नेताजी- १२९

१६ जनवरी, १९४१ इस दिन के ख़त्म होने में चन्द कुछ ही घण्टें बाक़ी रह गये थे। सारी तैयारियाँ पूरी हो चुकी थीं। सुभाषबाबू ने अपने कमरे का दरवाज़ा बन्द कर लिया। फिर चण्डिका माता का स्मरण करके तेज़ी से अपने भतीजों के साथ स्वयं की तैयारियाँ करना शुरू कर दिया। ढीला-सा पायजमा, बन्द गले का कोट और काली गोल फेज़कॅप इस तरह का पठानी भेस पहनकर उन्होंने आईने में देखा। अब वे बिलकुल १०८%, इन्श्युरन्स कंपनी के मोबाईल एजंट ‘महम्मद झियाउद्दिन’ लग रहे थे। अब हररोज़ के समय कमरे की लाइटें ऑफ करते ही दूर से पहरेदारी कर रहे गुप्तचरों की ‘ड्युटी’ भी ख़त्म हो जायेगी, इस बात का उन्हें पता था। लेकिन ‘आज कुछ अलग सा हो रहा है’ इसकी भनक तक गुप्तचरों को न लगे इसलिए उन्होंने हररोज़ के समय ही लाइटें ऑफ कर दीं।

सुभाषबाबू

यह सब करते हुए सुभाषबाबू के कान बाहरी गतिविधियों की टोह ले रहे थे। बाहर सब तरफ़ धीरे धीरे निद्रादेवी की आराधना हो रही थी। ऊपरि मंज़िल से एक भतीजे के कमरे से कुछ आवाज़ें सुनायी दे रही थीं। इसलिए सुभाषबाबू ने द्विजेन्द्रनाथ को ऊपर जाकर देखने के लिए कहा। द्विजेन्द्रनाथ ने जाकर देखा, तो उसे नीन्द नहीं आ रही है ऐसा उसने कहा। फिर उसके साथ कुछ देर तक गपशप करके उसे सुलाकर और वह सो चुका है यह देखने के बाद ही द्विजेन्द्रनाथ वापस लौट आया।

बीच में ही पड़ोस के कमरे में से माँ के खाँसने की आवाज़ आ रही थी। भतीजी इला हररोज़ की तरह आज भी अपनी दादी के पैर दबा रही थी, लेकिन आज उसका ध्यान उसमें बिलकुल नहीं था। कुछ ही देर पहले जब वह अपने चचेरे भाइयों से साथ अपने ‘रंगाकाकाबाबू’ से मिली थी, तब उनके द्वारा सद्गद् होकर कहे गये – ‘इला, बेटा! भगवान तुम्हारा भला करे!’ ये शब्द उसके कानों में गूँज रहे थे। अब क्या ‘रंगाकाकाबाबू’ से फिर मुलाक़ात हो पायेगी भी या नहीं, यह सोचकर उसका मन बेचैन हुआ था। दादी के पैर दबाते हुए भी उसके कान, बाहर क्या चल रहा है, इस ओर ही लगे थे।

वहाँ वूडबर्न पार्क रोड स्थित घर में शिशिर भी अपने काम में जुट गया था। आसपास के हालात कैसे हैं, क्या पड़ोस के किसी घर में लाइटें चालू हैं या नहीं, यह उसने जाँच लिया। फिर दूर पहरा दे रहे गुप्तचरों को देखते हुए वह धीरे धीरे, पैरों की आहट तक न सुनायी दें, इस तरह सुभाषबाबू का उसके पास रखा हुआ सामान एक के बाद एक करके नीचली मंज़िल पर और कुछ देर बाद वहाँ से ग्राऊंड़ फ्लोअर पर ले आया। फिर एक बार रास्ते पर जाकर अँगड़ाइयाँ लेते हुए उसने आसपास के हालात का जायज़ा लिया। रास्ते पर परिन्दा तक पर नहीं मार रहा था। दिनभर ‘ड्युटी’ करने के बाद ‘थकेभागे’ गुप्तचरों ने भी जनवरी की कड़ाके की ठण्ड से बचने के लिए अलाव जलायी थी और सिर पर कंबल ओढ़कर वे सोने ही वाले थे। अब उसने एक के बाद एक करके धीरे धीरे सुभाषबाबू का सामान वाँडरर की डिकी में रखना शुरू कर दिया।

ऊपरि मंज़िल पर स्थित कमरे में शरदबाबू और विभाभाभी, दोनों की भी हालत देखी नहीं जा रही थी। जिसे वे दोनों अपने बेटे की तरह प्यार करते थे, उस सुभाष से फिर मुलाक़ात होगी भी या नहीं? इस चिन्ता के साथ विभाभाभी की आँखों से बह रहे आँसू थमने का नाम ही नहीं ले रहे थे। दोनों एक-दूसरे को सांत्वना दे रहे थे।

गाड़ी में सामान रखने के बाद शिशिर ने वाँडरर को ‘स्टार्ट’ कर दिया। वाँडरर के शुरू होने की आवाज़ के साथ, वह अपनी मुहिम पर निकल रही है यह शरदबाबू एवं विभाभाभी ने जान लिया और उसके साथ ही उनकी धड़कनें तेज़ हो गयीं। शरदबाबू मन ही मन में प्रार्थना कर रहे थे।

