श्रीसाईसच्चरित : अध्याय-२ (भाग-३७)

जब हम परमेश्‍वरी कार्यहेतु, साईदर्शनहेतु, भक्तिसेवाहेतु निकलते हैं, तब ये साई कोई भी संकट आने ही नहीं देते और मान लो, यदि कोई संकट आ ही जाता है तब उसे दूर करने के लिए उसका रूपांतर अवसर के रुप में देकर वे हमें प्रगतिपथ पर ही चलाते रहते हैं।
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‘तत्काल शिरडी के लिए रवाना होता हूँ’ यह बचन हेमाडपंत से लेकर चांदोरकर पुन: अपने काम हेतु वसई की ओर चले गए और हेमाडपंत अपने निकलने की तैयारी कर उसी दिन संध्यासमय बांदरा स्टेशन पर आ पहुँचे। संध्याकाल के पश्‍चात् आने वाली मेल दादर में ज़रूर रुकेगी यह विचार कर हेमाडपंत ने बांदराअ से दादर तक का टिकट निकाल लिया और वे बांदरा से गाड़ी में चढ़ गए। बांदरा से गाड़ी छुटते-छुटते एक यवन तेजी से गाड़ी में चढ़ गया एवं हेमाडपंत के पास ही आकर बैठ गया। हेमाडपंत का सामान आदि देख उसने हेमाडपंत से प्रश्‍न किया कि ‘आप कहाँ जा रहे हैं?’

यवन के मुख से इस प्रश्‍न को सुनकर हेमाडपंत को बहुत बुरा लगा कि यही से ही टोका-टोकी शुरु हो गयी अब और भी कोई मुसीबत न आ जाये? अर्थात पहले एक बार तो शिरड़ी जाते समय कोई बात मन में खटक गई थी और पुन: यही प्रश्‍न ‘कहाँ जा रहे हो?’ अब क्या होगा, इस मनुष्य का मिलना योग कुछ अच्छा नहीं लग रहा है?

परमेश्‍वरी कार्यहेतुहमारे साथ भी अकसर ऐसा ही होता है हम भी इसी तरह अनेक शगुन-अपशगुन के झमेले में फँसे रहते हैं। रुढ़ीपरंपरानुसार इस प्रकार के अनेक विचारों के गर्त में हम फँसे रहते हैं। वास्तविक तौर पर यह शगुन-अपशगुन मानना सर्वथा अनुचित ही है। सच्चा श्रद्धावान इन सब झमेलों में नहीं पड़ता है। यहाँ पर हमें एक बात ध्यान में रखनी चाहिए कि मूलत: हमें इन सभी गलत बातों पर ध्यान ही नहीं देना चाहिए। और फिर भी यदि ऐसी कोई गलत धारणा हमारे मन में आ ही जाती है तो हमें बाबा अर्थात सद्गुरु श्रीसाईनाथ का नाम लेकर उनसे प्रार्थना करनी चाहिए कि ऐसे गलत विचारों को मन से दूर निकाल फेंकने में हे भगवान मेरी मदद करना मुझे शक्ति देना। और निश्‍चिंत होकर साईस्मरण के साथ अपना काम करते रहना। चाहे कितना भी बड़ा विघ्न क्यों न आ जाये साईनाथ के आगे उसका कुछ भी नहीं चलने पाता है।

इसमें भी यदि हम किसी परमेश्‍वरी कार्य हेतु, साईदर्शनहेतु, भक्तिसेवाहेतु निकलते हैं, तब ये साई कोई भी संकट नहीं आने देते। मान लो, यदि कोई संकट आ ही जाता है तब किसी अवसर के रुप में उसका रूपांतर करके वे हमें प्रगति पथ पर चलाते ही रहते हैं। कभी-कभी तो हमें कोई घटना प्रतिकूल लगती है। कारण वह हमारे इच्छा के अनुकूल नहीं होती है। परन्तु वास्तविकता तो यही होती है कि साईनाथ ही उस घटना को अनुकूल रूप में घटित करते रहते हैं। परन्तु हमें इस बात का अंदाजा नहीं होता है। हम बस बेवजह ही बाबा से पुछते रहते हैं बाबा यह क्या हो रहा है?

