नेताजी – १५

Netaji Subhas Chandra Bose - 1936

सन १९१९ के मार्च महीने में सुभाष ने बी.ए. की परीक्षा दी। कॉलेज के इस आख़री साल में अपनी क़ाबिलियत को साबित करने के लिए उसने सच्चे दिल से मेहनत की थी। उसकी कुछ भी ग़लती न होने के बावजूद भी प्रेसिडेन्सी कॉलेज में से अपमानित होकर निकाल बाहर कर दिये जाने की चुभन भी उसे पढ़ाई करने के लिए प्रेरणा दे रही थी। मूलतः निर्विवाद श्रेष्ठ बुद्धिमत्ता की देन प्राप्त रहनेवाला सुभाष बी.ए. की परीक्षा में पूरी युनिव्हर्सिटी में दूसरे नंबर से पास हो गया। पहला नंबर सिर्फ़ दो-चार मार्क्स के फ़र्क़ के कारण ही उसे गँवाना पड़ा था।

घरवाले तो स्वाभाविक रूप से आनन्दित हुए, लेकिन कोलकाता युनिव्हर्सिटी के कुलगुरु सर आशुतोष मुखर्जी भी, उनके द्वारा ही कॉलेज से बड़तरफ़ किये गये छात्र का इस प्रकार निश्‍चयपूर्वक फिनिक्स पक्षी की तरह मानो पुनर्जन्म ही हो जाना, इस बात को देखकर बहुत ही खुश हो गये और उन्होंने उसकी बहुत तारीफ़ की।

उसके बाद सुभाष ने एम.ए. करने का निर्णय लिया; लेकिन एम.ए. के लिए ‘तत्त्वज्ञान’ (फिलॉसॉफी) इस विषय को न चुनते हुए उसने ‘प्रायोगिक मानसशास्त्र’ (एक्स्परिमेंटल सायकॉलॉजी) यह विषय लेने का फ़ैसला किया। ‘तत्त्वज्ञान’ यह उसका प्रिय विषय होने के बावजूद भी उससे नाता तोड़ने के वैसे तो बहुत कारण थे; नजदीक़ी भूतकाल में हुईं घटनाओं के कारण ही इस अप्रियता का निर्माण हुआ था।

ओटन मामले में छात्रों के देशप्रेम को गुनाह क़रार दिया जाना, इस सारे मामले में सुभाष की अंशमात्र भी ग़लती न होने के बावजूद भी उसे कॉलेज से अपमानित कर निकाल बाहर कर दिया जाना, उसके बाद कोलकाता के छात्रों पर अँग्रे़ज सरकार ने ढ़ाया हुआ क़हर, उसके पश्चात् तक़रीबन दो सालों के विजनवास के बाद फिर से कॉलेजजीवन में पुनःप्रवेश, उसके बाद लिया हुआ सैनिक़ी प्रशिक्षण, उसके पश्चात् दिनरात मेहनत करके बी.ए. की परीक्षा दूसरे नंबर से पास हो जाना….जीवन की इन बदलती करवटों के कारण विस्कळित हुआ मन धीरे धीरे एक निश्चित भूमिका पर स्थिर हो रहा था। तत्त्वज्ञान चाहे कितना भी प्रिय विषय क्यों न हो, किसी भी बात की जड़ तक जाकर सर्वंकष विचार करने की आदत चाहे तत्त्वज्ञान विषय के कारण ही क्यों न पड़ गयी हो, बुद्धि को खाद मिलने में तत्त्वज्ञान विषय चाहे कितना भी मददगार साबित क्यों न हुआ हो; मग़र फिर भी सिर्फ़ तत्त्वज्ञान के रटने से जीवन की समस्याएँ हल नहीं हो सकतीं, उनका हल हर किसी को खुद ही ढूँढ़ना पड़ता है – इस सत्य का उसे एहसास हो गया था। समस्याओं को सुलझाने में तत्त्वज्ञान को व्यवहार के साथ, जीवन के अच्छे-बुरे अनुभवों के साथ जोड़ देना जरूरी है; अन्यथा तत्त्वज्ञान की मह़ज चर्चाएँ खोख़ली साबित होती हैं, इसका एहसास सुभाष को हो चुका था और यह भान उसे अगले जीवन में बहुत उपयोगी साबित हुआ।

इन सभी बातों के कारण उसने ‘तत्त्वज्ञान’ विषय से मुँह फेरकर एम.ए. के लिए ‘प्रायोगिक मानसशास्त्र’ इस विषय को चुना। वैज्ञानिक दृष्टिकोण से मनुष्य के मन का अध्ययन करते समय उसके मन की पेचींदी संरचना, भिन्न भिन्न व्यक्तियों का एक ही परिस्थिति को भिन्न प्रतिसाद देना, उनके मन की विभिन्न छटाएँ, इन सबका निरीक्षण करते हुए अध्ययनकर्ता दंग रह जाता है। इसी कारण सुभाष इस विषय की ओर आकर्षित हुआ और उसने उस विषय का चयन किया। लेकिन नियति के मन में शायद, सुभाष द्वारा उस पाठ्यक्रम को पूरा किया जाना, यह नहीं था।

