नेताजी-४

netaji - chicagoसुभाषबाबू के जीवन में दाखिल हो चुके स्वामी विवेकानन्दजी ने उन्हें बाह्य-आभ्यन्तर भारित कर दिया था। अपने जीवन का हेतु ही मानो स्वामीजी समझा रहे हैं, ऐसा उन्हें लगा। विवेकानन्दजी के विचार पुरोगामी ही थे। भोगवादी संस्कृतिप्रधान पश्चिमी देशों में जब भारत के बारे में रहनेवाले घोर अज्ञान के कारण भारत से संबंधित ग़लत धारणाएँ प्रचलित थीं, तब उन्हीं धारणाओं को जड़ से उखाड़ देने का महत्त्वपूर्ण कार्य स्वामीजी ने पश्चिमी देशों में जाकर अपने अमोघ वक्तृत्व द्वारा किया था। शिकागो की जागतिक सर्वधर्मपरिषद को संबोधित करते हुए, किसी भी सभा की शुरुआत में प्रयुक्त किये जानेवाले ‘लेडीज् अँड जंटलमेन’ (‘देवियों और सज्जनों’) इस प्रचलित पश्चिमी संबोधन के बजाय उन्होंने ‘माय ब्रदर्स अँड सिस्टर्स’ (‘मेरे भाइयों और बहनों’) यह संबोधन प्रयुक्त कर सभा को जीत लिया था और भारतीय संस्कृती की ‘विश्वबंधुता’ संकल्पना का दुनिया को परिचय भी कराया था। उस समय भारतीय समाज में नासूर की तरह पनप रहे निवृत्तिवाद पर प्रहार कर प्रवृत्तिवाद का समर्थन करनेवाले ज्वलंत विचार विवेकानन्दजी ने भारतीय समाज को दिये। प्राचीन और अर्वाचीन इनका स्वर्णसंगम करने की ताकत रखनेवाले विवेकानन्दजी के विचारों से सुभाषबाबू काफी प्रभावित हुए।

दरअसल मूलतः सुभाषबाबू स्वयं भी एक श्रेष्ठ श्रद्धावान ही थे। भारतीय संस्कृति द्वारा नरदेह की श्रेष्ठता तथा दुर्लभता प्रतिपादित किये जाने का कारण यही है कि ‘ईश्वर’ इस संकल्पना का आकलन केवल मानवजन्म में ही हो सकता है, पशुयोनि में यह मुमक़िन नहीं है और सुभाषबाबू इससे पूरी तरह सहमत थे। अत एव भक्ति ही यशस्वी जीवन की नींव है और ईश्वरप्राप्ति ही जीवन का अन्तिम ध्येय है, यह जान लेने के कारण – मैं जो कुछ भी कर रहा हूँ, वह ईश्वर के चरणों में अर्पण करते करते एक दिन सारा जीवन ही उनके चरणों में अर्पण कर देना, यही उनके जीवन का सूत्र था।

लेकिन ये मूल तत्त्व और दुनियादारी इनके बीच में रहनेवाले जमीन-आसमान के फर्क के कारण वे सोच में पड़ जाते थे। लेकिन व्यावहारिक जीवन का इन मूल तत्त्वों के साथ तालमेल बिठानेवाले विवेकानन्दजी के विचारों ने उन्हें अपने भावी जीवन का मार्ग दिखायी देने लगा। गृहस्थी की जिम्मेदारी कन्धों पर रहनेवाले गृहस्थाश्रमी मनुष्य का ईश्वर की खोज करने के लिए सर्वसंगपरित्याग कर संन्यासी बनने के पीछे दौड़ना यह मह़ज अपनी जिम्मेदारीयों से मुँह फेरने के लिए अपनाया गया भगोड़ापन है। मग़र साथ ही सिर्फ उपयुक्तता के निकष पर किसी बात की ग्राह्य-अग्राह्यता निर्धारित करना, इस पश्चिमी भोगवादी जीवनशैली की व्यर्थता को भी उन्होंने जान लिया था। केवल दूसरों के हित के बारे में सोचना और मह़ज अपने हित के बारे में सोचना, ये दोनों अव्यवहार्य और अतिव्यवहारी मार्ग सुभाषबाबू को त्याज्य लगने लगे और वास्तव का भान कराते हुए इन दोनों का स्वर्णमध्य रहनेवाला स्वामीजी का मध्यममार्ग ही उन्हें स्वीकार्य लगने लगा। परमेश्वर की प्राप्ति करने के लिए जंगलों में भटकने की जरूरत नहीं है, ग़रिबों के आँसू पोछने में ही परमार्थ अपने आप सिद्ध हो जाता है, यह परमार्थिक और व्यावहारिक जीवन का ‘प्रॅक्टिकल’ जोड़ रहनेवाला स्वामीजी का विचार सुभाषबाबू को भाने लगा। भारत के युवकों को यदि उनकी अंगभूत शक्ति का एहसास हो जाये, तो वे ज़ुल्मी अँग्रे़जों की नाक में दम कर देंगे, इस विचार के साथ भारत की युवाशक्ति पर दृढ़ विश्वास अभिव्यक्त करनेवाले स्वामीजी सुभाषबाबू के भावविश्व पर पूरी तरह छा गये।

