श्रीसाईसच्चरित : अध्याय-२ (भाग-३८)

हेमाडपंत शिरडी जा पहुँचे और साठेजी के वाडे के सामने ताँगे से उतरते समय, ‘कब मैं साईबाबा के चरणों पर माथा रखूँगा, कब बाबा का दर्शन करूँगा’ ऐसा उन्हें लग रहा था। हेमाडपंत कहते हैं कि अब बाबा के प्रत्यक्ष दर्शन होंगे, इस विचार से मेरे चित्त में आनंद की लहरें उठ रही थीं। जल्द से जल्द सामान रखकर बाबा का दर्शन करने के लिए द्वारकामाई में जाना है, इसी विचार में हेमाडपंत ताँगे से उतर रहे थे कि तभी द्वारकामाई से लौटने वाले तात्यासाहब नूलकर की मुलाकात साठेजी के वाडे के पास हेमाडपंत से हुई। वे बस बाबा के दर्शन करके द्वारकामाई से लौटे थे।

बाबा का दर्शनसाठेजी के वाडे के पास सामान के साथ खड़े हेमाडपंत को देखते ही तात्यासाहब बोले, ‘‘भक्तमंडली के संग साईबाबा साठेजी के वाडे के कोने तक आँ पहुँचे हैं। जल्दी से चलकर उनके दर्शन कर लीजिए। इसके पश्‍चात् बाबा लेंडीबाग में चले जायेंगे, इससे पहले ही आप बाबा से मिल लीजिए। ‘स्नान नहीं किया है तो बाबा के दर्शन कैसे करूँ’ आदि बातों के बारे में मत सोचिए। साईबाबा जब लेंडीबाग से लौटेंगे, तब तक स्नान, पूजापाठ करके फिर द्वारकामाई में जाकर शान्ति से दर्शन कीजिए।’’ नूलकरसाहब के यह वचन सुनकर हेमाडपंत तुरन्त ही दौड़ते हुए साईबाबा जहाँ पर थे वहाँ पर जा पहुँचे और बाबा के चरणों पर माथा टेक साई की चरणधूलि में हेमाडपंत ने लोटांगण किया।

तात्यासाहब की बात सुनते ही तुरंत। दौड़ पड़ा मैं वहाँ बाबा थे जहाँ।
चरणधूलि में लोटांगण किया। आनंद न समा रहा था मन में॥

बाबा की चरणधूल में लोटांगण करते ही हेमाडपंत कहते हैं, ‘मुझे इतना आनंद हुआ की वह आनंद मेरे मन में समा ही नहीं रहा था। नानासाहब ने बाबा के बारे में जितना बतलाया था, उससे भी कहीं अधिक मैंने प्रत्यक्ष में अनुभव किया। बाबा एक उस प्रथम दर्शन से ही मैं धन्य-धन्य हो गया, मानो बिन माँगे मोती मिल गये। मेरे आँखें तृप्त हो गयी। इससे पहले जो कभी नहीं देखा था और ना ही कभी सुना था, ऐसा था बाबा का वह सलोना रूप! मेरी दृष्टि स्तब्ध हो गई, भूख-प्यास का शमन हो गया। सारी इंद्रियाँ बाबा के चरणों में एकरूप हो गयीं। बाबा के चरणस्पर्श से मुझे ऐसा मन:सामर्थ्य प्राप्त हुआ कि जिससे मेरा मन ओज से भर गया और यहीं पर मेरे जीवन का परमोत्कर्ष हुआ, बाबा ने अपने चरणस्पर्श द्वारा अपने चरणों में मुझे नया जीवन प्रदान किया।

यहाँ पर सर्वप्रथम हमें मर्यादाशील भक्तिमार्ग के एकमेव-अद्वितीयत्व का पता चलता है और वह यह है कि अन्य मार्गों में साधक को उस ॐकार तक, परमात्मा तक जाने के लिए साधना करनी पड़ती है। स्वयं वहाँ तक जाना पड़ता है, परन्तु भक्तिमार्ग में भक्त के एक कदम आगे बढ़ाते ही परमात्मा सौ कदम आगे बढ़ाते हुए उस भक्त तक आ पहुँचते हैं और उस भक्त का उद्धार करते हैं।

‘भक्त के पास भगवान का आना’ यही भक्तिमार्ग की विशेषता हैं। हेमाडपंत यहाँ पर स्वयं के अनुभव के द्वारा ही यही बतलाना चाहते हैं कि मेरे मन में बाबा के चरणधूल में लोटांगण करने की उत्कट इच्छा रखते ही बाबा स्वयं मुझ तक आ पहुँचे और मुझे साई की चरणधूली में लोटांगण करने का सुअवसर साई ने ही प्रदान किया। मेरे बाबा के पास जाने की उत्कट इच्छा रखना, यही था वह मेरा पहला कदम आगे बढ़ाना और वहाँ पहुँचने पर साठेजी के वाडे के पास उतरते ही यह भाव मेरे मन को उत्कंठित कर देता है कि कब मैं बाबा के चरणों में लोटूँगा। मेरा यह भाव ही था, जिसके वश होकर मेरे साठेजी के वाडे तक पहुँचकर ताँगे से उतरते ही बाबा स्वयं मुझ से मिलने साठेजी के वाडे तक आ पहुँचते हैं।

