तिरुचिरापल्ली भाग-३

तिरुचिरापल्ली, इतिहास, अतुलनिय भारत, रॉक फोर्ट, तमिलनाडू, भारत, भाग-३

‘रॉक फोर्ट’ के माथे पर से दूर दिखायी देनेवाले ‘श्रीरंगम्’ के गोपुर हमें बुला रहे हैं। आइए, तो चलते हैं ‘श्रीरंगम्’ और इस सफ़र में ही हम ‘श्रीरंगम्’ की जानकारी प्राप्त करेंगें।

‘श्रीरंगम्’ यह एक छोटा सा द्वीप है। आज के तिरुचिरापल्ली का वह एक हिस्सा बन गया है।

त्रिचि शहर से यानि तिरुचिरापल्ली शहर से चंद ७ कि.मी. की दूरी पर श्रीरंगम् बसा है और वह प्रमुख भूमि के साथ सड़क द्वारा सुव्यवस्थित रुपसे जुड़ा भी है ।

एक तरफ़ ‘कावेरी नदी’ और दूसरी तरफ़ उसकी शाखा रहनेवाली ‘कोल्लिडम्’ या ‘कोलेरून’ नाम की नदी इनके बीच बसा है, श्रीरंगम्।

लेकिन इस ‘श्रीरंगम्’ में ऐसी क्या खास बात है कि हम त्रिचि शहर का थोड़ा बहुत परिचय होते ही ठेंठ वहाँ जा रहे हैं।

‘दुनिया का सबसे विशाल मंदिर’ कहकर जिसे नवाज़ा जाता है, वह ‘श्रीरंगनाथजी का मन्दिर’ यहाँ हैं। ‘श्रीरंगनाथ’ यानि ‘शेषशायी स्वरूप में महाविष्णु’।

दर असल आज अस्तित्व में रहनेवाले मन्दिरों में सबसे विशाल और भव्य मन्दिर माना जाता है, ‘अंगकोर वट’ यह मन्दिर। लेकिन महत्त्वपूर्ण बात यह है कि आज इस ‘अंगकोर वट’ मंदिर में नित्य पूजन अर्चन आदि बाते नहीं होती। वहीं श्रीरंगम् के श्रीरंगनाथजी के मन्दिर में नित्य पूजा आदि उपचार होते हैं। इसीलिए भव्यता, विशालता इनके साथ साथ जहाँ भगवान की नित्य उपासना भी की जाती है, वह श्रीरंगनाथजी का मन्दिर दुनिया का सबसे बड़ा फंक्शनिंग (कार्यरत) मन्दिर माना जाता है।

ऐसे इस भव्य एवं विशाल मंदिर की ओर प्रस्थान करते हुए रास्ते में रॉक फोर्ट के माथे पर से कावेरी नदी किसी नीली रेखा के समान दिखायी देती है। जल्द ही हमें कावेरी के काङ्गी क़रीब से दर्शन होते हैं। इसी कावेरी के साथ साथ हम श्रीरंगम् पहुँच जाते हैं। तो आइए, चलते चलते कावेरी के बारें में भी कुछ बाते करते हैं।

हमारे भारत में हर नदी के प्रति, फिर चाहे वह गंगा, यमुना हो या गाँव के पास से बहनेवाली छोटीसी नदी हो, हमेशा ही पूज्य भाव रहता हैं। इतना कि नदी को ‘माँ’ की उपमा दी जाती हैं।

कर्नाटक के कोडगु जिले का ‘तलकावेरी’ यह कावेरी का उद्गमस्थल माना जाता है। वहाँ से उद्गमित हुई कावेरी, कर्नाटक और तमिलनाडु इन दो राज्यों में से बहती है। उसके इस सफ़र में कई छोटी बड़ी नदियाँ उसमें आ मिलती है और उसकी धारा को समृध्द बनाती हैं। वह अपने इस सफ़र में कई स्थानों पर बड़े ही सुन्दर जलप्रपात (वॉटरफॉल्स) का भी निर्माण करती हैं।

तिरुचिरापल्ली आने से पहले कुछ ही दूरी पर कावेरी दो जलधाराओं में बँट जाती है। उसमें से एक जलप्रवाह ‘कोलेरून’ या ‘कोलिड्डम’ नदी इस नामसे जाना जाता है; वहीं अन्य प्रवाह को ‘कावेरी’ ही कहा जाता हैं।

इन दो जलप्रवाहों के बीच जिस द्वीप का निर्माण हुआ है, वह है ‘श्रीरंगम्’ और ‘श्रीरंगम्’ के बाद आगे चलकर ये दोनों जलप्रवाह पुन: एक दूसरे में मिल जाते है और फिर वह ‘कावेरी’ आगे बहती है।

