जुनागढ़ भाग-३

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कई सदियों पहले बनाये गये ‘अडी-चडी वाव’ और ‘नवघण कुआँ’ ये दो कुएँ हालाँकि आज भी रचनात्मक दृष्टि से सुस्थिति में हैं, लेकिन इनका पानी अब पीने योग्य नहीं रहा है।

‘अडी-चडी वाव’ इस कुए की लंबाई लगभग ८१ मीटर्स, चौड़ाई पौने पाँच मीटर्स और गहराई ४१ मीटर्स है और इसके जलस्तर तक पहुँचने के लिए १५० से भी अधिक पायदान उतरने पड़ते हैं।

किसी भी पुरानी वास्तु के साथ लोककथा-दंतकथा जुड़ी हुई होती है। ‘अपरकोट’ के महल और वहाँ की रानी के साथ जुड़ी हुई लोककथा-दंतकथा को हम पिछले लेख में देख ही चुके हैं। इस ‘अडी-चडी वाव’ के साथ भी दंतकथा-लोककथा जुड़ी हुई है।

इस कुए की खोदाई करने के बाद भी उसमें पानी का कोई अता पता नहीं था। अब क्या किया जाये यह सोचते हुए उस समय की लोगों की सोच के अनुसार एक ऐसा सुझाव आया कि यहाँ पर किसीके बलिदान करने की आवश्यकता है। राजमहल में काम करनेवालीं ‘अडी’ और ‘चडी’ नाम की दो बालिकाओं ने स्वयं का बलिदान किया और कहते हैं कि कुए में पानी आ गया। इस वजह से इन दो बालिकाओं की याद में इसे ‘अडी-चडी वाव’ यह नाम दिया गया।

वहीं अन्य लोककथा के अनुसार ‘अडी’ और ‘चडी’ ये राजमहल में काम करनेवालीं लड़कियाँ इस कुए से नियमित रूप से जल भरकर लाती थीं और इसीलिए उनके नाम से यह कुआँ जाना जाने लगा।

हालाँकि इन कथाओं में सत्यांश कितना है यह तो ज्ञात नहीं है, लेकिन अपने नाम के अनुसार इस कुए की रचना कुछ ख़ास है यह निश्‍चित है, इसमें कोई दोराय नहीं है।

११वीं सदी में बनाया गया ‘नवघण कुआँ’ इस ‘अपरकोट’ में ही है। चुडासामा राजवंश के नवघण-पहला इन जुनागढ़ के शासक ने उनके शासनकाल में इसका निर्माण किया।

‘अडी-चडी वाव’ और ‘नवघण कुआँ’ इनकी रचना इतनी विशेषतापूर्ण है कि स्थानीयों में एक कहावत मशहूर है- ‘अडी चडी ने नवघण कुओ, जे न जुए ई जीवतो मुवो’ यानि कि जिसने अडी-चडी और नवघण इन कुओं को नहीं देखा, वह जीवित होते हुए भी मृत समान ही है। इसमें स्थित अतिशयोक्ति छोड़ दीजिए, दर असल यह कहावत इन कुओं की ख़ासियत को बयान करती है।

तो हम बात कर रहे थे, ‘नवघण कुँए’ की। यह चौकोर आकार का कुआ भी विशाल ही है। इस कुए में उतरने के लिए १०० से अधिक पायदान उतरने पड़ते हैं। यदि इन सीढ़ियों को उतरते या चढ़ते हुए थक जाते हैं तो यहाँ पर बैठने की व्यवस्था भी की गयी है। साथ ही हवा और रोशनी में अवरोध न हो, इसका भी ध्यान रखा गया है।

संक्षेप में, ‘अपरकोट’ जाने के बाद इन दो कुओं को अवश्य देखना चाहिए।

जुनागढ़ के इतिहास में कई राजकीय परिवर्तन हुए। इसी दौरान जुनागढ़ और अपरकोट की सुरक्षा के लिए यहाँ पर दो तोपें लायी गयीं। इनमें से एक तोप का वज़न लगभग १ टन है। १५ फीट लंबाई की इस तोप का निर्माण पंचधातुओं से किया गया है और इसका नाम है- ‘नीलम’। वहीं दूसरी तोप का नाम है- कडानाल। नीलम नाम की तोप १६वीं सदी के पूर्वार्ध में इजिप्त में बनायी गयी है।

