श्रीसाईसच्चरित : अध्याय-३ : भाग- ७०

हम दिन हो या रात, दु:ख हो अथवा सुख चाहे जो भी हो, यदि हम अपने इस साईनाथ का गुणसंकीर्तन करते रहते हैं, ऐसे में हमारे प्रारब्ध का नाश करनेवाली हरिकृपा हमारे जीवन में प्रवेश करती ही है। और हमारे प्रारब्ध का नाश करती ही है। हमारे त्रिविध दु:खों एवं चिंताओं का नाश करती ही है। और कर्म के अटल सिद्धांतानुसार जो भोग भोगना अपरिहार्य है। उस भोग को बिलकुल ही सौम्य बना देती है।

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रोहिले की कथाद्वारा बोधरत्न प्राप्त करते हुए हमने उस कथा के प्रथम पद (पंक्ति) से चार महत्त्वपूर्ण मुद्दों पर विस्तारपूर्वक अध्ययन किया। इन चारों क्रियाओं को मुझे भी अपने आचरण में उतारना ही चाहिए। जिससे मैं भी अपना जीवन विकास साध्य कर सकता हूँ। इन चारों क्रियाओं के प्रमुख मुद्दे इस प्रकार से हैं –

१) उत्कटता
२) साई के गुणों की मोहिनी
३) सामीप्य
४) समर्पण

सच यह प्रथम पद रोहिले की कथा का आरंभ जहाँ से होता है, वह प्रथम पद, अप्रतिम है। हमारे भक्ति जीवन का आरंभ भी इसी तरह से होना चाहिए। उत्कृष्ट आरंभ अर्थात आधा कार्य पूर्ण हो जाने के समान है। अंग्रेजी के इस कहावत के अनुसार (वेल बिगन इज हाफ डज) हमारे भी परमार्थ का आरंभ इसी पदानुसार होना चाहिए।

शिरडी में आया एक रोहिला। वह भी बाबा के गुणों से मोहित हो गया।
वहीं पर काफी समय तक रहा। बाबा पर प्यार लुटाता रहा॥
(शिरडीसी आला एक रोहिला। तोही बाबांचे गुणांसी मोहिला। तेथेंचि बहुत दिन राहिला। प्रेमें वाहिला बाबांसी॥)

इससे आगे की जो पाँचवी क्रिया है, वही सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण है और वह है ईश्‍वर का सतत गुणसंकीर्तन करते रहना। इस गुणसंकीर्तन में सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण बात यह है कि दिन हो या रात रोहिला ईश्‍वर का गुणसंकीर्तन कर ही रहा है।

दिन हो या रात। मस्जिद में रहे या चावड़ी में।
कलमें पढ़ता रहा उच्च स्वर में। पूर्ण अयेगानुसार स्वच्छंद रूप में॥
(दिवस असो वा निशी। मशिदिसी वा चावडीसी। कलमे पढे उंच स्वरेंसी। अति आवेशीं स्वच्छंद॥)

इन पंक्तियों में गुणसंकीर्तन कैसे करना है इस संबंध में हमें मार्गदर्शन किया गया है।

१) दिन हो अथवा रात
२) मस्जिद हो अथवा चावडी

दिन हो अथवा रात हो, मस्जिदमाई हो अथवा चावडी हो, यह रोहिला अत्यन्त उच्च स्वर में ईश्‍वर का गुणसंकीर्तन करता था।

साईबाबा, श्रीसाईसच्चरित, सद्गुरु, साईनाथ, हेमाडपंत, शिर्डी, द्वारकामाईयहाँ पर हमें इस बात का पता चलता है कि दिन एवं रात दोनों ही प्रकार हमारे जीवन में होनेवाली द्वंद्वात्मक स्थिति का प्रतिनिधित्व करते हैं। दिन-रात ये नि:सर्ग के सर्वप्रथम द्वंद्व है। और ये द्वंद्व हमारा सूर्य के प्रति अभिमुख होना अथवा पराङ्मुख होना इसी के अनुसार हमारे जीवन में आता है। पृथ्वी के जिस हिस्से पर हम रहते हैं, वह हिस्सा पृथ्वी के परिक्रमा के कारण कभी सूर्य के सामने आते रहता है तो कभी सूर्य के विरूद्ध दिशा में चला जाता है। हम भी अपनी कर्मगति के अनुसार अर्थात प्रारब्धानुसार इसी तर्ह गोते लगाते रहते हैं। कभी सुख तो कभी दु:ख, कभी आरामदेह जीवन तो कभी मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ता है, कभी यश हाथ लगता है तो कभी अपयश, कभी लाभ तो कभी हानि, इस तरह अनेक प्रकार के द्वंद्वों के लपेट में हम मसलते चले जाते हैं, और इसका कारण हमारी कर्मगति अर्थात कर्मतंत्र यही है।

