श्रीसाईसच्चरित : अध्याय-३ : भाग- ६०

मानव अर्थात बुद्धि, मन एवं शरीर इन तीनों का संयोग। मन एवं बुद्धि ये दो तत्त्व हरएक मनुष्य के पास होता ही है। बुद्धिी, मन एवं शरीर का यह त्रैराशिक मानव का जीवन चलाते रहता है मात्र मानव का मन चलाने में मन एवं बुद्धी ये दोनों की जोड़ी (ही द्वयी) अगुआई (अग्रेसर) होती हैं।

भारतीय दर्शनशास्त्र, अध्यात्मशास्त्र एवं चिकित्साशास्त्र अर्थात् आयुर्वेद। यह हर एक शास्त्र मनुष्य को मन एवं बुद्धि के अनिवार्य जोड़ी (द्वयी) की पहचान करवाता है।

मन एवं बुद्धि कोई बाहर निकालकर दिखानेवाली वस्तु नहीं हैं। परन्तु वे मानवी मन का अविभाज्य घटक हैं और उनकी पहचान मनुष्य को उसके बढ़ती उम्र के साथ ही उसके स्वभावानुसार होती रहती है।

मानव का मन अणु के समान लघु परन्तु वह शरीर के अन्तर्गत हर एक क्रिया हेतु आवश्यक है क्योंकि आयुर्वेदानुसार किसी भी विषय को मन ही आत्मा तक पहुँचाता है। और उसके प्रति होनेवाली प्रतिक्रिया भी मन ही पुन: इंद्रिय तक पहुँचाता है। बुद्धि मात्र हमेशा ही अच्छे-बुरे की पहचान रखनेवाली होती है। सच में देखा जाए तो मानव का मन हमेशा ही बुद्धि के अधिकार में होना चाहिए क्योंकि मन के पास इस तरह से अच्छे-बुरे की विवेचना करने की क्षमता नहीं होती है। इसीलिए जीवन यदि उत्तम तरीके से व्यतीत हो ऐसी हमारी इच्छा है तो मन बुद्धि के अंकुश में एवं उसी के कब्जें में (ताब्यात) होना चाहिए। क्योंकि मन अत्यन्त चंचल है।

रोहिले की यह काल्पनिक कथा मानव के मन एवं बुद्धी के धरातल पर ही घटित होती है।

मानव की बुद्धि अर्थात वह रोहिला जो अकसर अच्छे विचार एवं अच्छा आचरण करनेवाला रहता है।

और मानव का मन अर्थात उस रोहिले की पत्नी, वह रोहिली। जो सदैव चंचल होती है, वह कभी भी रोहिले की अर्थात बुद्धि की बात नहीं सुनता वह है मन।

सद्गुरु साईनाथ अर्थात ‘वे’ परमात्मा।

साईबाबा, श्रीसाईसच्चरित, सद्गुरु, साईनाथ, हेमाडपंत, शिर्डी, द्वारकामाईमनुष्य का चंचल मन बहुतांश समय तर्क-कुतर्क, शंका-कुशंका एवं विकल्प इन सबसे भरा रहता है। जिसे सच में परमात्मा के पास जाना होता है, परन्तु अपने तर्क-कुतर्क, शंका-कुशंका एवं विकल्पों से भरे अंतरंग को लेकर। क्योंकि इन सभी का उत्तर उसे उस परमात्मा से चाहिए होता है ऐसे इस मनुष्य पर अंकुश चलता है तो केवल बुद्धि का ही।

बुद्धि को मूलत: अच्छे की चाह होती है और मनुष्य में होनेवाली यह बुद्धि ही उस महाप्रज्ञा का अंश होती है। और महाप्रज्ञा अर्थात साक्षात भक्ति। इसीलिए यह बुद्धि सदैव उस परमात्मा के पास ही रहती है। जहाँ पर परमात्मा होंगे वही पर मुझें वास करना है ऐसी उस बुद्धि अर्थात रोहिले की इच्छा होती है। परमात्मा के गुणों की पहचान रखनेवाली यह बुद्धि उस परमात्मा के सामीप्य हेतु उन्हीं का नामस्मरण आरंभ कर देती है। उन्हीं की भक्ति आरंभ कर देती है। और मन पर इस बुद्धि का अंकुश होना आवश्यक होता है। बुद्धि द्वारा किया जानेवाला नामस्मरण केवल चंचल मन को स्थिर करनेवाला ही होता है।

मन निरंतर परमात्मा से प्रश्‍न पुछता रहता है। और बुद्धि की बात जरासी भी नहीं सुनता है। इसलिए उस रोहिले की पत्नी उसकी परवाह किए बगैर चंचलता करती रहती है। परन्तु जैसे-जैसे बुद्धिपूर्वक शुरु किया गया नामस्मरण अधिकाधिक बढ़ता चला जाता है, उसी तरह मन की चंचलता धीरे-धीरे कम होने लगती है। और फिर मन स्थिरता की ओर प्रवास करना आरंभ कर देता है। एक बार यदि इस मन का प्रवास आरंभ हो जाता है फिर वह बुद्धि की बात भी अधिकाधिक सुनने लगता है। और यही से बुद्धिसहित मन का प्रवास उस परमात्मा की दिशा में होने लगता है। क्योंकि केवल अकेला मन और केवल अकेली बुद्धि ही यह प्रवास करती है। ऐसा मानव के लिए नहीं होता। मानव के लिए मन एवं बुद्धि इनका एकत्रित प्रवास होना अति आवश्यक है।

यह प्रवास हर एक मानव को समझाने के लिए ही बाबा रोहिला एवम रोहिली की काल्पनिक कथा सुनाते हैं।

चंचल मन भक्ति करता है, नहीं ऐसा नहीं है। करता है पर वह केवल काम्यभक्ति। परन्तु भक्ति की चाह मनुष्य में उस समय तक उत्पन्न नहीं होती जब तक यह भक्ति अथवा यह नामस्मरण बुद्धिद्वारा नहीं किया जाता है।

मानव के लिए चंचल मन और बुद्धि की यह जोड़ी रोहिला एवं रोहिली के ही समान होती है। जिसमें एक स्थिर तो दुसरा चंचल। फिर जो स्थिर है वह बुद्धि जो चंचल मन को स्थिर करने के लिए जोर-जोर से नामस्मरण करती है। मन एवं बुद्धि का अटूट रिश्ता हर एक मनुष्य के लिए इसीतरह कायम रहेगा ही परन्तु इसके कारण हर एक मानव का जीवन प्रवास सहज सुंदर बना रहे इसके लिए मन पर बुद्धि का अंकुश होना चाहिए। और मन पर बुद्धि का अंकुश रखना यह किसी भी मनुष्य के बस की बात नहीं है। यह काम केवल सद्गुरु साईनाथ ही कर सकते हैं।

क्योंकि मानव का मन अथवा बुद्धि (मन काय किंवा बुद्धि काय) इन दोनों पर केवल उस एकमेव सद्गुरु परमात्मा की ही रास्ता चल सकती है। मात्र इसके लिए मानव का प्रयास आवश्यक होता है।

जिस पल इस परमात्मा का अहसास होता हैं। उसी क्षण से बुद्धि को नामस्मरण आरंभ कर देना चाहिए। तभी जीवन प्रवास सहज आसान रूप में आरंभ हो जाता है। क्योंकि मनुष्य को केवल भक्ति करने का प्रवास ही शुरु करना होता है। अन्य सभी प्रकार की चिंता करने के लिए वे सद्गुरु साईनाथ समर्थ हैं ही।

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