ग्वाल्हेर भाग – २

अब १८५७ के भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम की ज्वाला का़फ़ी भड़क उठी थी। उत्तरी भारत में हज़ारों वीर ज़ुलमी अँग्रेज़ हुकूमत के खिला़फ़ जूझ रहे थे। इस स्वतन्त्रता संग्राम में अग्रसर थे – झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई, नानासाहब पेशवा और तात्या टोपे।

इस स्वतन्त्रता संग्राम में ग्वालियर के क़िले की भूमिका का़फ़ी अहम रही है। इन क्रान्तिकारियों ने इस क़िले पर कब्जा कर लिया। ग्वालियर के क़िले पर कब्जा कर लेने के कारण दर असल इन क्रान्तिकारियों का पलड़ा का़फ़ी भारी हो चुका था; क्योंकि यह ग्वालियर का क़िला सदियों से एक अभेद्य क़िला माना जाता है। लेकिन बहुत ही थोड़े समय तक वे इसपर अपना कब्ज़ा बनाये रखने में कामयाब रहे। इसकी प्रमुख वजह है, विदेशी दुश्मन को स्वदेशी गद्दारों से मिली हुई सहायता। उस समय अँग्रेज़ों की कवायती सेना और मातृभूमि के प्रेम का जुनून जिनके सिर पर सँवार था ऐसे देशप्रेमी इनके बीच ग्वालियर के खुले मैदान में आमने सामने भिड़ंत हुई। इस क़िले के पास का मैदान रणभूमि बन गया। अँग्रेज़ों के दमनतन्त्र के खिला़फ़ क्रोधित हुई झाँसी की रानी ने इस रणभूमि पर अभूतपूर्व बहादुरी से दुश्मन का मुक़ाबला किया। उनकी तलवार आसमान की बिजली की तरह अँग्रेज़ों पर बरसी। लेकिन अँग्रेज़ों के पास रहनेवाली आधुनिक शस्त्र-अस्त्रों से लैस बड़ी सेना का मुक़ाबला मर्यादित सेनाबल एवं मर्यादित शस्त्रबल रहनेवाले क्रान्तिकारी भला कितनी देर तक कर सकते थे? और आख़िर ग्वालियर का क़िला अँग्रेज़ों के कब्ज़े में चला गया।

इसी दौरान एक दुर्भाग्यपूर्ण घटना हुई। अभूतपूर्व पराक्रम करनेवाली झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई इस रणभूमि में से दुश्मन की फ़ौज के व्यूह को तोड़कर बाहर निकलने में हालाँकि कामयाब तो अवश्य हो गयी; लेकिन दुश्मन की आधुनिक शस्त्र-अस्त्रों से लैस फ़ौज का सामना करते हुए वे का़फ़ी घायल हो चुकी थीं और यहाँ से कुछ ही दूरी पर उनकी वीरमृत्यु हो गयी।

इस तरह क्रान्तिकारियों ने अपने बल पर जीता हुआ ग्वालियर फ़िर एक बार अँग्रेज़ों के पास चला गया। अगर इस अभेद्य क़िले के साथ ग्वालियर क्रान्तिकारियों के पास रहा होता तो शायद भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम का इतिहास कुछ और ही होता; लेकिन होनी कुछ और ही थी।

इस क़िले को जीतने के बाद अँग्रेज़ों ने इस क़िले को अर्थात् साथ ही ग्वालियर को भी पुन: उसके पुराने शासकों के पास सौंप दिया। इसके बाद भारत के आज़ाद होने तक ग्वालियर के शासक शिन्दे ही रहे।

शिन्दे घराने ने स्वतन्त्रतापूर्व समय में ग्वालियर रियासत का का़फ़ी अच्छी तरह विकास किया। बड़े बाजीराव पेशवा के राणोजी शिन्दे नामक सरदार ने मालवा प्रदेश पर अपना शासन स्थापित किया। आगे चलकर महादजी शिन्दे ने उसका विस्तार किया और १९वीं सदी के प्रारम्भ में ‘ग्वालियर’ को उस राज्य की राजधानी का दर्जा दिया गया। शिन्देजी के शासनकाल में ग्वालियर एक विकासशील रियासत के रूप में उभरा। शिन्दे घराने का राज झाँसी से लेकर राजस्थान तक और चंबल से लेकर विदिशा तक फ़ैला हुआ था।

