नेताजी- १२२

‘मेरी गुप्त योजनाओं की चर्चा कोलकाता के हर नुक्कड़ पर खुलेआम होती है’ यह जानते ही चौकन्ने हुए सुभाषबाबू ने अब एक अनोखी चाल चलने की बात तय की। विदेश जाने की मेरी किसी भी प्रकार की योजना नहीं है, इस बात की सरकार को तसल्ली हो जाये इस उद्देश्य से उन्होंने स्वयं ही जेल जाने का निश्चित कर दिया। एक बार मेरे कारावास भुगतते ही मेरे बारे में प्राप्त हुई ख़ुफ़िया जानकारी ग़लत थी, यह सरकार की राय बन जायेगी और मेरे प्रति बरत रही उसकी सावधानी में शिथिलता आ जायेगी, यह सुभाषबाबू का अनुमान था और वह ग़लत भी नहीं था। लेकिन उनकी तूफ़ानी लोकप्रियता के कारण सरकार की उन्हें गिऱफ़्तार करने की हिम्मत नहीं हो रही थी। इसपर विचार करते हुए उन्हें एक मार्ग दिखायी दिया – हॉलवेल स्मारक।

इस हॉलवेल स्मारक की कथा कुछ ऐसी थी –

बंगाल के आख़िरी भारतीय शासक नवाब सिराज-उद्-दौला ने कुछ अँग्रेज़ों को एक अँधेरकोठरी में बन्द कर मार दिया ऐसा आरोप विदेशी इतिहासकार करते थे और इस आरोप की पुष्टि में कोलकाता के हॉलवेल स्मारक का उदाहरण दिया जाता था।

(मुग़लों से बंगाल में व्यापार करने का अनुज्ञापत्र (लायसन्स) लेने के बाद ईस्ट इंडिया कंपनी के स्थानीय प्रतिनिधि मग़रूर बनकर, स्थानीय शासक सिराज-उद्-दौला का आदेश मानने से इनकार करने लगे। साथ ही ‘हमारे व्यापार उद्योग की सुरक्षा’ यह कारण बताते हुए कोलकाता के पास उन्होंने एक क़िले (फोर्ट विल्यम) का निर्माण किया। यह मेरी हु़कूमत को दी गयी चुनौती है, यह जानकर सिराज-उद्-दौला ने क़िले पर धावा बोलकर वहाँ के अँग्रेज़ों को गिऱफ़्तार कर लिया। इस जंग को जीतने के बाद यह घटित हुआ ऐसा कहा जाता है। इस घटना के बाद एक वर्ष के भीतर ही अँग्रेज़ों ने रॉबर्ट क्लाईव्ह नेतृत्व में प्लासी में सिराज-उद्-दौला के ख़िलाफ़ जंग लड़ी और उसके सेना अधिकारी मीर जाफ़र को अगला नवाब बनाने का आमिष दिखाकर, उसे ग़द्दार बनाकर वह जंग जीत भी ली। इस जंग के बाद ही अँग्रेज़ों ने भारत में अपनी जड़ें मज़बूत कर दी और इस प्रवेश के लिए सन्तोषजनक कारण और निमित्त के रूप में अँग्रेज़ों के द्वारा इस घटना की ओर अंगुलिनिर्देश किया जाता था। लेकिन आगे चलकर सन १९१५ में जे. एच. लिट्ल नामक एक ब्रिटीश खोजकर्ता ने इस दावे की विसंगतियों की ओर सबका ध्यान आकर्षित कर – दरअसल हक़ीकत में क्या ऐसा कुछ हुआ भी था, ऐसा शक़ पैदा करने लायक परिस्थिति है यह कहा। इस तथाकथित घटना के एक गवाह जॉन हॉलवेल के नाम से, आगे चलकर अँग्रेज़ों ने अपनी बहादुरी और भारतीयों की तथाकथित जंगली वृत्ति की मिसाल के तौर पर इस स्मारक का निर्माण किया।)

ऐसा यह साम्राज्यवादियों के अपप्रचार की बू आनेवाला हॉलवेल स्मारक स्वतन्त्रतासैनिकों की आँखों में चुभ रहा था।

१ जुलाई को सुभाषबाबू ने अचानक ज़ाहिर कर दिया कि ३ जुलाई को सिराज-उद्-दौला के स्मृतिदिन के उपलक्ष्य में हम उस स्मारक को धराशायी कर देनेवाले हैं।