निष्काम कर्मयोग का उद्घोष करनेवाली भगवद्गीता का मह़ज घनपाठ कर उसका निष्क्रियतापूर्वक चिन्तन करते रहने से मोक्ष नहीं मिलता, बल्कि भक्तिमय निष्काम सेवा से ही ईश्वर का सामीप्य प्राप्त किया जा सकता है, यह अर्थ स्वामीजी के विचारों से सुभाषबाबू की समझ में आया। राष्ट्रभक्ति से ओतप्रोत रहनेवाले स्वामीजी के ज्वालाग्राही विचारों ने उनकी नींद उड़ा दी। स्वामीजी ने उनके लेखन द्वारा तत्कालीन भारत की जिस दर्दनाक खौफनाक तस्वीर को चित्रित किया था, उसे देखकर तो उनके हृदय में देशभक्ति का तूफान ही उठा।

भारत की इस हालत को पढ़कर छोटे सुभाष को स्वयं का, अपने घर की शानदार बग्गी में बैठकर स्कूल जाना भी गुनाह जैसा ही लगने लगा और उन्होंने पैदल स्कूल जाना शुरू किया।

विवेकानन्दजी की ग्रन्थसम्पदा का ख़जाना हाथ लगने के बाद के कई दिन सुभाष घर में होने के बावजूद भी अपनी दुनिया में खोया रहता था। अकेले ही चिन्तन करते रहता। बचपन से उसके जीवन को प्रभावित करनेवाले उसके बड़े भाई शरदबाबू वक़ीली पाठ्यक्रम का अध्ययन करने के लिए कोलकाता (उस समय का कलकत्ता) में रहते थे। सुभाष लंबेचौड़े ख़त लिखकर अपने विचार खुले दिल से उन खतों द्वारा अभिव्यक्त करता था। अब धीरे धीरे गढ़न हो रहा था, मिट्टी से एक शानदार खूबसूरत शिल्प का। मन पर लगी जंग धीरे धीरे साफ हो रही थी और विचारों का ध्रुवीकरण होने लगा था। उसकी इस खोज के सफर  में उसकी मुलाक़ात कई समविचारी दोस्तों से हुई और उनका एक ग्रुप ही बन गया था।

वहीं सुभाष के मातापिता उसकी इस स्थिति तथा गतिविधि के कारण काफी परेशान हो चुके थे। पिताजी ने उसे ‘हवाबदली’ के लिए चार-छः दिनों के लिए कोलकाता शरदबाबू के पास भेजने का तय किया। सुभाष अपनी माँ के साथ कोलकाता आया था। स्वामीजी द्वारा वर्णित किये गये भारत को वह पहली बार ही घर से बाहर निकलकर खुली ऩजर से देख रहा था। उस समय कोलकाता यह अँग्रे़जों की राजधानी थी। जाहिर है कि इस वजह से वहाँ पर उनकी ही दादागिरी चलती थी – होटलों में, ट्रामों में, हर जगह उनके लिए सीट्स् रिझर्व रखी जाती थीं। यदि किसी अँग्रे़ज के आने से पहले ही सारी रिझर्व सीट्स् पर अँग्रे़ज बैठे हों, तो उस अभ्यागत अँग्रे़ज के लिए बाकी सीटों पर बैठे भारतीय लोगों को उठाकर उसके लिए सीट खाली करवायी जाती थी। विभिन्न बीमारियों से पीड़ित मरणासन्न लोगों को खाली पेट तांगे खीचते हुए देखकर सुभाष का दिल दहल जाता था। अँग्रे़जों की इस मग़रूरी तथा घिनौनी हरकतों के कारण सुभाष का खून ख़ौल उठा। साथ ही इन सभी बातो को चूपचाप सहते हुए अँग्रे़जों की ग़ुलामी करने की भारतीयों की मानसिकता के बारे में उसके मन में चीढ़ उत्पन्न हो जाती थी। अपने ही साम्राज्य का एक हिस्सा रहनेवाले एक ग़रीब देश के बारे में अँग्रे़ज सम्राट की तथा महारानी की अनास्था देखकर अँग्रे़जों के प्रति उसका मन सर्वथा चीढ़ से भर गया।

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