भारत की आज़ादी के बाद ग्वालियर रियासत भारतीय संघराज्य में शामिल हुआ। उस समय की कुछ अन्य रियासतें तथा राज्यों को एकत्रित कर उस प्रदेश को ‘मध्यभारत’ यह नाम दिया गया। ग्वालियर रियासत के शासक को इस प्रदेश के ‘राजप्रमुख’ के तौर पर नियुक्त किया गया और जब आगे चलकर मध्यप्रदेश राज्य का निर्माण हुआ तब ग्वालियर को मध्यप्रदेश में शामिल किया गया।

इस तरह एक क़िले के निर्माण से लेकर विस्तारित हुआ यह शहर मध्यप्रदेश का एक महत्त्वपूर्ण शहर बन गया।

ग्वालियर का क़िला यह इस शहर का हमेशा ही मध्यवर्ती स्थल रहा है; क्योंकि यहीं से ग्वालियर के शासक रियासत का कारोबार सँभालते थे। इस क़िले के आसपास ही आबादी बसती गयी। आज इस क़िले में कोई शासक नहीं रहते। आज यह क़िला सैलानियों के आकर्षण का केन्द्रस्थल है। आज का ग्वालियर का़फ़ी विस्तारित हो चुका है। इस शहर के प्रमुख तीन विभाग माने जाते हैं – १) पुराना ग्वालियर, २) लष्कर और ३) मोरार

पुराने ग्वालियर का विस्तार उस उस समय की ज़रूरतों के अनुसार हुआ है। ‘लष्कर’ इस नाम में ही उसकी ख़ासियत है। यह ग्वालियर रियासत की सेना का थाना था। ‘मोरार’ का उपयोग अँग्रेज़ों ने मिलिटरी कँटोनमेंट एरिया के रूप में किया।

प्राचीन समय से ग्वालियर यह संस्कृति और कला को विकसित करनेवाला शहर रहा है। पुराने ग्वालियर में कई बेहतरीन शिल्पों तथा वास्तुओं का निर्माण हुआ। यहाँ की मिट्टी ने मधुरतम संगीत को जन्म दिया, विकसित किया और दसों दिशाओं में फ़ैलाया। सम्राट हर्ष के शासनकाल में हालाँकि कनौज यह उसकी राजधानी थी; लेकिन सांस्कृतिक केंद्र तो ग्वालियर ही था। संगीतसम्राट के रूप में मशहूर रहनेवाले तानसेनजी के कारण तो ग्वालियर की ख्याति में चार चाँद लग गये। संगीत के विषय में थोड़ीबहुत जानकारी रखनेवालों ने यक़ीनन ‘ग्वालियर घराना’ यह गायनपरंपरा से संबंधित शब्द तो सुना ही होगा। संक्षेप में, यह शहर संगीत, कला, शिल्प इनके आश्रयस्थान के रूप में हमेशा मशहूर रहा है।

ऐसे इस सांस्कृतिक धरोहरवाले शहर में भारतीय रेल्वे ने भी अपनी एक ख़ासियत को बरक़रार रखा है। आज के भारत में दक्षिण से लेकर उत्तर तक और पूरब से लेकर पश्‍चिम तक भारतीय रेल्वे की रेलगाड़ियाँ दौड़ रही हैं। आज सब जगह ब्रॉड गेज रेल्वे कार्यरत है। लेकिन कुछ चुनिंदा हिल स्टेशन्स जाने के लिए अब भी नॅरो गेज रेल्वे कार्यरत है। ग्वालियर उन चुनिंदा शहरों में से एक है जहाँ आज भी ब्रॉड गेज रेल्वे और नॅरो गेज रेल्वे दोनों भी एकसाथ कार्यरत हैं। ग्वालियर की नॅरो गेज रेल्वे सब से ‘नॅरोएस्ट’ मानी जाती है।