हेमाडपंत के साथ भी कुछ ऐसा ही होता हैं। उन्हें ऐसा लगता है कि एक बार मन में पक्का निश्‍चय करके शिरडी जाने को जब निकल ही पड़ा हूँ तो प्रवास के आरंभ में ही यह क्या प्रतिकूल प्रश्‍न? इस यवन का अचानक गाड़ी में चढ़ना, मुझसे पुछना कहाँ जा रहे हों! क्या इस बार भी मैं शिरडी में पहुँच पाऊँगा या नहीं? पर सच में देखा जाए तो यह बाबा की ही लीला थी और  यह घटना हेमाडपंत के लिए प्रतिकूल नहीं बल्कि अनुकूल ही थी। उस यवन से हेमाडपंत ने कहा कि ‘दादर जाकर मनमाड की मेल पकड़ने वाला हूँ।’ यह सुनते ही वह यवन उनसे बोला, ‘तब तो तुम दादर में उतरो ही मत क्योंकि वह मेल दादर में रुकती ही नहीं हैं आप तो सीधे बोरीबंदर हे जाओ।’ अब हेमाडपंत की समझ में बात आयी कि यदि इस यवन से समय पर जानकारी नहीं मिलती तो, मुश्किल हो जाती। मैं दादर उतरता और मेल वहाँ पर न रुककर चली गई होती तो फिर मेरे मन में पुन: अनेक प्रकार के विचार उत्पन्न होने लगते। यही पर बाबा के प्रथम लीला की पहचान मिल गई थी हेमाडपंत को शिरडी में बुलाने के लिए बाबा ने ही ये सारी घटनाएँ घटित की। दूसरे दिन नौ-दस बजे के करीब हेमाडपंत शिरडी पहुँच गए। बाबा को उस समय हेमाडपंत को शिरडी में बुलाना ही था इसीलिए बाबा के ईश्‍वरीय योजनानुसार ये सारी घटनाएँ घटित होती गयी। हमें यहाँ पर इस बात पर ध्यान देना चहिए कि घटनाएँ चाहे जैसे भी घटित हो, चाहे जो भी हो, परन्तु मुझे बाबा का दर्शन लेना ही हैं, मुझे जाना ही है यदि इस बात की इच्छा प्रबल होगी तब बाबा मुझे अपने तक बुलाते ही हैं। सन १९१० की हेमाडपंत के शिरडी गमन की यह घटना है। १९१० में हेमाडपंत सर्वप्रथम शिरडी में गए थे। उस वक्त शिरडी में बाहरगाँव से आनेवाले साईभक्तों के रूकने के लिए केवल साठेजी का ही एक वाडा था। बाहरगाँव से आनेवाले भक्त केवल साठेजी के वाडे में ही रुकते थे। सुबह के समय हेमाडपंत शिरडी पहुँचकर ताँगा लेकर साठेजी के वाडे साठेजी के वाड़े में ही रूकते थे। सुबह के समय हेमाडपंत शिरडी पहुँचकर ताँगा लेकर साठेजी के वाडे के पास उतरे। घर से शिरडी जाने से लेकर ताँगे से उतरने तक हेमाडपंत के मन में एक ही इच्छा घर बनाये हुए थी कि ‘कब मैं बाबा के चरणों के दर्शन प्राप्त करूँगा।’ काकासाहेब दिक्षित एवं नानासाहेब चांदोरकर के मुख से बाबा के बारे में इतना कुछ सुन रखा था कि तब से ही उनके मन में साईदर्शन की उत्कंठा, चाहत बनी हुई थी। साईनाथ के दर्शन के लिए वे लालायित थे।

हमारे मन में भी इस सद्गुरु साईनाथ के दर्शन की ऐसी ही इच्छा अनिवार आकर्षण होना ही चाहिए। मुख्य तौर पर कब एक बार मैं उन चरणों के दर्शन लूँगा, उन चरणों पर माथा टेकूँगा, बाबा को लोटांगण डालूँगा, बाबा के रुप को आँखों में उतार लूँगा, इस प्रकार की उत्कंठा होनी चाहिए। भक्ति की व्याख्या करते समय नारदजी करते हैं उसीनुसार भक्ति यह ‘प्रतिक्षणवर्धमाना’ अर्थात हर पल बढ़ते रहनेवाली है। तो फिर हम इस साईनाथ की भक्ति करते हैं ऐसा यदि हम कहते हैं तो हमारी यह उत्कटता हमेशा बढ़ते रहनी चाहिए।

हेमाडपंत शिरडी में आ पहुँचे हैं। साठेवाडा के पास अपना बोरियाबिस्तार ताँगे उतरते हैंऔर उनके मन की उत्कंठा क्षणोक्षण बढ़ती ही चली जा रही थी। बाबा के दर्शन की उत्कंठा! हेमाडपंत बाबा से मिलने के लिए जितने अधिक उत्सुक थे उससे कई गुणा अधिक उत्सुक बाबा थे अपने इस लाडले भक्त से मिलने के लिए। इसीलिए तो देखिए कितनी सुंदर घटना घटित होती है! हेमाडपंत द्वारकामाई में जाकर बाबा से मिलने से पहले ही मानो बाबा ही स्वयं हेमाडपंट से मिलने हेतु साठेवाडा तक आ पहुँचे। लेंडी तक यात्रा करने हेतु उनका निकलना ये तो मानो एक निमित्त ही था! ये भगवान ही,  ये साईनाथ ही इतना भक्तवत्सल है कि मेरा लाडला भक्त कब आयेगा और कब मैं उससे मिलूँगा। इस प्रकार का उत्कट प्रेम बाबा के हृदय में उमड़ पड़ा था। हम कौन होते हैं जाकर बाबा को मिलनेवाले, ये साईनाथ ही अपने भक्तों के प्रेमवश स्वयम ही खींचे चले आते हैं। इसी सच्चाई का पता हेमाडपंत जी के प्रथम साई भेट से प्रत्यक्ष रूप में उजागर होता है।

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