नेताजी- १३७

शुरुआत तो अच्छी हो गयी थी। सुभाषबाबू एल्गिन रोडस्थित घर से अचानक ग़ायब हो चुके हैं और इससे परिवारवालों को गहरा सदमा पहुँचा है, यह ‘ख़बर’ अनौपचारिक रूप से अब पूरे कोलकाता को ज्ञात हुई थी। अब आशंका थी, पुलीस की प्रतिक्रिया की!

पुलीस जब इस वाक़ये के बारे में जान गयी, तब वह आगबबूला हो गयी। उस वक़्त वहाँ पर पहरा देने की ड्युटी करनेवाली बंगाल सीआयडी की पुलीस को अच्छी-ख़ासी डाँट पिलाकर उनका तबादला करा दिया गया और उनकी जगह एल्गिन रोड पर नयी दमदार पंजाब सीआयडी की पुलीस का चौबीसों घण्टें जमकर पहरा लगाया गया। साम-दाम-दण्ड-भेद इन सारी तरक़ीबों का इस्तेमाल करके घर के सदस्यों को बार बार उल्टे-पुल्टे प्रश्‍न पूछे जा रहे थे। वृद्ध माँ-जननी को भी बक्षा नहीं गया। लेकिन जो कुछ भी हों, वे थीं आख़िर सुभाषबाबू की ही माँ! अतः ग़म का पहला सैलाब थम जाते ही उन्होंने दृढ़तापूर्वक पुलीस एन्क्वायरी का सामना किया। ‘दरअसल ‘मेरे सुभाष को ढूँढ़ निकालिए’ ऐसी दऱख्वास्त लेकर मैं ही आपके पास आनेवाली थी। कहाँ गया मेरा सुभाष, आप जल्द से जल्द उसका पता लगाइए’ ऐसा जब उन्होंने एन्क्वायरी करने आये पुलीस अ़फ़सर से कहा, तब वह इस क़दर मुँह बनाकर चला गया, मानो उसने मुँह की खायी हो।

एल्गिन रोड, ड्युटी, फ़ॉरवर्ड ब्लॉक, Subhashchandra Bose, अँग्रेज़ सरकार, तलाश, कोलकाता, अध्यात्म

अँग्रेज़ सरकार अब नीन्द से जाग गयी थी और उसने अपनी सारी खोजयन्त्रणा शिक़ारी कुत्ते की तरह चारों ओर खोजकार्य में लगा दी थी। देश के बाहर निकलने के सारे चेकनाकों पर कसकर तलाश शुरू हुई। कुछ ही महीनें पूर्व सुभाषबाबू के विश्‍वसनीय सहकर्मी लाला हरदयाल जापान हो आये हैं, इसका सुराग़ सरकार को मिल गया था, वही धागा पकड़कर, कहीं वे जापान तो नहीं गये, ऐसा शक़ सरकार को बार बार हो रहा था। अत एव कोलकाता बन्दरगाह पर सरकार ने ज़ोरों-शोरों से तहकिक़ात शुरू की थी।

अगले दिन यानि २७ तारीख़ को देश के लगभग सभी अख़बारों में यही ‘हेड़लाईन’ थी – ‘काँग्रेस के पूर्व अध्यक्ष एवं फ़ॉरवर्ड ब्लॉक के नेता सुभाषचन्द्र बोस इनका उनके घर से अचानक गुप्त रूप से प्रयाण’। उन ख़बरों में – वे जापान गये होंगे इस संभावना से लेकर वे संन्यास लेकर हिमालय में गये होंगे इस संभावना तक की सारी संभावनाओं का ज़िक्र किया गया था। केवल देश भर में ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया में ही इस ख़बर से धूम मच गयी। एक ही रात में सुभाषबाबू देशभर में चर्चा का विषय बन गये। ख़ासकर ज़ुल्मी अँग्रेज़ी हुकूमत को कानों कान ख़बर न लगने देते हुए, पुलीस के स़ख्त बन्दोबस्त में से उनके साहसपूर्वक ग़ायब हो जाने से, देशभर के युवाओं के वे ‘हीरो’ बन गये। उनके इस तरह ग़ायब हो जाने की ख़बर रेडिओ पर भी प्रसारित की गयी, जो कि सुभाषबाबू….नहीं, महंमद झियाउद्दिन ने होटल में बैठे सुनी और शुरुआत तो मनचाहे रूप से हो चुकी है, यह देखकर उनके मन पर का तनाव ज़रा कम हो गया।