इस शहर के बाहरी रंग-रूप से तो हम परिचित हो ही चुके हैं। आइए! अब चलते हैं, शहर के बीचों बीच बसे ग्वालियर के क़िले में; यह क़िला हमारे सामने एक बहुत बड़े खज़ाने के द्वार खोलनेवाला है।

३००-३५० फ़ीट की ऊँचाईवाले पहाड़ पर गत कई सदियों से यह क़िला बसा हुआ है। पुराने समय से इसकी पहचान एक अभेद्य क़िला यह रही है और इसकी वजह है, इसकी भौगोलिक स्थिति। इसकी ऊँचाई के कारण दुश्मन की सेना का कड़ा मुक़ाबला किया जा सकता है। क़िले के शिखर तक जाने के लिए पुराने समय में पूरब से ७ दरवाज़ों को पार करना पड़ता था; वहीं पश्‍चिम से मात्र २ ही दरवाज़ों को पार करना पड़ता था। लेकिन काल की कुल्हाड़ी से इन दरवाज़ों का का़फ़ी नुकसान हो चुका है। क़िले के सब से ऊपरि प्रमुख दरवाज़े का नाम है – ‘हाथी दरवाज़ा’। इस क़िले की चहारदीवारी का़फ़ी मज़बूत है और यह भी क़िले की अभेद्यता की एक और वजह है। २ मील लंबी और ३० फ़ीट से भी अधिक ऊँचाईवाली इस चहारदीवारी के भीतर कई महल और मंदिर हैं।

इस क़िले के महल और मंदिर शिल्पकला के अनोखे नमूनें माने जाते हैं। इस क़िले की एक और ख़ासियत यह है कि इस में जल आपूर्ति की बेहतरीन व्यवस्था की गयी है। क़िले में कुएँ आदि कई जलस्रोतों का निर्माण किया गया था।

इस क़िले में दर असल छ: महल हैं। उनमें से दो प्रमुख महलों के नाम है – राजा मानसिंहजी द्वारा बनाया गया ‘मानसिंह पॅलेस’ और दूसरा है ‘गुजरी महल.’

राजा मानसिंहजी द्वारा बनाया गया महल ‘मानसिंह पॅलेस’ अथवा ‘मनमंदिर पॅलेस’ अथवा ‘चित्र मंदिर’ इन नामों से जाना जाता है। यहाँ की दीवारों पर कई चित्र बनाये गये हैं। उनमें मोर, हाथी जैसे प्राणियों का भी समावेश है। सबसे महत्त्वपूर्ण बात है, यहाँ की दीवारों को दिया गया नीला रंग। इस महल के शिखरों के कारण इसकी रचना की सुन्दरता बढ़ती तो अवश्य है, लेकिन यहाँ की सुन्दरता में चार चाँद लगाता है, यहाँ की दीवारों पर लगाया गया नीला रंग। १५ वीं सदी में इस महल का निर्माण किया गया ऐसा कहा जाता है। तब से लेकर आज तक इस नीले रंग का जादू बरक़रार है। चार मंज़िलोंवाले इस महल के दालान का़फ़ी बड़े हैं। यह मानसिंह पॅलेस इस ग्वालियर क़िले की रौनक को यक़ीनन बढ़ाता है।

ग्वालियर के एक शासक ने एक गुजर कन्या के साथ विवाह किया। ‘मृगनयना’ नाम की यह कन्या बहुत ही खूबसूरत एकं बलवान भी थी। इस शासक ने फ़िर उसके लिए एक महल का निर्माण किया, जो ‘गुजरी महल’ इस नाम से जाना जाने लगा। इस मृगनयना की इच्छा के अनुसार उस शासक ने उसके ‘राई’ नामक गाँव का पानी इस क़िले तक ले आने की ख़ास व्यवस्था भी की थी।

आज कोई भी टि.व्ही. चॅनल हम देखते हैं, तो हमारी मुलाक़ात साँस-बहू की एकाद जोड़ी के साथ तो अवश्य हो ही जाती है। इस क़िले पर भी हमारी मुलाक़ात साँस-बहू की एक जोड़ी के साथ होती है। लेकिन इस जोड़ी से हम मिलेंगे, एक ‘ब्रेक के बाद’!

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