सुभाष द्वारा एम.ए. के लिए ऍडमिशन लेने के कुछ ही दिन बाद जानकीबाबू कोलकाता में दाखिल हुए। आते ही उन्होंने शरदबाबू से बन्द कमरे में कुछ चर्चा शुरू कर दी। चर्चा का मुख्य विषय था – देश में और ख़ास कर कोलकाता में निर्माण हुए विस्फोटक हालात।

हुआ यूँ था कि उसी समय ‘भारत में अँग्रे़ज सरकार के ख़िलाफ़ राजद्रोह की सा़जिश रची जा रही है और उसे जर्मनी का समर्थन है’ ऐसा दावा करते हुए अँग्रे़ज सरकार ने ‘रौलेट कमिशन’ की रिपोर्ट के आधार पर, सरकार को काफ़ी सारे अधिकार प्रदान करनेवाला ‘रौलेट ऍक्ट’ पास करा लिया था। इस ऍक्ट के जरिये – अख़बारों पर अँकुसी लगाना, राजद्रोह के इल़जाम पर किसी को भी बिना वॉरंट के, बिना तहकिक़ात के गिऱफ़्तार करना, राजद्रोह के इल़जाम पर गिऱफ़्तार कर दिये गये व्यक्तियों को देहदण्ड तक कोई भी स़जा सुनाना, यह सरकार के लिए आसान होनेवाला था। लोकमान्य टिळकजी, गॉंधीजी तथा अन्य नेताओं ने भी एकमुख से इस क़ानून को ‘काला क़ानून’ संबोधित कर उसका धिक्कार किया था। गॉंधीजी ने इस क़ानून के विरोध में सत्याग्रह का ऐलान किया था। जहॉं सारा देश ही ख़ौल उठा था, वहॉं कोलकाता कैसे पीछे रह सकता है? ऐसे हालात में सुभाष का कोलकाता में रहना आग में तेल डालने के बराबर है, इसका एहसास जानकीबाबू को हो रहा था।

कोलकाता की आबोहवा हुई ही थी इतनी विस्फोटक! उलथपुलथ ख़बरें आ रही थीं। ऐसे हालातों में मनस्वी सुभाष का संवेदनशील मन भी धधक रहा था, इसमें कोई शक़ नहीं था। प़क्की ख़बर जानने के लिए सुभाष के कदम अपने आप ही क्रान्तिकारियों के अड्डे की ओर मुड़े। वहॉं उसे पंजाब की ता़जा ख़बर मिल गयी और जालियनवाला बाग़ में जनरल डायररूपी दैत्य ने किये हुए नंगेनाच के बारे में भी पता चला। वहॉं पर रौलेट ऍक्ट के ख़िलाफ़ सत्याग्रह की सभा शुरू थी और जनरल डायर ने फ़ौज के साथ सभा में घुसकर क़ीड़ों-मकोड़ों की तरह ह़जारों लोगों को मौत के घाट उतार दिया था। मृत्यु के इस ताण्डव को देखकर पूरा देश सुन्न-सा हो गया था और बाद में धधककर ख़ौल भी उठा था। पंजाब में सत्याग्रह करने निकले गॉंधीजी को पंजाब के रास्ते पर ही गिऱफ़्तार किये जाने की ख़बर प्राप्त हुई थी। लाल-बाल-पाल ने दिनरात मेहनत करके एकराष्ट्रभाव जागृत किये हुए भारत के पंजाब प्रान्त की सहायता के लिए बंगाल तथा महाराष्ट्रसहित सारा देश सिद्ध हो चुका था।

सुन्न होकर सुभाष जब घर पहुँचा, तो उसे समाचार मिला की उसके पिताजी कटक से आये हुए हैं और साथ ही यह भी ख़बर मिली कि वे जब से आये हैं, तब से बंद कमरे में शरदबाबू के साथ मन्त्रणा कर रहे हैं। इस बात को सुनकर वह और भी हैरान हो गया था।

तभी उसे पिताजी ने बुलाया। शरदबाबू के कमरे में जाकर उसने देखा, तो सबके चेहरों पर किसी चिन्ता का साया साफ़ ऩजर आ रहा था। प्रश्नार्थक चेहरे से उसने पिताजी की ओर देखा, तब पिताजी ने बोलना शुरू कर दिया।

जो बात पिताजी ने उसे कही, वह सुभाष के लिए अनपेक्षित थी, हैरान कर देनेवाली थी।

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