नेताजी-१०७

सन १९३९ साल के त्रिपुरी काँग्रेस अधिवेशन के लिए अध्यक्षपद के लिये चुनाव की ज़रूरत पड़ना, यह काँग्रेस के इतिहास में एक अभूतपूर्व घटना थी। हालाँकि काँग्रेस की घटना में अध्यक्षपद के लिए चुनाव किये जाने की व्यवस्था थी, मग़र फिर भी काँग्रेस यह एकसामायिक संगठन हो, उसमें कोई गुटबाज़ी न हो, इस बात का शुरू से ही आग्रह रखनेवाले गाँधीजी ने जब से स्वतन्त्रतासंग्राम की यानि काँग्रेस की बागड़ौर सँभाली थी, तब से अध्यक्षपद के लिए चुनाव होने के बजाय गाँधीजी द्वारा सूचित व्यक्ति ही अध्यक्ष होगा, यह परिपाटि ही हो गयी थी। लेकिन यह कुछ विपरित ही घटित हो रहा था।

सुभाषविरोधक इस चुनाव को सुभाषबाबू का पत्ता कट करने के एक अच्छेख़ासे अवसर के रूप में देख रहे थे और इसलिए उन्होंने इस चुनाव को ‘प्रेस्टिज इश्यु’ बनाकर रखा था। दोनों ही पक्ष पत्रकों के माध्यम से अपनी अपनी दलीलें लोगों के सामने पेश कर रहे थे। संसदीय प्रणाली होनेवाले किसी भी देश में अध्यक्षपद के चुनाव जिस तरह तत्त्वाधिष्ठित और कुछ विशेष मुद्दों के आधार पर लड़े जाते हैं, वैसे ही काँग्रेस के ये चुनाव लड़े जायें। यह महज़ कोई सम्मान का पद न होते हुए, इस पद पर विराजमान व्यक्ति, जागतिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण रहनेवाले इस साल में काँग्रेस की नीतियों को एक निश्चित आकार दे सकता है, ऐसा सुभाषबाबू का कहना था।

….वहीं, काँग्रेस की नीति तय करना यह अध्यक्ष का काम न होकर वह कार्यकारिणी का काम होता है और अध्यक्ष तो केवल कार्यकारिणी का सभापति रहता है, ऐसी भूमिका सुभाषविरोधकों ने ली थी। यह पद अत्युच्च सम्मान का रहने के कारण, स्वतन्त्रतासंग्राम में जो व्यक्ति अग्रसर हैं, उनमें से हर एक को एक के बाद एक यह सम्मान प्रदान करने की परिपाटि है और फिर वैसे किसी ख़ास अपवादात्मक हालातों के न होते हुए सुभाषबाबू का लगातार दूसरे वर्ष के लिए अध्यक्ष के रूप में चयन किये जाने का सवाल ही नहीं उठता। इस सब बातों को मद्देनज़र रखते हुए इस साल कार्यकारिणी ने इस पद के लिए अग्रसर स्वतन्त्रतासेनानी डॉ. पट्टाभि सीतारामय्या का चयन किया है, यह कहते हुए, प्रतिनिधि ‘सदसद्विवेकबुद्धि की सुनकर’ मतदान कर उन्हें विजयी बनायें, ऐसा आवाहन सुभाषविरोधकों ने अपने पत्रक द्वारा किया था।

चुनाव

लेकिन ‘यदि डॉ. पट्टाभि का चयन कार्यकारिणी ने किया है, तो कार्यकारिणी का अध्यक्ष होने के नाते इस बात की जानकारी मुझे क्यों नहीं दी गयी’ ऐसा सवाल उठाकर, प्रतिनिधियों की ‘सदसद्विवेकबुद्धि’ को आवाहन करनेवाले इस पत्रक में लिखे गये आधे सच को सुभाषबाबू ने लोगों के सामने रखा था। साथ ही, सुभाषबाबू ने अपने पत्रक द्वारा ऐसी व्यंगोक्ति कसी थी कि काँग्रेस के अध्यक्ष का चयन प्रतिनिधियों द्वारा किया जाये, ऐसा निर्देश स्पष्ट रूप से काँग्रेस की घटना में होने के बावजूद भी, यदि ये लोग इससे सहमत नहीं हैं, तो वे बेझीझक इस नियम को ही बदल दें। साथ ही, कार्यकारिणी अध्यक्ष का चयन नहीं करती, बल्कि अध्यक्ष को ही अपनी मनचाही कार्यकारिणी का चुनाव करने की आज़ादी दी गयी है, इस नियम की याद दिलाकर ‘अध्यक्ष यह केवल कार्यकारिणी का नाममात्र सभापति नहीं है’ इस बात का भी एहसास दिलाया।

