श्रीसाईसच्चरित : अध्याय-३ : भाग-१०१

श्रीसाईसच्चरित यह एक ऐसा सुंदर ग्रंथ है, जिसमें से एक पंक्ति भी यदि हृदय में धारण कर ली जाए, तब भी मनुष्य का समग्र जीवनविकास बड़ी सहजता से हो सकता है। इसमें की हर एक पंक्ति यह साक्षात् सद्गुरु साईनाथजी ही हैं। बाबा ही इस ग्रंथ की हर एक पंक्ति में प्रत्यक्ष रूप में प्रकट हुए हैं। ये साईनाथ प्रेमस्वरूप हैं और हर एक पंक्ति यह बाबा का प्रेमस्वरूप-प्रकटन ही है। फिलहाल हम जिसका अध्ययन कर रहे हैं, वे पंक्तियाँ भक्तिमार्ग का शिखर ही हैं। बाबा स्वयं ही यह सत्य हम से कह रहे हैं।

कुठेंही असा कांहींही करा। एवढें पूर्ण सदैव स्मरा।
कीं तुमच्या इत्थंभूत कृतीच्या खबरा। मज निरंतरा लागती॥
(कहीं भी रहना, कुछ भी करना। परन्तु सदैव इतना स्मरण रखना।
कि तुम्हारी हर एक कृति की खबर। निरंतर मुझे रहती ही है॥)

संपूर्ण साईसच्चरित ही मानो इन पंक्तियों के माध्यम से हेमाडपंत हमारे समक्ष प्रस्तुत कर रहे हैं। बाबा स्वयं ही हमसे यह कह रहे हैं कि हमें किस बात का स्मरण रखना चाहिए। अत एव ये पंक्तियाँ अवश्य ही हमारे हृदय में मुद्रित हो जानी चाहिए।

इन पंक्तियों से हमें स्मरण होता हैं, पंद्रहवें अध्याय के चोळकरजी का, साईनाथ की कृपा का और उस अध्याय की पंक्तियों का। चोळकरजी ठाणे में दासगणु महाराज के द्वारा किये गये साईगुणलीलासंकीर्तन में साईमहिमा श्रवण करते हैं और वहीं पर साई की तसवीर के समक्ष मन्नत मानते हैं कि यदि मैं परिक्षा में पास हो जाऊँगा तो शिरडी जाकर शक्कर बाटूँगा। बाबा की लीला दासगणु महाराज जैसे श्रेष्ठ भक्त के मुख से सुनते ही बाबा के प्रति श्रद्धालु भाविक चोळकरजी के मन में विश्‍वास निर्माण हो जाता है और उसी क्षण मन ही मन वे ठाणे में ही बाबा से मन्नत मानते हैं। आगे चलकर उनकी मन्नत पूरी होती है। परन्तु आर्थिक परिस्थिति अच्छी न होने के कारण शिरडी जाकर अपनी मन्नत पूरी करने में उन्हें विलंब होता है। इस कारण चोळकरजी शक्कर का उपयोग अपने दैनिक जीवन में नहीं करते हैं। ‘जब तक वे शिरडी जाकर, बाबा के नाम से शक्कर नहीं बाँटेंगे, तब तक वे शक्कर नहीं खायेंगे’ ऐसा निश्‍चय करते हैं और उसी पल से वे बगैर शक्कर की चाय पीने लगते हैं और शक्कर के पदार्थ का सर्वथा त्याग कर देते हैं।

सच में चोळकरजी की यह भक्ति हम सभी के लिए आदर्श है। हमारे समान ही सामान्य गृहस्थाश्रमी भक्त, परन्तु उनके इस गुण को हम देखते हैं तो समझ में आ जाता है कि उनकी भक्ति कितनी महान है। आगे चलकर पाई पाई जोड़कर वे शिरडी जाते हैं और जोगजी के यहाँ रुकते हैं। द्वारकामाई में आकर बाबा के दर्शन करके बाबा को शक्कर एवं नारियल अर्पण करते हैं और काफी प्रसन्न हो उठते हैं। इसके साथ ही वे वहाँ पर उपस्थित लोगों को शक्कर बाँटने लगते हैं, तब बाबा जोग को संबोधित करते हुए कहते हैं कि इस चोळकर को खूब शक्कर मिलायी हुई चाय पिलाओ, बहुत ही मीठी चाय पिलाओ।

बाबा के मुख से निकले बोलों में अपनी ही कथा सुनकर चोळकरजी अत्यंत आनंदित हो उठते हैं। बाबा को इत्थंभूत कृति की खबर मिल जाती है, इस बात की प्रचिति चोळकरजी को मिल जाती है और हमें भी।

बाबा तो चाय पीते ही नहीं थे और ना ही उस व़क्त चाय के संबंध में वे कोई बात कर रहे थे। तो फिर चोळकरजी को देखकर बाबा को भरपूर शक्कर की चाय की याद कैसे आ गई? इसका कारण एक ही था कि हर किसी की सभी कृतियों की इत्थंभूत खबर बाबा को तुरंत मिल ही जाती है।

चोळकरजी ने ठाणे के अपने निवासस्थान पर मन ही मन मन्नत मानी थी। जिसे केवल वे ही जानते थे। परन्तु उसी क्षण बाबा को चोळकरजी की उस कृति की खबर मिल गई थी। आगे शिरडी जाने तक उन्होंने शक्कर का सेवन करना बंद कर दिया और बगैर शक्कर की ही चाय पीनी शुरू कर दी। इस बात का भी चोळकरजी के परिवार के अलावा अन्य किसी को भी पता नहीं था।

