नेताजी – १०

Nationalist leader Subhas Chandra Bose

सन १९१५ में हुए इंटर की परीक्षा के निराशाजनक नतीजे से बेचैन होकर, कम से कम अगले दो सालों तक तो मन लगाकर बी.ए. की पढ़ाई करने का सुभाष ने तय किया था। लेकिन यह बात होनेवाली नहीं थी। शुरुआती कुछ दिनों में सुभाष ने अच्छी पढ़ाई की। लेकिन सन १९१६ की शुरुआत से नियति ने अपना खेल दिखाना शुरू कर दिया।

सन १९१६ का जनवरी महीना वैसे तो काफ़ी हलचलभरा रहा। कोलकाता यह भारत के अँग्रे़ज सरकार की पूर्व राजधानी होने के कारण अँग्रे़जी साम्राज्यवादी अहंकार वहॉं पर नस नस में भरा हुआ था। इतना कि वहॉं पर ट्रॅम में भी गोरे अँग्रे़जों के लिए आरक्षित सीटें रखी जाती थीं और उन सीटों पर भारतीय लोगों को बैठने नहीं दिया जाता था। इस बात की चीढ़ हद से बढ़ जाने पर सुभाष के नेतृत्व में प्रेसिडेन्सी कॉलेज के छात्रों ने आन्दोलन की शुरुआत की – ‘भारतीयों को बैठने नहीं देंगे, इसका क्या मतलब हुआ? फिर भारतीय लोग कहॉं बैठेंगे?’

यह आन्दोलन काफ़ी चर्चा में रहा। सुभाष को उसके ध्येय की ओर ले जाने के लिए ही शायद नियति का चक्र कार्यान्वित हुआ था। क्योंकि इस आन्दोलन के बाद ही ‘वह’ घटना घटित हुई।

सन १९१६ के जनवरी महीने में प्रेसिडेन्सी कॉलेज में घटित हुई उस बहुचर्चित घटना के बाद सुभाष के जीवन ने एक अलग ही मोड़ लिया। वैसे तो वह पहले से कॉलेज के छात्रों का अघोषित नेता था ही, लेकिन इस घटना के बाद तो उसके ‘नेताजी’ होने पर मानो मुहर ही लग गयी। भविष्यकालीन ‘नेताजी’ का सार्वजनिक कार्य में जाहिर रूप से पड़ा यह पहला महत्त्वपूर्ण कदम था।

प्रेसिडेन्सी कॉलेज के अधिकांश प्रोफेसर्स अँग्रे़ज ही थे और कॉलेज के प्राचार्य मि. जेम्स भी अँग्रे़ज ही थे। यह कॉलेज सरकारी सहायता पर निर्भर होने के कारण अँग्रे़जों के कॉलेज के रूप में जाना जाता था और सरकार के लिए भी यह कॉलेज एक गर्व की ही बात थी। कॉलेज में प्रो. ओटन नामक एक इतिहास के प्राध्यापक थे। अत्यन्त शीघ्रकोपी होनेवाले ओटन को अपने अँग्रे़ज होने का काफ़ी ग़रूर था और वह उनकी बातों में से साफ़ दिखायी देता था। वे क्लास में हमेशा ही भारतीयों का म़जाक उड़ाते थे। कई बार तो भारतीय स्वतन्त्रतासंग्राम तथा भारतीयों के लिए पूजनीय रहनेवाले झॉंसी की रानी, तात्या टोपेजी जैसे ऐतिहासिक व्यक्तित्वों पर वे कीचड़ उछालते। इस मामले में छात्रों ने कई बार प्राचार्य से शिकायत की थी, लेकिन प्राचार्य भी एक अँग्रे़ज होने के कारण इस शिकायत से भी कुछ हासिल नहीं हुआ था।

