श्रीसाईसच्चरित : अध्याय-३ (भाग-३४)

मूक बृहस्पति समान बोलने लगता है। पंगु मेरू पर्वत लाँघ कर जाता है।
ऐसी है जिन साईनाथ की अतर्क्य शक्ति। उनकी लीला वे ही जाने॥

सद्गुरुतत्त्व को उद्धारक एवं अचिन्त्यदाता क्यों कहते हैं, इस बात का पता हमें इस ओवी को पढने से चल जाता है। जो भक्त मूक है, उसे सद्गुरु केवल बोलने की शक्ति प्रदान नहीं करते बल्कि मूक व्यक्ति को बृहस्पति समान श्रेष्ठ ज्ञानी वक्ता बना देते हैं। यह लीला केवल सद्गुरुतत्त्व ही कर सकता है।

हमें यहाँ पर यह ज्ञात होता है कि जो पहले मूक था, वह अधिकारवाणी से बोलने लगता है, वह केवल साईनाथ की कृपा से ही। तात्पर्य यह है कि बाबा जहाँ पर कुछ भी न हो, वहाँ पर वह शक्ति तो प्रदान करते ही हैं, साथ ही बाबा उस भक्त को उस क्षेत्र की कुशलता भी प्रदान करते हैं।

पंगु को केवल थोड़ा-बहुत चल सकने की शक्ती प्रदान नहीं करते हैं, वे उसे मेरु पर्वत के समान सब से ऊँचा पर्वत, जिसे लाँघ पाना अत्यन्त कठिन होता है, ऐसे पर्वत को लाँघ जाने की शक्ति प्रदान करते हैं।

साईबाबा, श्रीसाईसच्चरित, सद्गुरु, साईनाथ, हेमाडपंत, शिर्डी, द्वारकामाईमूक होना यह रूपक है शक्ति के अस्फुट, अव्यक्त अवस्था में होने का। जैसे हम कोई बीज लेते हैं, उस बीज में वृक्ष बनने की क्षमता है, परन्तु जब तक वह बीज घर के डिब्बे में पड़ा रहेगा, तब तक उस बीज में विकासशक्ति होने के बावजूद भी वह व्यक्त नहीं हो सकती है यानी वह बीज मूक अवस्था में है।

जिस क्षण उस बीज को अनुकूल परिस्थिति प्राप्त होगी, उसी क्षण वह बीज अंकुरित होगा और आगे चलकर उसी बीज से एक वृक्ष विकसित होगा। हमारे जीवन में भी इस प्रकार के अनेक अच्छे बीजों को हम डिब्बे में बंद करके रख देते हैं यानी हमारे तरह तरह के गलत संकुचित विचार के, आचार के, आहार के, विहार के बक्से में बंद करके रख देते हैं। कभी हम इन उत्तम बीजों को अभक्तिरूपी अंधेर कोठरी में डाल देते हैं, तो कभी षड्रिपु, संशय, विकल्प आदि रूक्ष स्थानों पर फेंक देते हैं। फिर मैं परमात्मा से ही प्रश्‍न पूछने लगता हूँ कि मैं बोल क्यों नहीं सकता हूँ, मैं मूक क्यों हूँ।

कभी कभी तो इससे भी आगे निकलकर हम ‘परमात्मा ने मेरे साथ न्याय नहीं किया’ यह आरोप लगाने का अपराध कर बैठते हैं। जो पूर्ण न्यायी हैं, जो करुणास्रोत हैं, उन परमात्मा पर ही आरोप करने का जुर्म कर बैठते हैं।

सच में देखा जाए तो हमारे गतजन्मों के अनेक पापों के होने के बावजूद भी परमात्मा ने ही अपनी अकारण करुणा से हमें सुधरने का अवसर प्रदान किया होता है, अपने अकारण कारुण्य के कारण हमारे सुधार एवं विकास के बीज हमारे जन्म के साथ ही हमें दे रखे होते हैं। चाहे कोई कितना भी पापी क्यों न हो, परमेश्‍वरी मार्ग पर चलकर अपना विकास कर लेने के बीज उस व्यक्ति के मन में परमात्मा के द्वारा रखे गये ही होते हैं। हम इन विकास के बीजों का, आनंद के बीजों का क्या करते हैं, इस पर ही सब कुछ निर्भर करता है।