इस युद्धकालीन सामग्री को देखने के बाद आइए अब गुफा की ओर बढ़ते हैं। इस अपरकोट क़िले में बुद्धकालीन गुफा है। यह गुफा दो-तीन मंज़िला रचना है और यहाँ पर भी रोशनी एवं हवा के आने में अवरोध न हो ऐसी व्यवस्था की गयी है। छत को सहारा देनेवाले खूबसूरत स्तंभ, पत्थर में तराशे गये आसन, सैरसपाटा करने के लिए वरांडा, एक मंज़िल से दूसरी मंज़िल तक जाने के लिए बनायी गयी सीढ़ियाँ और कुंड यहाँ पर आप देख सकते हैं। शायद यह गुफा किसी समय किसीका आवास रही होगी!

सारांश, यह अपरकोट क़िला विभिन्न समय की और विभिन्न प्रकार की वास्तुरचनाओं का एक संमेलन ही है, ऐसा कहने में कोई हज़र्र् नहीं है।
अपरकोट क़िले की मनचाही सैर करने के बाद अब पुन: जुनागढ़ शहर की ओर अपना रुख करते हैं। यह शहर अपनी ख़ासियतों और विभिन्न रचनाओं के साथ आज भी शान से खड़ा है।

जुनागढ़ एक और कारण से भी मशहूर है। वहाँ पर मिलनेवाली आम की एक ख़ास किस्म के लिए। साधारण रूप से आम यह अधिकांश भारतीयों का पसंदीदा फल है। उसमें भी उसकी कई किस्में और हर किस्म के आम के स्वाद की अपनी एक अनोखी ही ख़ासियत। आम के इन प्रकारों में से एक है, ‘केसर कैरी’ इस नाम से जाने जानेवाला आम। ‘केसर’ इस नाम से ही आप यह जान गये होंगे की यह केसरिया रंग का आम है। बहुत ही मिठास भरा यह आम जुनागढ़ की अपनी ख़ासियत है।

जुनागढ़ के शासकों ने अपने अपने शासन काल में जुनागढ़ की खूबसूरती को बढ़ाने की कई कोशिशें कीं और इन्हीं कोशिशों के कारण यहाँ पर कई विशेषतापूर्ण वास्तुओं का निर्माण किया गया।

नवाबों के शासनकाल के जुनागढ़ को देखना हो, तो ‘दरबार हॉल’ को अवश्य देखना चाहिए। आज दरबार हॉल यह एक म्युज़ियम है। नवाबों की हुकूमत में बनायी गयी वास्तु में ‘दरबार हॉल म्युज़ियम’ की स्थापना की गयी है।

‘दरबार’ कहते ही हमारे मन के सामने आ जाता है किसी शासक का दरबार, जहाँ केंद्रस्थान में सिंहासन पर प्रमुख शासक विराजमान है और उसके दोनों तऱङ्ग पदज्येष्ठता के अनुसार बैठे हुए दरबार के सदस्य। आज का यह दरबार हॉल भी एक दरबार ही है; लेकिन इन्सानों का नहीं, बल्कि इतिहास में उपयोग में लायी गयी कई वस्तुओं का दरबार। शाही ठाठ, वैभव इनजैसे शब्दों का प्रयोग हम कई बार करते हैं। दरबार हॉल में हम इन शब्दों को प्रत्यक्ष में अनुभव कर सकते हैं।

इस दरबार में चाँदी की कुर्सियाँ, चाँदी का सिंहासन हम देख सकते हैं। चाँदी की इन कुर्सियों और सिंहासन पर बैठने के लिए नरम नरम आसनों की व्यवस्था की गयी है। छत में लगाये गये विशाल झाड़-फ़ानूस और बड़ी ही कलात्मकता से बुने गये खूबसूरत ग़ालीचें इस दरबार की शोभा बढ़ाते हैं।

चाँदी, काँच इनसे बनी कई वस्तुओं के साथ ही यहाँ पर कीमती घ़डियों को भी देख सकते हैं।

