नेताजी-१०९

वर्धा जाकर गाँधीजी से हुई सुभाषबाबू की प्रत्यक्ष मुलाक़ात में उन दोनों के बीच खुले दिल से चर्चा हुई, जिससे कि तनाव अब काफ़ी हद तक दूर हो चुका है, ऐसा सुभाषबाबू को लगने लगा। इतने दिनों से मन पर रहनेवाला बोझ अचानक से उतर जाने से कहिए या फिर किसी अन्य वजह से कहिए, उन्हें काफ़ी थकान महसूस होने लगी। २२ तारीख की वर्धा में ही हो रही काँग्रेस कार्यकारिणी की बैठक में हाज़िर रहिए, फिर आमने सामने बातचीत कर सभी मसलों का हल निकाला जा सकता है ऐसा गाँधीजी ने हालाँकि उन्हें कहा तो था, लेकिन वर्धा में ही सुभाषबाबू को जैसे उनके शरीर से सारा का सारा बल ही निकल गया हो, ऐसा लगने लगा और उसकी वजह, तनाव का यक़ायक कम हो जाना या पिछली बीमारी का सर उठाना इनमें से क्या हो सकती है, यह कहना बड़ा मुश्किल था। गाँधीजी ने उनके प्राकृतिक उपचार के बटवे की जड़ीबुटी की दवा उन्हें पिलाने के बाद उन्हें आराम महसूस हुआ, रातभर विश्राम करने से सिरदर्द भी कम हुआ और अगले दिन उन्होंने रेलगाड़ी से वापसी की यात्रा शुरू कर दी।

उस गाड़ी से उनके सफ़र करने की ख़बर अगले स्टेशनों में पहुँच जाती थी और लोग हर स्टेशन में उनके दर्शन करने के लिए बेसब्री से इन्तज़ार करते थे, सुभाषबाबू की जयकार के नारों से माहौल भर जाता था। जैसे ही गाड़ी नागपुर से रवाना हुई, वैसे ही सुभाषबाबू को का़ङ्गी थकान महसूस होने लगी, तेज़ बुख़ार भी चढ़ गया। बुख़ार बीच में ही १०५ डिग्री तक जा रहा था, तो कभी झट से उतर भी जाता था। किसी तरह गाड़ी जब हावड़ा स्टेशन पहुँच गयी, तब उनसे एक कदम तक चला भी नहीं जा रहा था। घर पहुँचते ही डॉक्टर ने जाँचकर दवाइयाँ दीं और सम्पूर्ण विश्राम करने की सलाह भी। सुभाषबाबू के मन में उथलपुथल हो रही थी। दूसरे ही दिन पूर्वनियोजित कार्यक्रम के लिए उन्हें पटना और मुज़फ्फरपुर जाना था। गाड़ी का टिकट भी आरक्षित किया गया था, साथ ही कार्यकारिणी सदस्यों की नाराज़गी दूर करने के अवसर के रूप में वर्धा कार्यकारिणी बैठक की भी वे प्रतीक्षा कर रहे थे। लेकिन डॉक्टर ने उनकी बीमारी की तीव्रता के बारे में कहते हुए यह आशंका जताई कि आप त्रिपुरी काँग्रेस के लिए भी उपस्थित रह सकेंगे या नहीं, इसके बारे में मैं चिन्तित हूँ। यह बात सुनकर सुभाषबाबू हताश हो गये। साथ ही उन्हें निरन्तर अर्धमूर्च्छित अवस्था में जा रहे देखकर उनके परिजनों के पैरों तले की ज़मीन ही खिसक गयी थी। बीमारी की निश्चित वजह का पता नहीं चल रहा था और वर्धा की बैठक सुभाषबाबू के आगे के स़ङ्गर में कितनी अहमियत रखती थी, यह भी वे भली-भाँति जानते थे। इन ग़लतफ़हमियों और विरोध को यदि समय पर ही जड़ से समाप्त नहीं कर दिया गया, तो आगे चलकर सुभाषबाबू के लिए एक पल तक काम करना भी नामुमक़िन हो जायेगा, यह शरदबाबू भी जानते थे।

गाँधीजी

मजबूरन सुभाषबाबू ने, ख़राब हालात के चलते मैं बैठक में शामिल नहीं हो पाऊँगा, ऐसा टेलिग्राम वर्धा गाँधीजी को भेज दिया, साथ ही सरदार पटेल को भी भेज दिया। हो सके तो बैठक फ़िलहाल स्थगित करने की विनती भी की। ज़ाहिर है कि उसे माना नहीं गया। सुभाषबाबू की इस ग़ैरमौजूदगी का अर्थ हर एक ने अपने मन के अनुसार निकाला और कुल मिलाकर सुभाषबाबू के हेतु के बारे में ही सन्देह व्यक्त किया जाने लगा। सुभाषबाबू को काँग्रेस के दैनिक कार्य में दिलचस्पी ही नहीं है, इस तरह की अफ़वाहें भी फ़ैलायी गयीं। तब सुभाषबाबू ने, मेरी ग़ैरहाज़िरी में बैठक बुलाकर उसका इतिवृत्त मुझे भेज दिया जाये, यह कहा और वे उसका इन्तज़ार करने लगे।

