मंगलाचरण

Shree Saisatcharitra - Saibaba

गत लेख में हम ने अध्ययन किया कि ‘अथ’ शब्द के द्वारा हेमाडपंतजी ने साईसच्चरित में मंगलाचरण किस तरह किया है। साथ ही हेमाडपंतजी के ‘पंचायतन’नमन का भी अध्ययन किया। पानी को हम जिस प्याले में डालते हैं, वह उस प्याले के आकार का बन जाता है, पानी की टांकी में डाला गया जल उस टांकी के आकार का बन जाता है। मग़र तब भी विभिन्न पात्रों में विभिन्न आकार का दिखाई देनेवाला पानी जिस तरह एक ही होता है, उसी तरह मेरे साई भी पंचायतन के रूपों में सजे हैं, यही हेमाडपंतजी का अटल विश्वास है। सबेरे के समय, दोपहर के समय तथा संध्या समय में सूरज भिन्नभिन्न स्थानों पर भिन्नभिन्न रूपों में दिखाई देता है, मग़र फिर भी सूरज तो सूरज ही होता है, वही होता है, वैसे ही मेरे साईनाथ इन देवाताओं के रूप में प्रकाशित हैं, यह हेमाडपंत का विश्वास हैं। मंगलाचरण की पंक्तियों का अध्ययन करने पर हमारा विश्वास दृढ़ हो जाता है।

प्रथम कार्यारंभस्थिति। व्हावी निर्विघ्न परिसमाप्ति।

इष्टदेवतानुग्रहप्राप्ति।शिष्ट करिती मंगलें॥

श्रीसाईसच्चरित की इस ओवी (ओवी यह मराठी भाषा की पद्यरचना का एक छन्द है) की पहली पंक्ति में मंगलाचरण क्यों करते हैं, इसका स्पष्टीकरण किया है। कार्य का प्रारंभ करते समय कार्य निर्विघ्न रूप से सुफल संपूर्ण हो इस उद्देश्य से इष्ट देवता से अनुग्रहप्रार्थना की जाती है, इसीलिए मंगलाचरण करते हैं, ऐसा कहकर हेमाडपंत सर्वप्रथम विघ्नहर्ता श्रीगजानन को वंदन करते हैं। गजानन के दोनों तरफ ऋद्धिसिद्धि विराजमान हैं।ऋद्धिसिद्धिसहित हे गजानन, विद्यादाता गिरिजानंदन, तुम मुझपर कृपादृष्टि बनाये रखना’, इस तरह हेमाडपंत प्रार्थना करते हैं। साथ ही तुरंत अगली दसवी तथा बारहवी पंक्तियों में ‘ये मेरे साई ही गजानन हैं, यही गणपती हैं’ यह हेमाडपंत विश्वास के साथ प्रतिप्रादित करते हैं।

हा साईच गजानन गणपति। हा साईच घेऊनि परशु हाती।

करोनि विघ्नविच्छित्ति।निज व्युत्पत्ति करू कां॥

हाचि भालचंद्र गजानन। हाचि एकदंत गजकर्ण।

हाचि विकट भग्नरदन। हा विघ्नकाननविच्छेदक॥

हे सर्वमंगलमांगल्या। लंबोदरा गणराया।

अभेदरूपा साई सदया। निजसुखनिलया नेईं गा॥

ये मेरे साईनाथ ही गजानन हैं और उनके दोनों ओर रहनेवाली ऋद्धि एवं सिद्धि यानी श्रद्धा एवं सबुरी हैं, यही हेमाडपंतजी की निष्ठा है। सच्चा भक्त भगवान के जिस स्वरूप को भी निहारता है, वहाँ पर वह अपने आराध्यदेव को ही पाता है, भक्ति की इसी शिखर स्थिति का अनुभव हम यहाँ पर कर सकते हैं।

गणेश के दोनों तरफ़ रहनेवाली ऋद्धिसिद्धि में हेमाड श्रद्धा और सबुरी का ही अनुभव करते हैं और श्रद्धासबुरी के बीच में विराजमान रहनेवाले साईगणेश को वंदन करते हैं।

बारहवी पंक्ति में इसीलिए ‘अभेदरूपा साई सदया’ यह सुंदर पंक्ति वे इसी अर्थ से लिखते हैं।

