नेताजी- १३०

इस तरह जिस मुहिम की तैयारी में गत महीना भर का हर दिन और हर रात बीत रहे थे, उस मुहिम की शुरुआत हो चुकी थी। नियति भी शायद उस वक़्त मुस्कुरायी होगी। भारतीय स्वतन्त्रतासंग्राम का एक तेजस्वी अध्याय शुरू हो चुका था।

स्वतन्त्रतासंग्राम

लेकिन कम से कम उस वक़्त तो भविष्य की सड़क क्या मोड़ लेगी, यह अज्ञात था और उस अज्ञात स़फ़र में कदम कदम पर ख़तरा मँड़रा रहा था। भारत में सुभाषबाबू को अपना एक नंबर का दुश्मन माननेवाली अँग्रेज़ साम्राज्ययन्त्रणा शिकारी कुत्ते की तरह उनके पीछे लगी हुई थी। लेकिन सुभाषबाबू के हौसले बुलन्द थे। माता चण्डिका के भक्त रहनेवाले सुभाषबाबू के शब्दकोश में ‘डर’ यह शब्द नहीं था और अँग्रेज़ों द्वारा कुटिलतापूर्वक, धोख़ाधड़ी से ग़ुलामी की ज़ंजीरों से बाँधी गयी भारतमाता को अँग्रेज़ों की ग़ुलामी से रिहा करने के अलावा उन्हें कुछ नज़र ही नहीं आ रहा था।

….और इस वक़्त शायद नियति भी उनपर मेहरबान थी। इस मुहिम की योजना बनाते समय उन्होंने जो रूपरेखा तय की थी, उसमें से कई ख़तरे तो अपने आप ही दूर हो गये। वाँडरर गाड़ी मुहिम में शामिल की जानेवाली थी। लेकिन वाँडरर के ड्रायव्हर का क्या किया जाये और उसे किसी प्रकार का शक़ न हो, ऐसा क्या कारण दिया जाये, यह सवाल तो था ही। लेकिन उसे भगवान ने ही छुड़ाया। इस मुहिम के पूर्व दिन उस ड्रायव्हर की माँ के अचानक बीमार होने का टेलिग्राम उसे आ गया और उसने स्वयं ही गाँव जाने की अनुमति माँग ली। शिशिर ने अपने मन में लड्डू फ़ूट रहे हैं, इस बात को चेहरे पर न लाते हुए उसे जाने की अनुमति दे दी और साथ ही खर्च के लिए थोड़ेबहुत पैसे देकर उसे गाँव भेज दिया। उसी प्रकार बड़े भाई ने पाले हुए, रात-बेरात भोंकनेवाले अल्सेशियन कुत्ते का क्या किया जाये, यह उलझन भी अपने आप ही सुलझ गयी। सुभाषबाबू के जाने के कुछ दिन पहले ही वह कुत्ता, उनके घर आये एक मेहमान पर जा लपका। सुभाषबाबू को एक अच्छाख़ासा बहाना मिला और उन्होंने तुरन्त ही उसे वूडबर्न पार्क रोड स्थित घर भेज दिया।

वैसे ही, एल्गिन रोड़ स्थित घर में रहनेवाला शक्की मिजाज़ का एक रिश्तेदार उस समय बेरोज़गार था। शिशिर के हररोज़ के आने के कारण उसके मन में शक पनप रहा था। तब एक दिन सुभाषबाबू ने उसे बुलाकर, वह बेरोज़गार रहते हुए भी नौकरी के लिए कोशिश न करते हुए क्यों हाथ पर हाथ धरे हुए बैठा हुआ है, यह पूछकर उसे खरी खरी सुनाई और जमशेदपूर के टाटा स्टील की मिल के एक अ़फ़सर के नाम से उसे स़िफ़ारिशपत्र देकर वहाँ भेज दिया और अब नौकरी पाने पर ही मुझे अपनी सूरत दिखाना, यह कहकर कड़ी चेतावनी दी। (अब यह बात और है कि उसे वह नौकरी नहीं मिली और वह खाली हाथ लौट आया। लेकिन तब तक सुभाषबाबू वहाँ से जा चुके थे।)

ख़ैर! तो इस तरह इस बार नियति भी सुभाषबाबू पर मेहरबान थी। इसलिए गुप्तचरों को भनक तक न लगते हुए उनके सामने से ही वाँडरर आगे चली गई। लेकिन हमेशा के रास्ते से आगे न बढ़ते हुए उसने थोड़ा दूर का ही रास्ता चुना। जाना तो था उत्तर की ओर, लेकिन किसी को शक़ न हो, इसलिए उसने दिशा पकड़ ली दक्षिण की। दो-तीन रास्तों को पार करके गाड़ी जब मुख्य सड़क पर आ गयी, तब जाकर कहीं सुभाषबाबू ने, इतनी देर से आवाज़ न हों इस हेतु से पकड़ रखे गाड़ी के पिछले दरवाज़े को ठीक से लगा लिया। लॅन्सडाऊन स्ट्रीट-लोअर सर्क्युलर रोड इस तरह एक के बाद एक सड़कों को पार कर गाड़ी हावड़ा ब्रीज की दिशा में ते़जी से आगे बढ़ रही थी। बीच बीच में सुभाषबाबू गाड़ी के पिछले शीशे में से कहीं हमारा पीछा तो नहीं किया जा रहा है, इस बात को जाँच रहे थे। पीछे की तऱफ़ से किसी गाड़ी के हेडलाईट्स के दिखायी देने पर वे चौकन्ने हो जाते थे। लेकिन बीच ही में वह गाड़ी किसी गली में घुस जाती थी और फिर वे चैन की साँस लेते थे।