जिस वक्त हम परमात्मा के, साईनाथ के पिपीलिकापथ पर चलते हुए प्रेम, सेवा एवं शारण्य इस त्रिसूत्री का अंगीकार करते हैं, तब परमात्मा हमारे अंदर के मूक बीजों को अंकुरित करते हैं, उनमें होनेवाली शक्ति को प्रकट करते हैं, उन बीजों का रूपांतरण एक घने बहरे हुए वृक्ष में करते हैं और फिर हमारा जीवन शांति, तृप्ति एवं समाधान से परिपूर्ण हो जाता है। हम मूक क्यों हैं, इसका मूल कारण यही है कि हम साईनाथ की बात नहीं सुनते हैं।

हमारे इस मूकपन का कारण हमारा बहरापन है इस बात को हमें ध्यान में रखना चाहिए। आज हमें जो भुगतना पड़ रहा है, वह साईनाथ की बात न सुनने के कारण ही। साईनाथ श्रीसाईसच्चरित में बारंबार हमें सत्य, प्रेम और आनंद इन तत्त्वों के साथ चलते हुए पवित्र आचरण कैसे करना चाहिए, इसी के संबंध में बताते हैं। वे पुन: पुन: हमारे हित के बारे में ही हमें बतलाते रहते हैं, परन्तु हम हैं कि बाबा की बात सुनते ही नहीं हैं। फिर हमारे जीवन में भला विकास के बीज कैसे अंकुरित होंगे? मधुफलवाटिका भला कैसे खिलेगी?

ग्रंथराज श्रीमद्पुरुषार्थ की मधुफलवाटिका एवं पुरुषार्थगंगा हमारे जीवन में विकास बीजों का वृक्ष में रूपांतरण करनेवाली महान शक्तियाँ हैं। ये दोनों ही शक्तियाँ हमारे जीवन में आनंद के वृक्षों का आह्लादवन खिलानेवाली हैं। हमें मधुफलवाटिका एवं पुरुषार्थगंगा का नित्यनियमित रूप में प्रेमपूर्वक पठन करना चाहिए। फिर हमारे मूकपन एवं पंगुता को कैसे दूर करना है और हमें कुशलता कैसे प्रदान करनी है, यह तो साईनाथ जानते ही हैं। मधुफलवाटिका एवं पुरुषार्थगंगा हमें परमेश्‍वरी मार्ग से यशस्वी रूप में प्रवास करवानेवाली हैं। साईसच्चरित की हर एक कथा, हर एक अक्षर हमें हमारा श्रेय प्रदान करनेवाले हैं। हमें अपनी मूकता अथवा पंगुता का रोना न रोते हुए, ‘अब हमारा क्या होगा’ यह कहकर भयभीत न होते हुए साईनाथ की शरण में जाना चाहिए, फिर हमारा उद्धार करने के लिए वे पल भर का भी विलंब नहीं करते, वे तो पूर्ण समर्थ हैं ही।

मूकं करोति वाचालं पंगुं लंघयते गिरिम्।
यत्कृपा तमहं वन्दे परमानन्द-माधवम्॥

इसके साथ ही हेमाडपंत हमसे यह भी कह रहे हैं कि कोई यदि काफ़ी बड़ा वक्ता है, पंडित-ज्ञानी है, पर यदि वह इस सद्गुरु के भक्तिमार्ग पर से चलने वाला न हो तो फिर वह मूक ही है, क्योंकि उसका बडी बडी बातें करना यह केवल समय बर्बाद कहना ही है। साईनाथ की, परमात्मा की भक्ति न करने से उसके पास उसके उस वक्तृत्व का, विद्वता का अहंकार ही बढ़ते रहता है और फिर उसका वह खोखला शब्दपांडित्य मूक ही साबित होता है। परमात्मा का भावपूर्वक नामस्मरण करना, उन्हें प्यार से पुकारना, हर बात उन्हें बताना, उनके साथ प्रेम से संवाद करना यह हकीकत में बोलना ही कहलाता है और यही वाणी की उचित अभिव्यक्ति होती है।

