नेताजी – ९

दूर पहाड़ी के उस पार रहनेवाले उन साधुमहाराज द्वारा नेताजी सुभाष के जीवन की दिशा को स्पष्ट किये जाने पर गुरु की खोज समाप्त कर वह जब कोलकाता वापस आया, तब बेजान बन चुके घर में पुनः नवचेतना की लहर दौड़ गयी। पिताजी ने तो उसे अपने सीने से लगाकर रोना ही शुरू कर दिया। बचपन से सुभाष के मन में पिताजी की ‘किसी भी आपत्ति में हार न माननेवाले’ ऐसी जो प्रतिमा बन चुकी थी, उससे विरोधी ऐसा अपने पिताजी का एक अलग ही रूप सुभाष देख रहा था, जो उससे देखा नहीं जा रहा था। साथ ही सुभाष के मन को यह बात भी चुभ रही थी कि उससे इतना प्रेम करनेवाले उसके मातापिता की इस अवस्था का कारण वह बन गया है।

इतने दिनों बाद सुभाष के लौट आने के कारण, उसकी चिन्ता से व्यथित उसके मातापिता के मन में उमंग जाग गयी। लेकिन उन्हें हमेशा सुभाष की चिन्ता लगी रहती थी। उस समय पूरे भारत में ही स्वतन्त्रतासंग्राम की आग फैली हुई थी। कोलकाता का प्रेसिडेन्सी कॉलेज भी इस बात को अपवाद नहीं थी। सुभाष का मनस्वी स्वभाव और अँग्रे़जों के प्रति उसका क्रोध इनकी जानकारी रहने के कारण जानकीबाबू का मन हमेशा बेचैन रहता था।

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जब सुभाष कटक से शिक्षा प्राप्त करने के लिए कोलकाता आया था, उस समय उसने वहॉं पर एक नाम की काफ़ी चर्चा सुनी थी – अरविंदबाबू घोष। १९०८ के अलिपूर म़ुकदमे में जब अरविंदबाबू पर भी इल़जाम लगाया गया, तब उनकी पैरवी की थी – देशबन्धु चित्तरंजनजी दास ने। अपनी सारी वक़िली कुशलता को दॉंव पर लगाकर उन्होंने अरविन्दबाबू को इस मुक़दमे से बाइ़ज्जत बरी कराया था। देशभक्ति से ओतप्रोत भरे देशबन्धु ने इस मुक़दमे को लड़ने के लिए एक पैसे तक की भी फीस नहीं ली थी। हालॉंकि अरविन्दबाबू बाइ़ज्जत बरी तो हो गये, लेकिन इस मुक़दमे के सिलसिले में झूठ को सच साबित करनेवाली भारतस्थित अँग्रे़जों की न्यायव्यवस्था का और मग़रूर अँग्रे़जी साम्राज्यवाद का जो घिनौना रूप उन्होंने बहुत क़रीब से देखा, उससे उनके मन में वैराग्य की भावना उत्पन्न हुई और वे सक्रिय राजनीति से संन्यस्त हो गये थे। उस समय फ्रेंच कॉलनी रहनेवाले पॉंडिचेरी में उन्होंने आश्रम स्थापित कर योगसाधना में ऊर्वरित जीवन बिताते हुए ‘योगी अरविंद’ इस नाम से मशहूर हुए थे।

वे भले ही सक्रिय राजनीति से संन्यस्त हो चुके हों, मग़र फिर भी उनका तेजस्वी तथा देशभक्ति से ओतप्रोत साहित्य कोलकाता के अख़बारों तथा नियतकालिकों में नियमित रूप से प्रकाशित होता था और कोलकाता का समूचा युवावर्ग उनके लेखों के प्रकाशित होने का बेसब्री से इन्त़जार करता था। सुभाष का ‘नव विवेकानंद समूह’ भी इससे अपवाद नहीं था। ‘यदि आप भारतमाता को खुश देखना चाहते हैं, तो आपको दुख सहना ही होगा’ ऐसा सन्देश देनेवाले अरविन्दबाबू मानो, अपने मन के अनकहे विचारों को ही शब्दरूप दे रहे हैं, ऐसा सुभाष को लगता था। बंगाल के बँटवारे के ख़िलाफ़ लोकमान्यजी के द्वारा छेड़े गये चतुःसूत्री आन्दोलन में बंगाली युवक पूरे जोश के साथ कूद पड़ें, इसकी खातिर अरविन्दबाबू ने जी जान से कोशिश की थी। राष्ट्रभक्ति की साक्षात् धधकती मशाल रहनेवाले अरविंदबाबू का भी विवेकानन्दजी जितना ही सुभाष के मन पर गहरा असर हुआ था।

