नेताजी सुभाषचंद्र बोस – ११

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प्रेसिडेन्सी कॉलेज के इतिहास के प्राध्यापक प्रो. ओटन की भारतविद्वेषी निरंकुश आलोचना के ख़िलाफ़ तथा उनके द्वारा छात्रों को मारपीट किये जाने के निषेध में सुभाष के नेतृत्व में कॉलेज के छात्रों की जारी हड़ताल आख़िर ओटन के दो कदम पीछे हटने के निर्णय के कारण ख़त्म हुई। मग़र तब भी प्राचार्य अपनी मग़रूरी से बा़ज नहीं आ रहे थे। उन्होंने जुर्माने के तौर पर छात्रों को जो रक़म जमा करने के लिए कही थी, उसे भरना कई छात्रों के लिए मुमक़िन नहीं था। मग़र तब भी उन्होंने जुर्माने की रक़म रद करने से इनकार कर दिया। इस वजह से भी छात्रों में असन्तोष की भावना धधक रही थी।

उसके बाद फरवरी में पुनः एक ऐसी घटना हुई। प्रो. ओटन ने पुनः भारतीय संस्कृति के सन्दर्भ में गाली-गलोच करने के कारण क्लास में कुहराम मच गया। छात्रों ने ओटन के ख़िलाफ़ नारेबा़जी करते हुए उन्हें अपने शब्द वापस लेने के लिए कहा। लेकिन हटवादी ओटन ने उनकी एक न सुनी। फिर सुभाष और उसके समविचारी मित्रों ने एक साथ मिलकर ओटन को सबक सिखाने का तय किया। इसी दौरान ओटन ने फिर एक बार प्रथम वर्ष के एक छात्र पर हाथ उठाया। अब पानी सिर के ऊपर से जाने लगा था। अब वक़्त आ गया था कि ओटन को उसकी औकात का एहसास कराया जाये।

मग़र अब सुभाष ने पिछले अनुभवों से काफ़ी कुछ सीखा भी था। कॉलेज के प्राचार्य मि. जेम्स भी आख़िर एक पक्के अँग्रे़ज होने के कारण उनके पास फ़रियाद करना फ़जूल ही था और हड़ताल करने पर छात्रों की पहुँच की बाहर का जुर्माना लगानेवाले प्राचार्य के साथ बातचीत करना भी व्यर्थ ही था। मग़र छात्रों का खून तो खौल रहा था। आख़िर मध्यन्तर (रिसेस) में ‘वह’ अवसर उन्हें प्राप्त हुआ। ओटन किसी नोटीस को नोटीसबोर्ड पर चिपका रहे थे। यह ख़बर छात्रों तक फ़ौरन पहुँच गयी। बस्स….यही अवसर है ओटन को भारतीय जोहर दिखाने का! फिर उन्हीं में से दस-बारह छात्र आगे बढ़े। उन्होंने ओटन को घेर लिया और पीछे से घुँसे लगाकर धक्कामुक्की करके उसे नीचे गिरा दिया। उसका चष्मा भी नीचे गिरकर टूट गया। इतने में सुभाष भी वहॉं पर दाखिल हुआ। लेकिन उसने छात्रों को रोकने की जरा भी कोशिश नहीं की; बल्कि वह शान्तिपूर्वक उस घटना को देखते हुए वहॉं पर खड़ा रहा।

चन्द कुछ सैकंड़ों में घटित हुई यह एक छोटीसी घटना, लेकिन जिस तरह मधुमक्खियों के छत्ते पर पत्थर मारने के बाद वे हल्ला बोलती हैं, उसी तरह अँग्रे़ज इस घटना से खौल उठे। उस समय वादातीत रूप में भारत के सर्वेसर्वा रहनेवाले अँग्रे़जों के प्रतिष्ठित माने जानेवाले एक कॉलेज में अँग्रे़ज प्राध्यापक के साथ हुई हाथापायी और वह भी भारतीय छात्रों द्वारा की गयी? यह तो कुछ अजीबसी ही घटना थी। इस घटना से हक़ीक़त में सत्ताधीश अँग्रे़जो की नाक कट चुकी थी। कोलकाता के अँग्रे़ज तो ग़ुस्से से पागल हो चुके थे और यह ग़ुस्सा सभी भारतीयों पर उतारना उन्होंने शुरू कर दिया। ट्रॅमों में से भारतीयों को धक्कामुक्की कर नीचे उतारना, उन्हें मारपीट करना आदि बातें होने लगीं। फिर भारतीय छात्रों ने भी कॉलेज के सामने नारेबा़जी करना शुरू किया। सरकार ने भी दमनतन्त्र अपनाकर युवाओं को मह़ज शक़ के आधार पर ग़िऱफ़्तार करना शुरू कर दिया। उसमें अधिकांश रूप में प्रेसिडेन्सी कॉलेज के छात्र ही थे। वैसे तो सरकार पहले से प्रेसिडेन्सी कॉलेज के छात्रों से खफ़ा थी ही। कोलकाता के ‘युगान्तर’ तथा ‘अनुशीलन समिती’ जैसे क्रान्तिकारियों के संगठनों के साथ इस कॉलेज के कई छात्रों के घने सम्बन्ध होने की जानकारी सरकार को मिली थी। अब इस घटना के कारण सरकार को ग़ुस्सा उतारने का मौक़ा ही मिल गया था। ईडन हॉस्टेल पर भी नये सिरे से छापें मारे गये। एक कॉलेज में घटित घटना को अँग्रे़ज सरकार बनाम भारतीय इस युद्ध का स्वरूप प्राप्त हो चुका था।