एक दिन ओटन जब क्लास में पढ़ा रहे थे, तब क्लास के बाहरी बरामदे से सुभाष के क्लास के कुछ छात्र आपस में बातें करते हुए गुजरे और इस कारण शीघ्रकोपी ओटन का पारा चढ़ गया और उन्होंने क्लास से बाहर आकर उन छात्रों की कॉलर पकड़कर उन्हें मारा। छात्र प्रतिनिधि (क्लास रिप्रेझेन्टेटिव्ह) होनेवाले सुभाष को जब इस बात का पता चला, तब अन्य कुछ छात्र प्रतिनिधियों के साथ जाकर उसने प्राचार्य से शिकायत की। उनके द्वारा इस शिकायत को अनसुना कर दिया जाने के कारण फिर उसके निषेधस्वरूप सुभाष ने कॉलेज में एक दिन की हड़ताल की। पूरा कॉलेज सुभाष के समर्थन में एकसाथ खड़ा हुआ। जहॉं पर सत्तर-अस्सी क्लासेस होती थीं, वह प्रेसिडेन्सी कॉलेज सुनसान पड़ गया। इस बात से क्रोधित होकर प्राचार्य ने फिर हड़ताल में सहभागी हुए हर एक छात्र को पॉंच रुपया जुर्माना भरने की स़जा सुनायी। पॉंच रुपये यह उस जमाने में काफ़ी बड़ी रक़म थी। उस समय कोलकाता से मुंबई तक का सफ़र पॉंच रुपये में होता था। इस जुर्माने की वजह से बात काफ़ी बढ़ गयी और कॉलेज में अनिश्चित काल के लिए हड़ताल शुरू हुई। फिर से एक बार पूरे कॉलेज ने सुभाष के आवाहन को एकसाथ होकर प्रतिसाद दिया। हमेशा भीड़-भड़क्का भरा होनेवाला प्रेसिडेन्सी कॉलेज सुनसान हो गया। सभी क्लासें खाली हो चुकी थीं।

फिर प्राचार्य ने ‘डिव्हाईड अँड रूल’ इस हमेशा की अंग्रे़जनीति को अपनाकर हिन्दु तथा मुस्लिम छात्रों में फूट डालना शुरू किया। उन्होंने मुस्लिम छात्रप्रतिनिधियों से स्वतन्त्र रूप से चर्चा करते हुए, कम से कम वे तो इस हड़ताल में शामिल न हों, इस दृष्टि से काफ़ी कोशिशें की। लेकिन सुभाष के मित्रवर्ग में सभी जातिधर्म के लोग थे। साथ ही, कॉलेज की छुट्टियों में सामाजिक कार्य के उपक्रमों के दौरान सुभाष के ‘नव-विवेकानंद समूह’ का कोलकाता की गली-गली में आना-जाना लगा रहता था। जातिधर्मविग्रह की मूलतः चीढ़ होनेवाले सुभाष ने सामाजिक कार्य करते समय कभी भी जातिधर्मभेद को आड़े नहीं आने दिया था। वह हर किसी की मदद करने दौड़ा चला जाता था और इसी कारण वह सबका चहीता था। इसी कारण छात्रों में फूट डालकर हड़ताल को ख़त्म करने की प्राचार्य की यह कुटिल नीति सफल नहीं हो पायी और एक भी मुस्लिम छात्र हड़ताल के दौरान कॉलेज में नहीं गया।

आख़िर प्राचार्य को ही उपरति हुई और अँग्रे़जो का मानदण्ड होनेवाले इस कॉलेज में छात्रों की हड़ताल होना यह बात अपने लिए काफ़ी महँगी पड़ सकती है और सरकारी शिक्षा विभाग से ‘क्या आप एक कॉलेज भी ठीक तरह से नहीं चला सकते’ यह दोषारोपण किया जा सकता है, इसका एहसास होकर प्राचार्य छात्रों से सामने झुक गये। उन्होंने ओटन और छात्रप्रतिनिधियों को चर्चा के लिए आमंत्रित किया। ओटन द्वारा भी ‘जो कुछ भी हुआ, उसे भूल जाते हैं’ ऐसा नर्म रवैया अपनाने के कारण हड़ताल ख़त्म हुई। सुभाष द्वारा इतने बड़े पैमाने पर सार्वजनिक रूप में अचानक उठाया गया यह पहला संघर्षमय कदम काफ़ी सफल हुआ था। मॅग्नेट की तरह अपनी ओर लोगों को खींचनेवाले सुभाष के गगनस्पर्शी व्यक्तित्व की यह पहली झलक सबने देखी।

नियति खूश होकर हँस रही थी और अपना अगला कदम बढ़ाने के लिए सिद्ध हो चुकी थी।

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