परन्तु यहीं पर हमें रोहिले के आचरण से यह सीखना चाहिए कि दिन हो या रात, मुझे ईश्‍वर का गुणसंकीर्तन करते ही रहना चाहिए। अब आजकल मेरे जीवन में दिन है या रात हैं, चाहे जो भी हो, मैं अपने श्रीसाईनाथ का गुणगान करता ही रहूँगा। अर्थात सुख हो अथवा दु:ख, चाहे जो भी द्वंद्व हो, उसमें ही उलझे न रहकर हमें श्रीसाईनाथ का गुणगान करता ही रहूँगा। अर्थात सुख हो अथवा दु:ख, चाहे जो भी द्वंद्व हो, उसमें ही उलझे न रहकर हमें श्रीसाईनाथ के गुणसंकीर्तन में ही अपने आप को व्यस्त रखना चाहिए। अकसर हम देखते हैं कि सुख की घड़ी में हम भगवान को भूल जाते हैं और सुख यह उन्हीं की कृपा से प्राप्त हुआ है यह भी हम भूल जाते हैं। हम इसी भूलावे में मस्त रहते हैं कि यह सुख मुझे मेरे ही कर्तृत्व (कर्म) से प्राप्त हुआ है। इसी मस्ती में मैं आचरण करता रहता हूँ और फिर एक दिन दु:ख की लपेट में (कचाट्यात) आ ही जाता हूँ। यह कब और कैसे हुआ यह मुझे भी पता नहीं चल पाता हैं। और अब मैं भगवान से ही पुछता हूँ कि यह दु:ख मुझे आपने ही दिया है क्या?

परन्तु मुझे यहाँ पर ध्यान देना चाहिए कि यह दु:ख भगवान ने मुझे नहीं दिया है। बल्कि मेरे ही प्रारब्धानुसार यह भोग मेरी किस्मत में आया है। यदि सुख के कारण को मैं अपना कर्तृत्व मानता हूँ तो दु:ख के कारण को भी मुझे अपना कर्तृत्व मानना चाहिए। फिर यहाँ पर मुझे अपने भगवान को दोष देने का सवाल ही कहाँ उठता है? यदि मैं भगवान का गुणसंकीर्तन करता रहा होता, तब आज यह दु:ख भोग भोगने का समय मुझ पर आता ही नहीं। ‘सुख में विस्मरण’ और ‘दु:ख में स्मरण’ यह तो हर किसी का अनुभव है।

ठोकर लगने पर ‘ओ माँ’ यह उद्गार तुरंत निकल पड़ता है। परन्तु सुख में, आनंदपूर्वक प्रवास करते समय क्या हमें माँ की याद आती हैं? वैसे ही अपनी इस साईमाऊली की याद ठोकर लगने पर, मुसीबत में ङ्गँसने पर ही हमें आती हैं। उस समय क्या हम अपनी इस साईमाऊली का स्मरण करते हैं?

हम दिन हो या रात, दु:ख हो अथवा सुख चाहे जो भी हो, यदि हम अपने इस साईनाथ का गुणसंकीर्तन करते रहते हैं, ऐसे में हमारे प्रारब्ध का नाश करनेवाली हरिकृपा हमारे जीवन में प्रवेश करती ही है। और हमारे प्रारब्ध का नाश करती ही है। हमारे त्रिविध दु:खों एवं चिंताओं का नाश करती ही है। और कर्म के अटल सिद्धांतानुसार जो भोग भोगना अपरिहार्य है। उस भोग को बिलकुल ही सौम्य बना देती है। रोहिले क गुणसंकीर्तन का अभ्यास करते समय प्रथम मुद्दे से यही ध्यान बनाये रखना है कि दिन हो या रात, सुख हो या दु:ख भगवान का गुणसंकीर्तन करते रहना, यही एक मात्र प्रारब्ध का नाश करने का एकमेव सहज आसान उपाय है।

सभी संत एकमुख से यही प्रार्थना करते हैं, गुणसंकीर्तन में, नामसंकीर्तन में बाबा के रूप का ध्यान एवं उनकी लीलाओं का वर्णन, गायन करते हुए करना होता है। जो अपने आप ही सहज होने लगता है। भगवान का कभी भी विस्मरण न होना और उनकी याद सदैव बनाये रखना यही इन द्वंद्वों से छुटकारा पाने का आसान मार्ग है।

यही दान देना भगवन। तुम्हारा विस्मरण ना हो।
गुण गाऊँ गा प्यार से। यही मेरी सद्भावना॥
(हेचि दान देगा देवा। तुझा विसर न व्हावा॥ गुण गाईन आवडी। हेचि माझी सर्व गोडी॥)

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