अँग्रेज़ सरकार ने अपने, युद्धतन्त्र में हमेशा ही क़ामयाब हुए प्रचारतन्त्र का भी इस्तेमाल करने के प्रयास किये। संभ्रम का माहौल निर्माण हो, इसलिए ‘सुभाषबाबू को धनबाद के नज़दीक ग़िऱफ़्तार किया गया है’ ऐसी ख़बर रेडिओ पर से प्रसारित की गयी। शरदबाबू के मन में धुकधुकी होने लगी। उन्होंने जब इस विषय में शिशिर से पूछा, तब उसने यह विश्‍वास दिलाया कि ‘यह ख़बर सरासर झूठी है। हम लोगों ने तो धनबाद के नज़दीक के गोमोह स्टेशन पर ही ‘रंगाकाकाबाबू’ को १७ तारीख़ को दिल्ली-कालका मेल में बिठाया था। अतः वे धनबाद के नज़दीक गिऱफ़्तार हो ही नहीं सकते और यदि हो भी जातें, तो सरकार इस बात को १७ तारीख़ को ही ज़ाहिर करती। अबतक तो उन्होंने सरहद को पार कर रशिया जाने के मार्ग पर प्रस्थान भी किया होगा।’ हालाँकि उससे शरदबाबू के मन को थोड़ाबहुत सुकून मिल गया, मग़र फ़िर भी मन में थोड़ीबहुत धुकधुकी बाक़ी थी। लेकिन वह भी उस रात ही ख़त्म हो गयी। सुभाषबाबू को अबतक गिऱफ़्तार किये न जाने का खुलासा ‘असोसिएटेड प्रेस ऑफ़ इंडिया’ के रात के बुलेटिन में किया गया था। तब जाकर कहीं शरदबाबू की जान में जान आ गयी। अँग्रेज़ सरकार किसी भी हद तक जा सकती है यह जाननेवाले सुभाषबाबू ने, शायद वह इस तरह का अ़फ़रात़फ़री का माहौल बनाने की कोशिश करेगी, यह पहले से ही सोचकर – ‘अब इसके बाद यदि बंगाली भाषा में मेरी लिखावट रहनेवाली चिठ्ठी आपको मिली, तो ही उसे सच मानना’ ऐसी सूचना शरदबाबू को दी थी। ‘जो सोचे मन, वह न सोचे दुश्मन’ ऐसा कहते हैं, वह झूठ न रहने के कारण शरदबाबू के मन में आशंका की धुकधुकी हुई थी।

ख़ैर! देशभर में से सुभाषबाबू की मह़फ़ूज़ी के लिए प्रार्थनाएँ की जाने लगीं। परिचित-अपरिचित व्यक्तियों के टेलीग्राम, सन्देश आने शुरू हो गये। गुरुदेव रविन्द्रनाथ टागोर, गाँधीजी सभी ने शरदबाबू से पूछा। लेकिन उन्होंने ‘अब तक तो सुभाष का कहीं पता नहीं चला है। लेकिन उसका अध्यात्म की ओर रूझान रहने के कारण उसने संन्यास लिया होने की संभावना ही अधिक लग रही है’ यह कहते हुए बात को टाल दिया।