अब किसी के मन में यह विचार आ सकता है कि जोगजी के यहाँ ठहरने के पश्‍चात् चाय-नाश्ते के बारे में जोगजी ने उनसे पूछा ही होगा; परन्तु उस वक्त भी उन्होंने बाबा के दर्शन नहीं किये थे। ऐसे में उन्होंने जोगजी से कहा भी होगा कि मैं बगैर शक्कर की ही चाय लूँगा और शायद इसके पीछे होनेवाला कारण भी बताया होगा। इसके पश्‍चात् जोगजी के साथ चोळकरजी द्वारकामाई में गये होंगे। लेकिन यह विचार करते हैं तब भी यही ज्ञात होता है कि जोग के साथ बाबा की मुलाकात चोळकरजी के द्वारकामाई में पहुँचने के बाद ही हुई है। तात्पर्य यह है कि चोळकरजी बगैर शक्कर की चाय पीते हैं, इसके पीछे होनेवाला कारण लौकिक दृष्टि से बाबा तक पहुँचने का कोई मार्ग नहीं था।

परन्तु जिन्हें इत्थंभूत कृति का पता चल ही जाता है ऐसे साईनाथ से भला क्या छिप सकता है! चोळकरजी ने जिस क्षण ‘शिरडी जाकर बाबा के दर्शन करके बाबा के नाम से जब तक मैं शक्कर नहीं बाँटूँगा, तब तक मैं बगैर शक्कर की ही चाय पीऊँगा, शक्कर वर्ज्य कर दूँगा’ यह दृढ़निश्‍चय कर लिया, उसी क्षण उनकी इस कृति की खबर का पता साईनाथ चल ही गया था और इसीलिए ‘बोले वैसा करे’ इस नियम से चलने वाले चोळकरजी जब शिरडी में बाबा के पास आते हैं, उस वक्त बाबा ने ‘भरपूर शक्कर वाली चाय इन्हें पिलाओ’ ऐसा जोग से कहा।

‘चोळकर, तुम्हारी वाचादत्त शर्करा मुझे प्राप्त हुई, तुम्हारा नियम भी पूरा हुआ। मन्नत करते वक्त तुम्हारे मन का भाव भले ही किसी को भी पता नहीं होगा, फिर भी मुझे उसकी खबर तुरंत ही मिल गई। साथ ही तुम्हें शिरडी आने में देर हो रही थी और इस कारण से ‘शक्कर का त्याग कर दूँगा’ इस तुम्हारे मनोगत की खबर भी मुझे तत्क्षण मिल ही गई। तुमने यह सब भले ही गुप्त रखा हो, फिर भी मुझे उसकी इत्थंभूत खबर है’ यही बाबा ने चोळकरजी को और उनके माध्यम से हम सभी को दर्शाया है।

सच पूछा जाए तो चोळकरजी को शक्कर पसंद थी। परन्तु इस उत्तम भक्त ने जब तक मैं अपने भगवान से मिलकर अपनी मन्नत पूरी नहीं कर लेता हूँ, तब तक प्रायश्‍चित्त के रूप में मैं शक्कर का सेवन नहीं करूँगा यह संकल्प कर लिया था। उन्होंने अपने प्रिय खाद्य पदार्थ का त्याग कर दिया था। ‘क्या हम चोळकरजी के जैसी भक्ति करने की तैयारी रखते हैं?’ यह प्रश्‍न हमें स्वयं अपने-आप से ही पूछना चाहिए।

वर्धमान व्रताधिराज करते समय जो पदार्थ व्यर्ज्य होते हैं, भोजन में उनका सेवन नहीं करना चाहिए, उनमें से कोई पदार्थ मेरा पसंदीदा है, फिर भी मेरे स्वयं के जीवनविकास के लिए उस पदार्थ का उस मास में त्याग करना यह मुझे कठिन क्यों लगता है? मान लीजिए कि आलूवडा (बटाटावडा) यह मेरा पसंदीदा पदार्थ है। परन्तु बेसन वर्ज्य होने के कारण मैं एक महीने तक बटाटावडा नहीं खाऊँ गा, यह निश्‍चय एवं उसका पालन मैं क्यों नहीं कर सकता हूँ? व्रत आदि उपासनाओं में ‘वर्ज्य प्रकरण’ इसी लिए महत्त्वपूर्ण होता है क्योंकि इससे हमें ‘त्याग’ इस महत्त्वपूर्ण गुण को अपनाने में में मदद मिलती है। यदि कोई कहता है कि खाद्यपदार्थ को वर्ज्य करने का इतना महत्त्व क्यों है, तो उसका उत्तर इस तरह है कि बात खाने के पदार्थ तक सीमित नहीं है, बल्कि इससे त्याग की भूमिका मज़बूत होती है। मैं यदि कुछ प्राप्त करना चाहता हूँ, तो कुछ त्याग करने की मेरी तैयारी होनी ही चाहिए। मर्यादामार्गियों की ‘त्येन त्यक्तेन भुज्जीथा:’ इस भूमिका को तैयार करनेवाला यह ‘वर्ज्य प्रकरण’ है।

चोळकरजी का आदर्श हमें हमेशा अपने सामने रखना चाहिए, क्योंकि हम कहते कुछ हैं और करते कुछ और ही हैं। हम यह मानकर चलते हैं कि बाबा को क्या पता चलनेवाला है? परन्तु चोळकरजी की यह कथा हमें ऊपर उल्लेखित ओवी का मर्म ही स्पष्ट करके बतलाती है और मर्यादा का खूँटा मज़बूत करती है।

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