इतना दूर का सफ़र तय करनेवाली इस कावेरी के किनारों का निर्माण करने का प्रमुख कार्य ‘करिकलन्’ नाम के चोळ राजा ने किया, ऐसा कहा जाता है। पुहार से लेकर श्रीरंगम् तक इन किनारों का निर्माण किया गया है। यह कार्य लगभग सोलह सौ वर्ष पूर्व किया गया, यह माना जाता है। ये ‘करिकलन्’ राजा यानि पहले भाग में हमने जिनका ज़िक्र किया वे ‘करिकल चोळ’ नामक राजा थे, जिन्होंने कावेरी पर ‘अनिकुट’ बाँध (डॅम) बनवाया था।

यह कावेरी जिस जिस प्रदेश में से बहती जाती है, वहाँ के निवासियों की अनाज, जल आदि जरुरतों के साथ साथ बिजली (इलेक्ट्रिसिटी) की ज़रूरत को भी पूरा करती है।

हमारे भारतवर्ष में जहाँ नदी यह लोगों के दैनिक जीवन का एक अविभाज्य अंग रहा करती थी और वैसे देखा जाये तो आज भी है, उस नदी के बारे में, फिर वह चाहे बड़ी हो या छोटी, कुछ लोककथाएँ प्रचलित रहती ही हैं। ‘कावेरी’ के बारे में भी पुराणों में एक कथा कही गयी हैं।

विष्णु ने ब्रह्माजी को एक कन्या प्रदान की ओर ब्रह्माजी ने उसे संतानप्राप्ति के लिए तपस्या करनेवाले ‘कवेर’ नाम के ऋषि को प्रदान किया। ‘कवेर’ की कन्या होने के कारण उसका नाम हुआ ‘कावेरी’। कई स्थानों पर कावेरी के पिता के रूप में ‘कवेर’ इस राजा का उल्लेख भी किया गया हैं।

इस कावेरी के मन में जनकल्याण हेतु कुछ करने की इच्छा एवं लगन थी। आगे चलकर एक ऋषि के साथ उसका विवाह हुआ। लेकिन उसने ऋषि के सामने रखी हुई शर्त का उनके द्वारा उल्लंघन हो जाने के कारण उसने नदी का रूप ले लिया और वह जनकल्याण के लिए बहने लगी। वहीं, उसके विरह से वे ऋषि दुखी हो गये और इसी कारण उसने ऋषिपत्नी यह एक और रूप भी धारण कर लिया। इस तरह जनकल्याण हेतु ‘कावेरी’ प्रवाहित होती ही रही।

तिरुचिरापल्ली, इतिहास, अतुलनिय भारत, रॉक फोर्ट, तमिलनाडू, भारत, भाग-३दक्षिण में कावेरी को गंगामैया जितना ही महान एवं पवित्र मानते हैं। इसके तटपर कई तीर्थस्थल बसे हैं। दक्षिण में कावेरी की महिमा इतनी है कि कई शिलालेखों मे भी उसका उल्लेख किया गया है। साथ ही ‘तमिळ संघम्’ समय की कई साहित्यकृतियों में भी कावेरी नदी के संदर्भ में वर्णन मिलता है, जहाँ कावेरी की महिमा गायी गयी है। खास कर ‘शिलप्पधिकारम्’ नामक महाकाव्य में ‘कावेरी’ को काफ़ी सराहा गया है।

जिस तरह त्रिचि शहर पहुँचने से पहले कावेरी दो प्रवाहों में बँट जाती है, उसी तरह अन्य दो स्थानों पर भी कावेरी का विभाजन होता है। इन तीन विभाजनों के कारण तीन द्वीपों का निर्माण होता है, उनमें से एक द्वीप है ‘श्रीरंगम्’, जहाँ हम जा रहे हैं। वहीं दुसरा स्थान है ‘श्रीरंगपट्टनम्’ और तीसरा स्थान है ‘शिवसमुद्रम्’।

ये तीनों स्थान बहुत ही पावन माने जाते हैं और तींनो जगह मन्दिरों का निर्माण किया गया है। इन तीनों पावन स्थलों को आदिरंग, मध्यरंग एवं अन्तरंग कहा जाता है।

इन तीनों स्थानों पर शेषशायी विष्णुस्वरूप में श्रीरंगनाथजी के मंदिर हैं। इनमें से ‘श्रीरंगपट्टनम्’ यह ‘आदिरंग’, ‘शिवसमुद्रम्’ यह ‘मध्यरंग’ और ‘श्रीरंगम्’ यह ‘अन्तरंग’ इन नामों से जाना जाता है।

देखिए, बाते करते हुए हम ‘श्रीरंगम्’ में दाखिल भी हो गये। आप कहेंगे कि किसी गाँव के नाम का बोर्ड बिना पढ़े ही हम यह कैसे मान ले कि हम ‘श्रीरंगम्’ में दाखिल हो चुके है? इसका जबाब आसान है। श्रीरंगनाथ मंदिर के इक्कीस गोपुर और उनमें से भी सबसे बड़ा तेरा मंज़िला ‘राजगोपुर’ इस श्रीरंगम् की मेंड़ (सीमा) के पास आते ही साफ़ साफ़ दिखायी देते हैं।