इतनी छोटी उम्र में पहली बार ही इतनी दूर की ड्रायव्हिंग कर रहे और वह भी इतने भारी तनावभरे हालात में, शिशिर के बारे में वे सद्गद हो रहे थे। उन्हें शिशिर की चिन्ता सता रही थी और शिशिर को उनकी। शिशिर ने उन्हें कुछ देर के लिए विश्राम करने को कहा, लेकिन उन्होंने उसे सा़फ़ सा़फ़ इन्कार कर दिया। शिशिर को ड्रायव्हिंग करते हुए झपकी न आने देना उनके लिए ज़्यादा महत्त्वपूर्ण था, इसलिए वे उसके साथ निरन्तर बातचीत कर रहे थे। बीच बीच में उससे सवाल पूछकर उसे जागृत रख रहे थे। वह तर्रोताज़ा रहें, इसलिए बीच में ही थर्मास में से कॉ़फ़ी निकालकर उसे गिलास में भरकर स्वयं अपने हाथ से उसे एक एक घूँट पिला रहे थे। अब गाड़ी का़फ़ी तेज़ी से दौड़ रही थी। मग़र तब भी पूर्वनियोजित प्लॅन के अनुसार पौ ङ्गटने से पहले बराड़ी पहुँचना मुमक़िन नहीं था और गाड़ी की यन्त्रणात्मक मर्यादाओं को देखते हुए उसे इससे तेज़ चलाना ख़तरे से ख़ाली नहीं था।

अब हावड़ा ब्रीज को पार कर गाड़ी ग्रँट ट्रंक रोड़ पर आ गयी। सुभाषबाबू का मानसिक तनाव अब थोड़ासा कम हो चुका था और वे शिशिर के साथ खुले दिल से गपशप करने लगे। उन्होंने शिशिर को, इसी तरह दुश्मन के शिकंजे से निकलकर आयर्लंड के स्वतन्त्रतासंग्राम को जारी रखनेवाले डी व्हॅलेरा की कहानी सुनाई। गत कुछ दिनों से उनके सन्दर्भ में स्वीकृत किये गये दिनक्रम को और कुछ दिनों तक तो उसी तरह जारी रखने की सूचना उन्होंने दी। साथ ही, इसके बाद भी हररोज़ जाकर दादी का हालचाल पूछने के लिए भी कहा।

अब जैसे जैसे फ़्रेंच कॉलनी चन्द्रनगर क़रीब आने लगी, वैसे वैसे शरदबाबू द्वारा कही गयी खतरे की सूचना को याद करके दोनों को चिन्ता सताने लगी। सुभाषबाबू का मन अपने आप ही माता चण्डिका को पुकार रहा था। हर गाड़ी को रोककर तहकिक़ात करनेवाली चन्द्रनगर की पुलीस से जो कहने की बात तय की गयी थी, उसे शिशिर मन ही मन में दोहराने लगा। लेकिन सुभाषबाबू की इस मुहिम को माता चण्डिका का मानो वरदान ही मिला था। तो उसमें टाँग अड़ाने की जुर्रत भला कौन कर सकता है! ताज्जुब की बात यह हुई कि पुलीस ने ‘वाँडरर’ गाड़ी को पूछताछ के लिए न रोकते हुए वैसे ही आगे जाने दिया!

बरद्वान के बाद का रास्ता सीधा रहने के कारण शिशिर ने गाड़ी की स्पीड़ बढ़ा दी। उतने में पास ही के खेतों में से भैंसों का एक झुण्ड़ रास्ता क्रॉस करने के लिए अचानक सामने आ गया। शिशिर को पूरा ज़ोर लगाकर ब्रेक दबाना पड़ा। अब ‘रंगाकाकाबाबू’ ग़ुस्सा करेंगे, इस सोच से सहमे हुए शिशिर ने उनकी प्रतिक्रिया जानने के लिए आईने में से धीरे से उन्हें देखा। लेकिन वे किसी सोच में डूबे हुए थे और इसलिए उसने चैन की साँस ली।

असनसोल-गोविन्दपूर-धनबाद….गाड़ी आगे बढ़ रही थी और साथ ही सुभाषबाबू का विचारचक्र भी। अब पौ फ़टने लगी थी और सड़क पर गाड़ियों की आवाज़ाही भी बढ़ने लगी। बीच रास्ते में एक चेकनाका आ गया। वहाँ के क्लर्क ने नंबर लिखाने के लिए गाड़ी को रोक लिया, तब सुभाषबाबू उनके मन में चल रहे विचारचक्र में से बाहर आ गये। वह क्लर्क जब गाड़ी के पास आने लगा, तब वे भयशंकित हो गये। लेकिन उसने महज़ नंबर नोट करके गाड़ी को आगे बढ़ने दिया।

इस तरह सुबह साढ़े आठ बजे गाड़ी बराड़ी पहुँच गयी। योजना के पहले पड़ाव को पार करने में वे क़ामयाब हो गये थे। अब बराड़ी स्थित अशोकनाथ के बंगले में अगले पड़ाव का स़फ़र शुरू होने जा रहा था।

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