‘मैं भगवान के पास जाता हूँ’ यह सच नहीं है, बल्कि ‘भगवान ही मेरे पास आते हैं’ यही सच है और यही भक्तिमार्ग का मर्म है। ये भगवान ही अत्यन्त भक्तवत्सल हैं। भक्त जितना प्रेम करता है, उससे कई गुना अधिक ये भगवान ही भक्त से प्रेम करते हैं। भक्त का प्रेम जैसे-जैसे बढ़ता है, उसी के अनुसार उनके प्रेम में भी अनंत रुप में वृद्धि होती रहती है। इसी प्रेमवश वे भक्त के पास स्वयं ही दौड़े चले आते हैं। बाबा का ठीक समय पर साठेजी के वाडे के कोने तक आ जाना यह भी हेमाडपंत के प्रेमवश ही बाबा के द्वारा की गई लीला है। हेमाडपंत का इस स्थान पर किया गया आचरण हमारे लिए काफी महत्त्व रखता है।
‘उसी साईचरणधूल में उनके चरणों पर मैं लोट गया।’

हेमाडपंत ने तुरंत ही बाबा के चरणधूली में लोटांगण किया। हेमाडपंत से हमें यहाँ पर यह सीखना है, उनका इस प्रकार से सद्गुरु का दर्शन करना। साई के चरणों को वंदन करने का सर्वोत्कृष्ट सुंदर मार्ग है, चरणधूली में लोटांगण करना, सद्गुरु के समक्ष लोटांगण करना, भगवान के सामने लोटांगण करना। हमें बाकी कुछ पता न हो, बाकी किसी साधन की जानकारी हमें न हो, मग़र फिर भी हमारे लिए सहज आसान साधन है- लोटांगण।

लोटांगण यह भक्त की सहज एवं सर्वश्रेष्ठ स्थिति है, लोटांगण करने से हम सर्वश्रेष्ठ परमेश्‍वरी उर्जा सबसे अधिक एवं बहुत ही जल्द प्राप्त कर सकते हैं। लोटांगण करना यह केवल शरीर से ही न करके अपने समग्र अस्तित्व को ही सद्गुरु श्रीसाईनाथ के चरणों में समर्पित कर देना होता है। मन, वाचा, कर्म से एकजूट होकर स्वयं को बाबा के चरणों में समर्पित कर देना, यही लोटांगण का मतितार्थ है।

सद्गुरु श्री अनिरुद्धजी ने यानी बापु ने श्रीमद्पुरुषार्थ ग्रन्थराज तृतीय खंड आनंदसाधना में लोटांगण के बारे में अत्यन्त विस्तारपूर्वक विवेचन किया है। हमें बारंबार इस सद्गुरु साईनाथ के समक्ष, अपने इस भगवान के समक्ष उनकी चरणधूली में लोटांगण करना ही चाहिए। हम जब लोटांगण करते हैं, उस वक्त हमारे अपने संपूर्ण अस्तित्व को ही सद्गुरु की चरणधूली का स्पर्श होता है। और हमारे शरीर का एक-एक कण, हर एक भाव, मन-बुद्धि-इन्द्रियों के साथ-साथ शरीर का कोना-कोना, रोम-रोम सद्गुरु की चरणधूली से पुलकित हो उठता है, पूरी तरह पावन एवं समर्थ हो उठता है।

सद्गुरु के चरणों से निरंतर प्रवाहित होने वाले ओज का प्रवाह हमारे संपूर्ण शरीर में संचार करता है और हमारे मन में, हमारे प्रारब्ध में जो रुकावटें निर्माण हुई रहती हैं, उन सभी का अवरोध लोटांगण स्थिति में दूर हो जाता है। साथ ही सद्गुरु की कृपा हमारे जीवन में प्रवाहित होकर हमारे दुष्प्रारब्ध का नाश करती है। लोटांगण से हमें हमेशा के लिए शारण्य की प्राप्ति होती है। परन्तु हमें शाश्‍वत लोटांगण स्थिति अपनी क्षमतानुसार प्राप्त करने के लिए समय लग सकता है। इसीलिए हमें जब भी संभव हो उस समय सद्गुरु के समक्ष लोटांगण अवश्य करना चाहिए।

साईनाथ के चरणों की धूल ही सत्त्वगुण है। हमारे अपने जीवनोत्कर्ष के लिए, जीवनविकास के लिए यह सत्त्वगुण अत्यन्त आवश्यक होता है। वैसे तो यह सत्त्वगुण प्राप्त करना आसान नहीं। परन्तु सद्गुरु की चरणधूली में लोटांगण करने से इस सत्त्वगुण को भक्त सहज ही प्राप्त कर सकता है। हमारे मन को इस सत्त्वगुण के कारण ही भगवान के दर्शन में, गुणसंकीर्तन में, नामस्मरण में, जप में, कथा-लीला-वर्णन में माधुर्य अर्थात रुचि आने लगती है।

हमारी सबसे बड़ी समस्या यही होती है कि हमारा मन परमार्थ में नहीं लगता हैं और इसी कारण सत्त्वगुण भी नहीं बढ़ता है। समस्या तो यही है कि सत्त्वगुण के बगैर परमार्थ में रुचि ही नहीं रहती, फिर सत्त्वगुण प्राप्त कैसे करें? इसी का सहज आसान उत्तर है- लोटांगण। जो भक्त अत्यन्त प्रेमपूर्वक, श्रद्धापूर्वक भगवान के समक्ष लोटांगण करते रहता है, उसके अंदर यह सत्त्वगुण अपने-आप ही बढ़ते रहता है और सत्त्वगुण बढ़ते रहने से उसका जीवनविकास भी होते ही रहता है, वह कभी भी राह से भटक नहीं जाता। ऐसा है यह लोटांगण का सहज एवं आसान मार्ग। ऐसा सहज सुंदर मार्ग यानी लोटांगण हमारे पास होते हुए हमें अन्य रास्ते ढूँढ़ने की ज़रूरत ही क्या है? है ना!

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