पत्रकों को जारी करने के साथ ही सुभाषबाबू देशव्यापी दौरें कर उस उस क्षेत्र की प्रान्तिक समितियों के सदस्यों और अन्य प्रतिनिधियों को अपनी भूमिका से अवगत करा रहे थे।

जैसे जैसे चुनाव का दिन नज़दीक आ रहा था, उसी के साथ चुनावप्रचार में तेज़ी आ रही थी। २९ जनवरी १९३९ यह चुनाव का दिन था। इससे पहले २८ तारीख़ को सुभाषबाबू के भतीजे – अशोकनाथ की शादी थी। चुनाव की भागादौड़ी में भी सुभाषबाबू अपने प्रापंचिक कर्तव्य अचूकता से निभा रहे थे। छोटी छोटी बातों में खुद ध्यान देकर वे शरदबाबू का बोझ कम करने में मदद कर रहे थे। निकटवर्ती आप्तों तथा महत्त्वपूर्ण व्यक्तियों को निमन्त्रण देने के लिए स्वयं चलकर जाने का रिवाज़ भी वे बख़ूबी से निभा रहे थे।

वहीं, काँग्रेस की पूरी पक्षयन्त्रणा भी सुभाषविरोधकों के हाथ में होने के कारण, उसका इस चुनाव में पूरी तरह इस्तेमाल कर विरोधकों ने इस चुनाव के प्रचार में कोई कसर नहीं छोड़ी थी।

२८ तारीख़ को शादी बड़े धूमधाम से हुई और २९ तारीख़ का चुनाव भी।

शरदबाबू ने अपने बेटे की शादी के उपलक्ष्य में २९ तारीख को साऊथ क्लब में स्वागत समारोह का आयोजन किया था। उस समारोह के दौरान जब जब भी वे सुभाषबाबू को देखते, उनका मन दुखी हो जाता था। समूची पक्षयन्त्रणा सुभाषबाबू के विरोध में कार्यान्वित होने के कारण अब उनका क्या होगा, इस खयाल से शरदबाबू काँप उठते थे; वहीं, चाहे समूची पक्षयन्त्रणा अपने विरोध में क्यों न हो, लेकिन अपने तत्त्वों के प्रति अटूट निष्ठा रखनेवाले सुभाषबाबू ने उस टेन्शन को इस कदर दूर रखा था कि मानो उन्हें अपनी जीत का विश्‍वास ही है। टेन्शन को दूर रखकर वे बड़े धीरज और आत्मविश्‍वास के साथ शादी में और उस दिन के स्वागत समारोह में शामिल हुए थे। हर एक मेहमान की वे खुद पूछताछ कर अपनी मेहमाननवाज़ी पर चार चाँद लगा रहे थे। सुबह जिन्होंने उनके विरोध में मतदान किया था, ऐसे कोलकाता के कई प्रतिष्ठित लोग भी उस समारोह में आमन्त्रित थे और खाने का मज़ा उठाते हुए मन ही मन खयाली पुलाव पका रहे थे कि अब सुभाषबाबू की राजकीय कॅरिअर बस खत्म ही हो चुकी है।

लेकिन सुभाषबाबू तो, मानो कुछ हुआ ही नहीं है, इतनी अविचल शान्ति से अपना काम कर रहे थे कि एक श़ख्स से रहा नहीं गया और किस जगह क्या बात करनी चाहिए इसका भान छूटकर उसने, चुनाव में सुभाषबाबू की हार अटल है, ऐसी भविष्यवाणी सुभाषबाबू को सुनायी। उसपर सुभाषबाबू ने शान्तिपूर्वक जेब से कागज़-पेन्सिल निकालकर उसे कुछ प्रान्तनिहाय आँकड़े लिखकर दिखाये और मैं कम से कम दो सौ व्होटों से तो जीतूँगा, यह अपना अन्दाज़ा उसे बताया। उसपर उस व्यक्ति ने ‘यह तो केवल आपकी राय है, सत्यस्थिति नहीं’ ऐसा कहकर उनका मज़ाक उड़ाया।

शाम तक प्रान्तनिहाय परिणाम आने शुरू हो गये। उनके भतीजें दौड़ दौड़कर उन्हें एक एक परिणाम सुना रहे थे। उनके घरवालें कभी खुशी, तो कभी निराशा के झूले पर झूल रहे थे, लेकिन सुभाषबाबू तो अविचल थे।

आख़िर रात तक समूचा नतीजा प्राप्त हुआ और इलाहाबाद के मध्यवर्ती काँग्रेस ऑफिस से सुभाषबाबू के लिए फोन आया।

सुभाषबाबू दो सौ तीन व्होटों से जीत गये थे!

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