इसके साथ ही चक्र गतिमान हुए और सुभाषबाबू जो चाहते थे, वही हुआ।

भारत सुरक्षा क़ानून के तहत सुभाषबाबू को ग़िऱफ़्तार कर दिया गया। यह चाल चलते हुए सुभाषबाबू ने उनके बहुत ही ख़ास, विश्‍वसनीय रहनेवाले एकाद-दो साथियों के अलावा किसीसे कुछ भी नहीं कहा था। हॉलवेल स्मारकविरोधी आंदोलन की योजना के बारे में सुनकर उनका भतीजा द्विजेंद्रनाथ भी हक्काबक्का रह गया था। कल तक ‘रंगाकाकाबाबू’ ने इस स्मारक का ज़िक्र तक नहीं किया था और आज अचानक यह आन्दोलन की बात कहाँ से आ गयी? उनके विदेश जाने की योजना की देखरेख कर रहे शरदबाबू भी उनसे नाराज़ हो गये – सरहद पर कई सन्देश भेजे गये हैं, वहाँ से भी कई अनुकूल सन्देश आ रहे हैं, इतनी सारी तैयारी लगभग पूरी हो चुकी है और अब झमेले में फँसकर सुभाष क्यों अपने पैर पर कुल्हाड़ी मार रहा है? लेकिन आगे चलकर यही साबित हुआ कि सुभाषबाबू की चाल ही सही थी।

सुभाषबाबू को प्रेसिडेन्सी कारागृह में रखा गया। यह था सुभाषबाबू का ग्यारहवाँ कारावास। आयसीएस को लात मारकर भारत आने के बाद लगभग गत बीस वर्षों में से केवल ६-७ वर्ष ही वे भारत में मुक्त जीवन जी सके थे। उनका बाक़ी का समय तो कारावास, नज़ऱकैद, इलाज या तड़ीपारी की सज़ा के कारण विदेश जाना, इसी में कट गया।

सुभाषबाबू के पीछे पीछे इस स्मारक के ख़िलाफ़ आन्दोलन करनेवाले उनके कई सहकर्मी एक के बाद एक करके जेल में दाख़िल हुए। वहीं, बाहर सुभाषबाबू की रिहाई के लिए कई आन्दोलन छेड़े जा रहे थे। हालात बेकाबू हो रहे हैं, यह ध्यान में आ जाते ही, बंगाल सरकार ने उस स्मारक को स्थलांतरित करने का निर्णय किया। इस आन्दोलन में गिऱफ़्तार हो चुके कैदियों को रिहा करने का फैसला किया गया। लेकिन सुभाषबाबू को रिहा नहीं किया गया।

इसी दौरान उनके द्वारा गुप्त रूप से जापान भेजे गया लाला शंकरदयालजी अपना काम पूरा करके भारत वापस लौट चुके थे। उन्होंने सुभाषबाबू से मिलने की कोशिश की, लेकिन उन्हें अनुमति नहीं मिली। तब उन्होंने कोलकाता महानगरपालिका के नेता इस्पहानीजी के ज़रिये सुभाषबाबू को यह सांकेतिक सन्देश भेज दिया कि ‘आपके सभी दोस्त मह़फूज़ हैं और आपसे मिलने की प्रतीक्षा कर रहे हैं। यहाँ बाहर इतना काम पड़ा है और आप वहाँ भीतर क्या कर रहे हैं, ऐसा उन्होंने पूछा है।’

जो समझना था, वह सुभाषबाबू समझ गये। लेकिन जिस हेतु से उन्होंने स्वयं ही इस कारावास को स्वीकार किया था, उसका पूर्वार्ध सफल हो चुका था। लेकिन उत्तरार्ध के क़ामयाब बनने के यानि जेल से रिहा होने के धुँधले से आसार भी नज़र नहीं आ रहे थे। दरअसल उन्हें भारत सुरक्षा क़ानून के १२९ वें कलम के तहत गिऱफ़्तार किया गया था, जिसके अनुसार किसी को भी अस्थायी रूप से जेल में रखा जा सकता था। यह बात देर से पुलीस की समझ में आयी थी। इसीलिए उन्होंने उस ऑर्डर में फेरफार करके २६ वा कलम (बेमिआद कारावास) उन्हें लगाया था। साथ ही, मुकदमे को मज़बूत बनाने के लिए सुभाषबाबू पर, उनके द्वारा पूर्व में किये गये ‘प्रक्षोभक’ भाषणों तथा ‘फॉरवर्ड’ में लिखे गये लेखों का सन्दर्भ देकर अन्य दो मुकदमे भी दायर कर दिये गये – यदि एक में से छूट जाते हैं, तो उन्हें दूसरे में फँसाया जा सकता है, यह सोचकर।

सुभाषबाबू की हालत अब दिन ब दिन ‘डूबनेवाला और भी गोते खाये’ ऐसी हो रही थी।

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