यदि कोई मनुष्य अनाड़ी है, उसके पास कोई ज्ञान नहीं है, पर फिर भी यदि वह साईनाथ की शरण में रहकर उनके साथ संभाषण करते रहता है, तो वह वास्तव में संभाषण-कुशल है, वही हकीकत में बोलना जानता हैं। इसीलिए वास्तव में मूक कौन हैं यह हम इससे समझ सकते हैं। जिसे परमात्मा के साथ, भगवान के साथ, इस साईनाथ के साथ संभाषण करना नहीं आता, वही दर असल मूक है।

सत्ता, कीर्ति, पद, प्रतिष्ठा, धन आदि के कारण जो उच्च स्थान पर विराजमान है, उस क्षेत्र में शिखर पर पहुँच गया है, परन्तु वह यदि इस देवयान पथ पर से, भगवान के इस पथ पर से मार्गक्रमण करते हुए भक्ति के आसान मार्ग पर नहीं चलता है, तो फिर वह चाहे कितनी भी ऊँचाई क्यों न हासिल कर ले, मग़र फिर भी आगे चलकर इन सब का उसे कोई उपयोग नहीं होता, क्योंकि आसान मार्ग पर, नीति-मर्यादा के मार्ग पर न होने के कारण उसके पैर फिसलकर वह कभी भी पतन की गहरी खायी में गिर सकता है। हमें सदैव न्याय-नीति-मर्यादा के अर्थात परमेश्‍वरी नियम-मूल्यों के मार्ग पर ही चलते रहना चाहिए। क्योंकि इस आसान भक्ति मार्ग के अलावा अन्य अनैतिक अन्याय के मार्ग से चलकर कितनी भी ऊँचाई हासिल क्यों न कर लें ङ्गिर भी वह निष्ङ्गल ही है क्योंकि उसमें सत्य, प्रेम एवं आनंद का पवित्र अधिष्ठान नहीं है।

न्याय, नीति एवं मर्यादा के मार्ग पर न चलनेवाला ही पंगु होता है। यह बात यहाँ पर हम भली भाँति जान चुके हैं। हम यदि भक्तिरूपी राजमार्ग के प्रवासी हैं तो फिर हमें स्वयं को कभी भी पंगु नहीं समझना चाहिए, क्योंकि यह साईनाथ की आसान राह सदैव सर्वोच्च शिखर पर ही, सर्वोच्च ऊँचाई पर ही विद्यमान होती है और इसीलिए इस राह पर चलनेवाला ही मेरु पर्वत कब का लाँध चुका होता है।

जो भगवान का दास है, श्रीराम का वानरसैनिक है, उसके जीवन में अंधत्व, पंगुत्व, बहिरापन, गूँगापन जैसे दोष कभी नहीं आते। वह कभी भी उदास नहीं होता। हेमाडपंत हम से यही कहते हैं कि भगवान का दास कभी भी उदास स्थिति में नहीं होता है, उलटे जीवन की अंतिम साँस तक वह पवित्र कार्य, परमेश्‍वरी कार्य करता रहता है और अपने नरजन्म की इति कर्तव्यता साध्य करता है। अत एव हेमाडपंत साईनाथ के चरणों में जो अत्यन्त महत्त्वपूर्ण इच्छा व्यक्त करते हैं –

साईनाथ, मैं तो केवल चरणों का दास। मत कीजिए मुझे उदास।
जब तक है इस देह में साँस। अपना कार्य करवा लीजिए मुझ से॥

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