शिशिर ने पहले पेट्रोलपंप जाकर गाड़ी की टाकी पूरी तरह भर दी। बॅटरी, टायर की हवा आदि बातों को भी जाँच लिया और फिर हमेशा की तरह ही एल्गिन रोड़ स्थित घर के बाहर आकर वाँडरर रुक गयी। उसके आने की आवाज़ हररोज़ की तरह ही उस घर ने सुनी। ‘शिशिर आया होगा’ यह हररोज़ की तरह आधी नीन्द में कहते हुए सभी लोग फिर से सो गये। सब कुछ बिलकुल ‘हररोज़ की तरह ही’ हो रहा था।

गाडी पार्क करके शिशिर सुभाषबाबू के कमरे में आया। उनके साथ वहाँ पर द्विजेन्द्रनाथ और अरविन्द भी थे। पुनः एक बार सारी तैयारियों का एवं सुभाषबाबू के जाने के बाद करने की कार्यवाही की सूचनाओं का जायज़ा लिया गया।

तब तक १७ जनवरी १९४१ की शुरुआत होकर रात के एक बजने ही वाले थे।

अरविन्द और द्विजेन्द्रनाथ ने पासपड़ोस के घर के सभी लोग सो चुके हैं, इस बात को जाँच लिया। द्विजेन्द्रनाथ ने एक बार उपर जाकर हर कमरे के बाहर थोड़ी थोड़ी देर तक रुककर भीतरी हालात का जायज़ा ले लिया। सभी गहरी नीन्द सो रहे थे। फिर उसने, पूर्वनियोजित संकेत के अनुसार ज़ोर से खाँसते हुए ‘ऑल इज वेल’ का इशारा किया। उसे सुनकर सुभाषबाबू, अरविन्द और शिशिर अपना सामान लेकर कमरे में से बाहर निकले। माँ के कमरे के बन्द दरवाज़े की ओर देखते हुए सुभाषबाबू का दिल फिर से दहल गया। अनजान भविष्य की राह पर क्या माँ से फिर कभी मिल पाऊँगा भी या नहीं, इस विचार से उनका मन भर आया। लेकिन वज्रनिग्रह के साथ अपने मन पर पत्थर रखकर वे आगे बढ़े।

आवाज़ न हो, इस उद्देश्य से तीनों ने अपनी चप्पलें उतारकर अपने हाथ में ले ली थीं और बिल्ली की तरह धीरे धीरे, हालात का जायज़ा लेते हुए वे पैरों की आवाज़ न करते हुए आगे बढ़ रहे थे। अब एक लम्बेचौड़े बरामदे को पार करना था। बाहर चाँदनी बिखरी हुई थी। अत एव सुभाषबाबू ने सभी को खिड़कियों से दूर रहकर – बरामदे के रेलिंग के पास से आगे बढ़ने के लिए कहा ताकि कमरों की ख़िड़कियों के शीशों पर उनका साया न पड़ें। बरामदे को पार करके पिछली सीढ़ियों से उतरकर वे नीचे आ गये। अरविन्द ने उनका होल्ड़ॉल ड्रायव्हर के पड़ोस की सीट के नीचे रख दिया। शिशिर ने उनकी बॅग भी वहीं पर रख दी। द्विजेन्द्रनाथ ऊपरि मंज़िलों तथा आसपास के इला़के पर नज़र रखे हुए था। अरविन्द ने सावधानी से फाटक खोल दिया।

ड्रायव्हर की सीट पर बैठकर शिशिर ने दरवा़जा बन्द कर दिया। दरवाज़े की आवाज़ सुनकर नीन्द खुल चुके दो-चार कौओं ने एकदम से चिल्लाना शुरू कर दिया। सभी कुछ पल के लिए स्तब्ध रह गये। लेकिन सौभाग्यवश उससे किसी की भी नीन्द नहीं खुली। फिर सुभाषबाबू ने मुड़कर एक बार जी भरकर घर को देख लिया और वे पिछली सीट पर बैठ गये। लेकिन उन्होंने अपना दरवाज़ा बन्द न करते हुए केवल उसे अपने हाथ से पकड़े रखा। हो सकता है कि कहीं गाड़ी के दरवाज़े की आवाज़ को दो बार सुनकर आधी-अधूरी नीन्द में सोये घर के किसी सदस्य को – शिशिर के साथ भला कोई जा रहा है क्या, यह शक़ होकर – उसे देखने के लिए वह सदस्य कमरे से बाहर निकल आये और फिर सारा मामला ही यहीं पर चौपट हो जाये। नहीं! ऐसा ख़तरा ही भला क्यों मोल लें?

इस तरह अब तक सबकुछ ‘आलबेल’ होकर, १७ जनवरी १९४१ की शुरुआत होकर लगभग सौ मिनट हो ही चुके थे कि ‘बीएलए ७१६९’ यह वाँडरर गाड़ी अपनी मुहिम पर रवाना हो गयी।

भारतीय स्वतन्त्रतासंग्राम के एक देदीप्यमान अध्याय की शुरुवात हो चुकी थी।

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