इक्कीस गोपुरोंवाला, बहुत ही विशाल ऐसा श्रीरंगनाथजी का मन्दिर यही इस ‘श्रीरंगम’ की वास्तविक पहचान है। आप शायद सोच रहे होंगे कि श्रीरंगम् की इस भूमिपर सिर्फ यह एक ही मन्दिर होगा।

आठ मील लंबे और चार मील चौड़े ऐसे इस ‘श्रीरंगम्’ द्वीप की आबादी लगभग पचास हजार के आसपास है, ऐसा कहा जाता है। यह पूरी भूमि यानि ‘श्रीरंगम्’ यह शहर कुल सात चहारदीवारों में बसा है और इन्हीं सात प्राकारों में श्रीरंगनाथ स्वामी का मन्दिर भी हैं।

यहाँ के निवासियों तथा बाहर से ‘श्रीरंगनाथजी’ के दर्शन करने आनेवाले भाविकों के लिए यहाँ सभी प्रकार की सुविधाएँ उपलब्ध हैं। यहाँ के निवासियों के बच्चों की पढाई के लिए यहाँ पर स्कूल भी है।

‘श्रीरंगम्’ के बारे में यह भी पढ़ने में आया कि यहाँ से विदेशो में फूल भेजे जाते है और यहाँ के आम के बागानों में हजारों आम लगते हैं।

तो अब ‘श्रीरंगम्’ में हम जब दाखिल हो ही चुके है, तो आइए सबसे पहले ‘श्रीरंगनाथजी’ का स्मरण कर मन ही मन उन्हे वन्दन करते है और उनके दर्शन करने से पहले इस क्षेत्र का निर्माण कब और कैसे हुआ इस संदर्भ में कुछ जानकारी प्राप्त करते हैं।

विष्णुभक्तों के लिए बहुत ही पूजनीय एवं पावन रहनेवाला यह ‘श्रीरंगनाथ मंदिर’ लगभग १५६ एकर की जमीन पर बसा है। दर असल यह मंदिर कई मन्दिरों का समूह है। यहाँ प्रमुख देवता के रूप में विराजमान है, ‘श्रीरंगनाथ’ यानि शेषशायी विष्णु। साथ में यहाँ अन्य देवीदेवताओं तथा अळ्वार सन्तों के भी मंदिर हैं। विष्णुपत्नी लक्ष्मीजी यहाँ ‘श्रीरंगनायकी’ इस नाम से विराजमान हैं।

भगवान विष्णु ‘श्रीरंगम्’ की इस भूमि में कैसे प्रतिष्ठित हुए इस बारे में एक आख्यायिका विख्यात है।

कहते हैं कि एक बार तपस्या में मग्न ब्रह्माजी को भगवान विष्णु की मूर्ति – रंग विमान प्राप्त हुई और उसी समय इसी स्वरूप में धरती पर अन्य सात स्थानों पर में प्रकट होनेवाला हूँ यह भगवान ने उनसे कहा।

ब्रह्माजी से यह मूर्ति कइयों के पास जाते हुए अन्त में मनु के पुत्र ‘इक्ष्वाकु’ को प्राप्त हुई और यहीं से उनके वंश में इस ‘रंगविमान’ की यानि भगवान विष्णु की उपासना शुरु हो गयी।

रावण का वध करके श्रीराम जब अयोध्या लौटे तब उनके साथ बिभीषणजी भी थे। श्रीराम का राज्य अभिषेक होने के बाद बिभीषणजी जब लंका जाने निकले तब श्रीराम ने उन्हें यह मूर्ति दे दी। लंका जाते हुए कावेरी के तट पर बिभीषणजी रुके थे और उन्होने उस मूर्तिको वहाँ पर रख दिया। जब उन्होंने अगला स़ङ्गर शुरू किया, तब उस मूर्ति को अपने साथ ले जाने के लिए उन्होंने उसे उठाने की कोशिश की, लेकिन वह मूर्ति वहाँ से हिल ही नहीं रही थी। क्योंकि भगवान की वहाँ निवास करने की इच्छा थी। इसीलिए भगवान विष्णु ‘श्रीरंगनाथ’ इस नाम से कावेरी के तट पर चन्द्रपुष्करिणी के समीप बस गये।

इस तरह श्रीरंगनाथजी ने उनके वास्तव्य से ‘श्रीरंगम्’ की यानि ‘तिरुवरंगम्’ की भूमि को पावन कर दिया। अब इन श्रीरंगनाथजी के दर्शन करने हमें सप्ताह भर सब्र रखना होगा।

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