पुराने समय के शासक हाथी पर सवार होकर सफ़र करते हुए जिस ख़ास अम्मारी में बैठते थे, जिन्हें ‘हौदा’ भी कहा जाता था, उन्हें भी आप यहाँ पर देख सकते हैं। ये हौदें कोई मामूली नहीं हैं, बल्कि इनका निर्माण चाँदी से किया गया है और कहा जाता है कि इनपर चढ़ने के लिए उपयोग में लायी जानेवाली सीढ़ियाँ भी चाँदी की बनी थीं। आज के महँगाई के ज़माने में शो-केस की उस तऱङ्ग दिखायी देनेवाली चाँदी जब दरबार हॉल जैसे म्युज़ियम में आसानी से दिखायी देती है, तब अवश्य ही नैनों को सुकून मिलता है। ख़ैर, अब म्युज़ियम के अगले संग्रह की ओर रुख करते हैं।

यहाँ का अगला संग्रह है, शस्त्रों का। युद्ध में उपयोग में लाये जानेवाले विभिन्न प्रकार के शस्त्र और अस्त्र यहाँ पर रखे गये हैं ताकि हमें उनकी जानकारी मिल सके।

अब आगे है, चित्रों का विभाग। इसमें तैलचित्र (ऑईल पेंटिंग्ज्स्) और छायाचित्र (फोटोग्राफ्स) ऐसे दो प्रकार हैं। यहीं पर जुनागढ़ के विभिन्न शासकों के साथ चित्र रूप में परिचय होता है। जुनागढ़ के अन्तिम शासक को कुत्तों से बहुत प्यार था ऐसा कहा जाता है। उनके पास ८-१० नहीं, बल्कि कुल मिलाकर ८०० से भी अधिक श्‍वान थे, ऐसा कहा जाता है और हर एक कुत्ते की ख़ास देखभाल भी की जाती थी। इतना ही नहीं, इनमें से एक कुत्ते की शादी भी बड़ी धूमधाम से की गयी और एक कुत्ते के मरने के बाद विधिपूर्वक मातमपुर्सी भी हुई थी।

तो ऐसा है यह दरबार हॉल म्युझियम, इतिहास को फिर एक बार साकार करनेवाला।

दरबार हॉल से अब आगे बढ़ते हैं, ‘सक्कर बाग़’ की ओर। बाग़ कहते ही आपने सोचा होगा कि यहाँ पर हमें यक़ीनन पत्तें, फूल, प्राणि आदि देखना होगा।

१९वीं सदी में स्थापित हुआ यह ‘सक्कर बाग चिड़ियाघर’ यानि कि ‘झू’, यह गुजरात का सबसे पुराना चिड़ियाघर है। जुनागढ़ के शासकों ने ‘आशियाई सिंहों’ की प्रजाति को बचाने के लिए इसकी स्थापना की थी, ऐसा कहा जाता है।

इस चिड़ियाघर में आशियाई सिंहों का प्रजनन किया जाता है और उसके बाद उन्हें अन्य चिड़ियाघर में भेज दिया जाता है। इस उपक्रम के कारण आज आशियाई सिंहों की प्रजाति नष्ट होने से बच गयी है।

इस चिड़ियाघर में हजारों के आसपास वन्य जीव हैं और कुल मिलाकर ५० से भी अधिक प्रकार की किस्में हैं। इनमें पहला नंबर है, सिंहों का। साथ ही बाघ, हाथी इन जैसे प्राणियों के साथ साथ दुर्लभ ऐसे फ्लेमिंगो पक्षियों का भी यहाँ पर बसेरा है।

यहीं पर एक पुराणवस्तु संग्रहालय भी है, जिसमें कई दुर्लभ हस्तलिखितों के साथ साथ कई प्राचीन वस्तुओं का संग्रह भी किया गया है। इतिहास संशोधकों के लिए यह संग्रहालय एक अनमोल खज़ाना ही है।

चलिए, जुनागढ़ शहर की सैर तो कर ली। अब कहाँ चलें? गीर, सोमनाथ चलें या गिरनार चढ़ने के लिए निकल पड़ें?

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