शारदामाता को, सरस्वती को, भक्तमाता को वंदन करते समय तो हेमाडजी का कवित्व जैसे खिल उठा है। माता सरस्वती, तुम मेरी इस जिव्हा को ‘हंस’ बनाकर उस पर आरूढ़ (सवार) हो जाओ, यह प्रार्थना वे प्रथम पंक्ति में ही करते हैं। कितना सुंदर भाव है यह उनका! आद्यपिपा की ‘जिह्वा तुम्हारे चरणों में’ इस पंक्ति का स्मरण यहाँ होता है। मेरी जिव्हा माता सरस्वती का वाहन बन जाये और माँ उस पर आरुढ़ हो जाये, जिससे कि इस साईसच्चरितामृत के रस का पान मैं भी कर सकूँ और साथ ही अन्य सभी इसका यथायोग्य सेवन कर सकें। यहाँ पर हेमाडपंत जो बता रहे हैं वह जीभ यह महज़ शरीर का एक अंग न होते हुए मन की जीभ का भी अन्तर्भाव इसमें है। वैखरी का अधिष्ठान रहनेवाली शारीरिक जीभ जिस तरह महत्त्वपूर्ण है, उसी तरह पश्यन्त्ती का अधिष्ठान मानी जानेवाली मनरूपी जीभ, मन की जीभ भी महत्त्वपूर्ण है। इस ‘मनन’ रूपी जीभ द्वारा मन हर एक विषय का स्वाद लेते रहताहै, सेवन करता है। जिस का मनन हम करते हैं उसी प्रकार से मन का गढ़न होते रहता है। मन यदि बारबार विषयविकारों का ही मनन करते रहता है, तो मन वैसा ही हो जाता है। इस मन की मननरूपी जिव्हा को ही हंस बनाकर माँ तुम उसपर आरूढ़ (सवार) हो जाओ जिससे कि यह मन सदैव उचित बातों का ही मनन करेगा, साईलीला का ही मनन करेगा और सद्गुरु श्रीसाईनाथ के आज्ञापालन से यह साईसच्चरित प्रवाहित होगा।

साईच भगवती सरस्वती। ॐकारवीणा घेऊनि हाती।

निजचरित्र स्वयेंचि गाती। उद्धारस्थिति भक्तांच्या॥

ये साईनाथ ही साक्षात भगवती सरस्वती हैं और ॐकारवीणा हाथों में लेकर भक्तों का उद्धार करने के लिए स्वयं ही अपने चरित्र का गायन कर रह हैं।हेमाडपंतजी की इस एक ओवी में ही भावार्थ का अपरंपार भंडार भर पड़ा है। साईसच्चरित यह उद्धारबीज धारण करनेवाला है और भक्तों का उद्धार हो इसीलिए बाबा स्वयं ही अपना चरित्र लिख रहे हैं, यह हेमाडपंतजी का पूरा विश्वास यहाँ पर प्रकट हो रहा है। भक्तों का समुद्धार करने वाले साईनाथजी ही इस सच्चरित के कर्ता हैं और ‘भक्तों के प्रति रहने वाली करुणा के कारण प्रकट होने वाली साईबाबा की वाणी’ ही इस साईसच्चरित रूप में प्रकट हुई है।

आगे अठारहवी पंक्ति में हेमाडपंत सत्त्व, रज एवं तम इस प्रकार का क्रम न रखते हुए उत्पत्ति, स्थिति एवं लय करनेवाले ब्रह्मा, विष्णु एवं शिवजी के क्रमानुसार उनके तीन गुण रज, सत्त्व एवं तम इनका उल्लेख करते हैं। शब्दजाल की गुत्थी में उलझाकर, वितंडवाद निर्माण कर अपना स्वार्थ सिद्ध करनेवाले खोखले शब्दपंडितों को इस एक पंक्ति में हेमाडपंत ने मुँहतोड़ जवाब तो दिया ही है, साथ ही अत्यन्त समुचित क्रमवारिता करके सभी को उचित दिग्दर्शन भी किया है। आगे चलकर हेमाडपंत एक बार फिर से कहते हैं ‘हे साईनाथ, तुम ही गणाधीश, सावित्रीश (चतुरानन ब्रह्मदेव), रमेश (विष्णु) और उमेश (शिव) हो। हे सद्गुरुनाथ, मेरे लिए तुम ही सब कुछ हो।

Shree Saisatcharitra - Saibaba 1

हेमाडपंतजी के साईप्रेम ने उन्हें कितना पारदर्शक मन का बना दिया था, यही बात यहाँ पर दिखाई देती है। आगे चलकक्र वे कुलदेवता परशुराम, ऋषि भारद्वाज एवं अन्य ऋषि, संत सज्जन, माता-पिता, जेष्ठ भ्राता और भाभी तथा श्रोताजन इन सभी को वंदन करते हैं, सभी लोगों के प्रति ऋणनिर्देश करते हैं। श्रोताओं को वंदन करनेवाले हेमाडपंतजी की कहते हैं- ‘हालाँकि मैं आपके आगे तिनके के समान हूँ, मग़र फिर भी आप मुझे प्यार से सुनना, कृपालु बनकर।’

यह विनति सचमुच ही इस महान भक्त की विनयसंपन्नता दर्शाती है।भोजन करते समय जिस अंत में कुछ मीठा खाने के लिए रखा जाता है, जिससे कि भोजन के बाद भी उसका माधुर्य जिव्हा पर बना रहे, उसी तरह सद्गुरु-वंदन का मधुर कौर हेमाडपंत मंगलाचरण के अंत में बचाकर रखते हैं।हम इस माधुर्य का अनुभव करने के लिए सद्गुरु वंदनवाली पंक्तियों का अध्ययन करेंगे।

॥हरि ॐ॥

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