जब सुभाष गुरु की खोज खत्म कर वापस घर लौटा, तब उसे अरविन्दबाबू और भी ज्यादा क़रीबी लगने लगे। विवेकानन्दजी के विचारों को व्यावहारिक जीवन में कैसे उतारना है, इसकी दिशा तो वे साधुमहाराज दे ही चुके थे। अब जब इस नये दृष्टिकोण से सुभाष ने अरविन्दबाबू के विचारों को देखा तो उसे विशेष रूप से ऐसा लगा कि अरविन्दबाबू भी इसी राह पर चल रहे हैं और विवेकानन्दजी के विचारों को ही प्रॅक्टिकली जीवन में उतार रहे हैं। अब उसने फिर से एक बार अपना मन सामाजिक कार्य में लगाया। उसकी आत्ममग्नता अब काफ़ी कम हो चुकी थी। सामाजिक कार्य के कारण कोलकाता की गली-गली में सुभाष का आना-जाना लगा रहता था। सामाजिक कार्य करते समय किसी भी जातिधर्मभेद को न माननेवाला तेजस्वी सुभाष सभी का चहीता हो गया था। कॉलेज में भी किसी भी मामले में वह छात्रों का पक्ष प्रिन्सिपॉल के सामने निर्भिकता से रखता था और इसी कारण कॉलेज में भी वह छात्रों का अघोषित लीडर ही बन गया था।

प्रेसिडेन्सी कॉलेज के पास का ईडन हॉस्टेल उस समय क्रान्तिकारी बनने के इच्छुक युवकों का मानो नैहर ही बन चुका था। कई क्रान्तिकारी भी यहॉं पर आकर जाते। अँग्रे़जों के निरंकुश ज़ुल्मी शासन तथा साम्राज्यवाद के मग़रूर प्रदर्शन से क्षोभित हुए युवा मन अपनी भावभावनाओं को वहॉं पर व्यक्त करते थे। छोटे छोटे गुट बनाकर उसमें अरविन्दबाबू जैसे लेखकों का साहित्य जाहिर रूप से पढ़ा जाता था। सरकार को भी इस बात की भनक लगने के कारण सरकार भी इस हॉस्टेल पर, साथ ही प्रेसिडेन्सी कॉलेज में हो रही गतिविधियों पर तथा सुभाष पर भी बारीक़ी से ऩजर रखे हुए थी।

नेताजी सुभाष भी कभीकबार ईडन हॉस्टेल के चक्कर लगाता है, इसका पता लगने के बाद तो उसके घरवाले अधिक ही चिन्तित हो गये। छात्रों को अपनी पढ़ाई की ओर ध्यान देना चाहिए और ना कि अन्य बातों में, यह आम तौर पर जाय़ज रहनेवाली माता-पिता की अपेक्षा सुभाष पूरी नहीं कर सकता था, क्योंकि दरअसल हालात ही सर्वसाधारण नहीं थे। अँग्रे़ज सरकार की दमननीति तथा कॉलेज के अँग्रे़ज प्राध्यापकों का उद्दण्डतापूर्ण बर्ताव कॉलेज-छात्रों के सुलगे हुए मन को और भी भड़का रहा था और कॉलेज में चल रही इस राजनीति से सुभाष दूर ही रहे, इस दृष्टि से जारी रहनेवाले उसके घरवालों के सभी प्रयास व्यर्थ साबित हो रहे थे। आँखों के सामने दिखायी देनेवाली वास्तविकता से सुभाष का मन अब कॉलेज की चार दीवारों में लग नहीं रहा था। रट्टा मारकर पढ़ाई करना उसके मन को रास नहीं आ रहा था। ‘गुरु की खोज’ करने में उसका काफ़ी समय खर्च हो चुका था। इन सबके परिणामस्वरूप सन १९१५ में हुई इंटर की परीक्षा में सुभाष का नंबर बहुत ही नीचे चला गया। हालॉंकि उसे फर्स्टक्लास जरूर मिला था, लेकिन उसे मॅट्रिक की अपेक्षा बहुत ही कम मार्क्स मिले थे। अब तो उसके माता पिता ने उसे इस विषय पर से टोकना छोड़ ही दिया था।

मातापिता के इस बर्ताव से व्यथित होकर नेताजी सुभाष ने यह तय किया कि बी.ए. में दाखिला लेने के बाद कम से कम दो सालों तक तो सिर्फ़ पढ़ाई की ओर ध्यान दूँगा। लेकिन नियति के मन में कुछ और ही था।

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