इस दौरान उनकी बीमारी और भी बढ़ती गयी। माँ, विभाभाभी, मेजदा, अन्य बन्धु डॉ. सुनील निरन्तर उनके साथ रहते थे। वहीं, सुभाषबाबू की तत्कालीन नाज़ुक राजकीय स्थिति के बारे में जाननेवाले शरदबाबू तो उनकी इस बीमारी के कारण सुन ही हो गये थे।

इसी दौरान कलेजे को चीर देनेवाली वह ख़बर अख़बार में छपी थी।

‘वर्धा की कार्यकारिणी की बैठक में, सुभाषबाबू अपनी मनचाही कार्यकारिणी की रचना कर सकें इसलिए कार्यकारिणी के १२ सदस्यों ने इस्तीफ़े दे दिये।’

सुभाषबाबू को तो गहरी खाई में ही गिरने जैसा महसूस होने लगा। हालाँकि इन बारह नामों में जवाहरलालजी का नाम तो नहीं था और इसीलिए कम से कम वे तो मेरी भूमिका को समझेंगे ऐसी आशा सुभाषबाबू के मन में जागृत थी; लेकिन अगले ही दिन उन्होंने एक निवेदन प्रसृत करके अपना इस्तीफ़ा अध्यक्ष को भेज दिया। अब सुभाषबाबू की कार्यकारिणी में उनके अलावा अकेले शरदबाबू ही बचे थे। अपने अन्तर्मन की आवाज़ को सुनकर सच बयान करना यह क्या अपराध है, ऐसा सुभाषबाबू बार बार अपने मन से पूछ रहे थे।

इन हालातों में अब पुनः गाँधीजी से मिलना चाहिए, ऐसा सुभाषबाबू को लगने लगा। लेकिन गाँधीजी ने इस बैठक के बाद राजकोट के लिए प्रस्थान किया था। वहाँ के रियासतदारों द्वारा किये जा रहे ज़ुल्म के ख़िलाफ़ उन्होंने बेमीआद अनशन शुरू कर दिया था और वे अब किसी से मिलनेवाले नहीं थे। वहीं, कोलकाता में ब्राँकोन्युमोनिया से पीड़ित सुभाषबाबू को शहर तो क्या, घर तक छोड़ने की इजाज़त डॉक्टर नहीं दे रहे थे और यदि आप ज़िद पकड़कर कहीं जायेंगे, तो वापस जीवित लौटने का यक़ीन नहीं दिया जा सकता, यह साफ़ साफ़ कह रहे थे।

वहीं, दूसरी तरफ़ सुभाषविरोधकों ने त्रिपुरी अधिवेशन के लिए पु़ख्ता इंतज़ाम कर अपना मोरचा सँभालने की शुरुआत कर दी थी। त्रिपुरी अधिवेशन कुछ अवधि के लिए पोस्टपोन करने की सुभाषबाबू की विनती ख़ारिज़ कर दी गयी थी। सुभाषबाबू का इलाज कर रहे डॉक्टरों ने उनकी बीमारी की तीव्रता के बारे में हालाँकि अख़बारों में अपना निवेदन प्रकाशित किया था और इसीलिए त्रिपुरी काँग्रेस में उनकी उपस्थिति के बारे में साशंकता व्यक्त की गयी थी; मग़र इसके बावजूद भी सुभाषबाबू सचमुच ही बीमार हैं या बीमारी का नाटक कर रहे हैं, ऐसी दुविधा विरोधकों द्वारा फ़ैलायी जा रही थी; वहीं, दिनबदिन सुभाषबाबू की बिगड़ती सेहत के कारण उनका हौसला टूटता जा रहा था। जिसके लिए दिनरात एक कर मेहनत की, विरोध का डटकर मुक़ाबला किया, उस त्रिपुरी काँग्रेस के मण्ड़प के दर्शन तक होंगे भी या नहीं, यह सोचकर वे मायूस होने लगे।

साथ ही, अनशन कर रहे गाँधीजी त्रिपुरी अधिवेशन में उपस्थित नहीं रहेंगे, यह ख़बर आयी। सुभाषबाबू और शरदबाबू के मन पर स्थित चिन्ता का साया और भी गहरा हो गया।

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