यहाँ पर सुभाषबाबू का मुश्किल स़फ़र एक अनोखी ज़िद के साथ जारी ही था। २५ तारीख़ को आदा शरी़फ़ से तांगा न मिलने के कारण जलालाबाद पहुँचने तक रात हो चुकी थी। अतः पूर्व दिन की सराई में ही ठहरना पड़ा था। २६ तारीख को सुबह उठकर काबूल जानेवाले ट्रकों की खोज वे करने लगे, लेकिन वैसा एक भी ट्रक नहीं दिखा। तब और वक़्त ज़ाया न करते हुए वे तांगा पकड़कर नौ मील की दूरी पर स्थित सुलतानपुर आये। वहाँ पर भी वैसा ही हाल था। अतः उसी तरह तांगे से १४ मील की दूरी पर स्थित फ़तेहबाद गये। लेकिन वहाँ भी ट्रक के न मिलने पर दोपहर का खाना वहीं पर खाकर वे इतनी कड़ी धूप में पैदल ही रवाना हो गये। सात-आठ मील की दूरी तय करने पर उन्हें थकान महसूस होने लगी। इसलिए शाम को वहीं रास्ते में स्थित एक होटल में खाना खाने घुस गये। खाने का ऑर्डर दिया ही था कि कहीं से अचानक काबूल जा रहा एक ट्रक वहाँ पर आ गया। इसलिए खाना न खाते हुए ही उसपर चढ़कर आगे निकल पड़े। यह स़फ़र भी चाय के बक़्सों पर बैठकर ही तय होना था। रात के नौ बजे ड्रायव्हर ने गंडामक में खाना खाने के लिए गाड़ी को रोका। वहाँ से आगे बुदखाक इस चेकना़के तक रात का ही स़फ़र था और रास्ता भी चढ़ाव-उतार का था और साथ ही रात को ब़र्फ़बारी हो जाने के कारण, वहाँ पहुँचने तक सुभाषबाबू का हाल बेहाल हो गया।

इस तरह वे सुबह चार बज़े बुदखाक चेकना़के पर पहुँच गये। यहाँ पर यात्रियों को रजिस्टर में अपने नाम दर्ज़ कराने पड़ते थे। लेकिन ड्रायव्हरों के लिए यह बन्धनकारक नहीं था। इसलिए आप ड्रायव्हर के पीछे पीछे चले जायें, मैं अपना नाम दर्ज़ कराके आपसे आ मिलता हूँ, ऐसा भगतराम ने सुभाषबाबू से कहा। फ़िर भी मन में धाकधुकी तो थी ही। लेकिन पूरी दुनिया भले ही सो जाये, भगवान तो जागते ही रहते हैं। इसलिए रातभर ब़र्फ़बारी का सामना करना पड़ने के कारण सिकुड़ चुकी चेकना़के की पुलीस कबकी निद्राधीन हो चुकी थी। ना़के पर स्थित क्लर्क भी झपकियाँ खा रहा था। इस मौ़के का फ़ायदा उठाकर वे दोनों भी ड्रायव्हर के पीछे पीछे वहाँ से आगे खिसक गये। ड्रायव्हर जिस होटल में ठहरा था, उसी होटल में वे भी ठहर गये। अब ‘जहाँ रशियन कॉन्सुलेट थी, वह काबूल’ केवल १३ मील की दूरी पर था। सुबह आठ बजे ड्रायव्हर ने चिल्लाकर उन्हें जगा दिया। लेकिन काबूल के चेकना़के पर ट्रकों की जँचकर तलाशी ली जाती है, यह पता लगने के बाद उन्होंने ट्रक से जाने का विचार त्यागकर आगे का स़फ़र तांगे से करने का फ़ैसला किया।

इस प्रकार १७ तारीख़ को कोलकाता से निकले हुए सुभाषबाबू आख़िर कूच-ब-कूच करते हुए इतने मुश्किल स़फ़र के बाद २७ तारीख़ को ‘जहाँ तक पहुँचने के लिए उन्होंने इतना कष्ट उठाया था’, उस काबूल तक पहुँच ही गये।

Leave a Reply

Your email address will not be published.