सभी अख़बारों में पहले पन्ने पर मोटे टाईप में इस ख़बर को छापा गया था – ‘कोलकाता में अँग्रे़ज प्राध्यापक को भारतीय छात्रों द्वारा मारपीट’। उसे पढ़कर कटक में जानकीबाबू के पैरों तले जमीन ही खिसक गयी। हालॉंकि सुभाष प्रत्यक्ष रूप में इस घटना में शामिल न भी हुआ हो, मग़र अँग्रे़जों की नारा़जगी मोल लेने के कारण, यह घटना यानि सुभाष द्वारा रचा गया षड्यन्त्र ही होगा इस पूर्वग्रह के साथ, सुभाष का नाम इस घटना को अंजाम देनेवाले छात्रों की सूचि में अग्रस्थान में था। जानकीबाबू अपनी पत्नी के साथ फ़ौरन कोलकाता में दाख़िल हुए। उन्होंने सुभाष से बार बार जोर देकर पूछने के बाद सुभाष ने ‘उस मारपीट में मैं सम्मीलित नहीं था’ यह सुस्पष्ट रूप से उन्हें बताया। ‘और यदि मैं उसमें होता, तो भी पीछे से वार नहीं करता, सीधा सामने से हल्ला बोल देता’ यह क़रारा जवाब देने में सुभाष जरा भी नहीं हिचकिचाया। जानकीबाबू तो स्तब्ध होकर सुभाष को देखते ही रह गये और सोचने लगे कि कैसे इसे समझाया जाये? क्या इतना सुन्दर फूल खिलने से पहले ही तोड़कर उसे पैरों तले रौंद दिया जायेगा? इस कल्पना से ही उनका दिल दहल जाता था। सुभाष के जाज्वल्य देशभक्ति का एहसास जानकीबाबू को था और वे मन ही मन में उसका सम्मान भी करते थे। लेकिन साथ ही, सुभाष को प्राप्त हुई उच्च प्रति की बुद्धि की दैवी देन का भी उन्हें एहसास था। किसी भी कारणवश उसकी पढ़ाई खण्डित होकर यह देन कहीं व्यर्थ न हो जाये, यह चिन्ता उन्हें लगी रहती थी। अत एव उसे जो कुछ भी करना है, वह पढ़ाई होने के बाद ही करे, इतना ही वे चाहते थे। लेकिन इस घटना के बाद भारत की अँग्रे़जी हुकूमत की खुनी मानसिकता का सही अँदा़जा रहनेवाले जानकीबाबू को अब सुभाष के भविष्य पर टँगी हुई तलवार साफ़ साफ़ दिखायी देने लगी थी।

….और कोलकाता के अँग्रे़जों की इस खुनी मानसिकता ने पहला कदम उठाया – उन्होंने प्रेसिडेन्सी कॉलेज अनिश्चित काल के लिए बन्द कर दिया और हालात के न सुधरने पर उसे हमेशा के लिए बन्द करने की धमकी भी दी। साथ ही गत कुछ महीनों में कॉलेज में घटित हुई घटनाओं की छानबीन करने के लिए कोलकाता विश्‍वविद्यालय के पूर्व कुलगुरु न्यायमूर्ति सर आशुतोष मुखर्जी की अध्यक्षता में एक समिति भी नियुक्त की गयी। कोलकाता के शिक्षाक्षेत्र की कई जानीमानीं हस्तियों को इस समिति में शामिल किया गया था।

वहीं, दूसरी ओर प्रेसिडेन्सी कॉलेज की गव्हर्निंग बॉडी पर भी सुभाष के सन्दर्भ में दबाव डालना सरकार ने शुरू कर दिया।

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