श थे और उन्होंने अरविंदबाबू के आध्यात्मिक अधिकार को निर्विवाद रूप से मान भी लिया था। इसलिए अरविंदबाबू की विचारधारा के सन्दर्भ में सुभाषबाबू की तीखी आलोचना सुनकर कइयों को ताज्जुब हुआ; वहीं, कइयों को ग़ुस्सा भी आया। लेकिन यह विचारपरिवर्तन किसी एकाद-दो दिन की अवधि में नहीं हुआ था। प्रारंभिक काल में अरविंदबाबू के विचारों में से सहजता से प्रसारित होनेवाली ज्वलंत देशभक्ति उनके मन को मोह लेती थी। लेकिन वास्तव में अरविंदबाबू का यह अनन्त आध्यात्मिक स़फ़र जारी ही था। अत एव उसके विविध पड़ावों पर उन्हें जो जो अनुभूतियाँ प्राप्त होती गयीं, उनकी मुहर उनके उस उस समय के विचारों पर पड़ी हुई सा़फ़ सा़फ़ दिखायी देती थी। इसी कारण आगे चलकर उनके लेखन में देशभक्ति और भारत की आ़जादी इनकी अपेक्षा मोक्ष, ध्यानधारणा इन विषयों का समावेश अधिकतर होने लगा। ‘भारत की आ़जादी’ इस अपने उच्चतम ध्येय के प्रति सुभाषबाबू की सभी भावभावनाएँ इस कदर केंद्रित हो चुकी थीं कि जो व्यक्ति किसी समय मेरा आदर्श था, उसके विचार मेरे ध्येय के प्रति विपरित होते जा रहे हैं यह दिखायी देते ही, उन विचारों को तिलांजली देने में वे बिल्कुल भी नहीं कतराये। मंडाले की जेल में एकान्त में चिन्तन करते हुए, ‘जल्द से जल्द भारत को आ़जाद कराना’ इस निर्धारित ध्येय के निकष पर अरविंदबाबू के विचारों को परखते हुए सुभाषबाबू को स्वतन्त्रता के आन्दोलन की दृष्टि से उनके विचारों की अपर्याप्तता का एहसास हुआ और वैसा उन्होंने अपने दोस्त दिलीपकुमार को लिखे हुए ख़त में बयान भी किया था। इतना ही नहीं, बल्कि ‘गत कई सदियों से इस निष्क्रियता को जन्म देनेवाली इस विचारधारा का इतना आड़ंबर हमारे देश में मचाया जा रहा है कि इस देश को प्रवृत्तिवाद की ‘दुगुनी खुराक’ देना अपरिहार्य बन चुका है’ यह भी उन्होंने चीढ़कर उस ख़त में लिखा था। इस चीढ़ का एक और भी तत्कालिक कारण था। उनका एक जोशीला अग्रसर विश्‍वसनीय कार्यकर्ता विफ़लताग्रस्त होकर हाल ही में इस विचारधारा का शिकार हो गया था, जिससे वे और भी व्यथित हो चुके थे।

हालाँकि ध्यानधारणा से मानव को आत्मिक बल मिलता है, यह उन्हें मंज़ूर था और उन्हें स्वयं को भी इस मार्ग का शुरू में आकर्षण था, मग़र तब भी वह साधारण मानव का मार्ग नहीं है, इसका भी उन्हें एहसास था। क्योंकि अरविंदबाबू जैसे अत्यधिक उच्चकोटि को प्राप्त हुए साधकों की बात तो ठीक है, लेकिन सामान्य मानव ध्यानधारणा आदि करने के कारण यदि अधिक समय एकान्त में व्यतीत करने लगा, तो व्यावहारिक दृष्टिकोन से निष्क्रिय बनकर उसकी बुद्धि को जंग लग सकती है; और उस प्रवाह में – ‘आध्यात्मिक विकास के लिए निरन्तर किये गये निष्काम कर्मयोग के अलावा और कोई चारा नहीं है’ इस बात को वह भूल सकता है, यह भी उन्होंने जाना। जंगल में जाकर ध्यानधारणा करनेवाले ऋषिमुनियों का भारत ने हमेशा ही सम्मान किया है, लेकिन आज देश को एकान्त में ध्यानधारणा करते बैठनेवालों की नहीं, बल्कि सक्रिय देशकार्य करनेवालों की जरूरत है। उस तरा़जू में तोलते हुए – ध्यानधारणा कर मुक्ति के लिए कोशिशें करना नहीं, बल्कि भारतमाता की मुक्ति के लिए निष्काम कर्मयोग का आचरण करना अधिक महत्त्वपूर्ण है, यह उनकी राय बन चुकी थी और इसी बात को उन्होंने उस युवक काँग्रेस के संमेलन में कड़े शब्दों में बयान किया।

साथ ही, हमेशा वर्तमान में ही जीना चाहिए, यह सन्देश भी उन्होंने अधिवेशन के लिए उपस्थित युवाओं को दिया। वर्तमान में जीते हुए हमेशा वर्तमान की उचित जरूरतों का एहसास रखने के बारे में भी उन्होंने उन्हें सचेत किया। इस सन्दर्भ में, साबरमती द्वारा पुरस्कृत कुटिरोद्योग, ग्रामविकास ये संकल्पनाएँ भले ही आवश्यक हों, लेकिन उनके साथ साथ दुनिया में बह रही नयी औद्योगिक हवा को भी ऩजरअन्दा़ज कर नहीं चलेगा, यह भी उन्होंने, भारत की तत्कालीन स्थिति को मद्देऩजर करते हुए सा़फ़ सा़फ़ कहा। उनके इस प्रागतिक भाषण के कारण हालाँकि गाँधीजी तथा अरविंदबाबू के कई समर्थकों के दिलों को चोट पहुँची, मग़र अपनी राय किसी से भी न डरते हुए दृढ़तापूर्वक जाहिर करनेवाले सुभाषबाबू को उसकी परवाह नहीं थी।

Leave a Reply

Your email address will not be published.