कन्याकुमारी भाग -३

कन्याकुमारी के समुद्री तट से दिखायी देनेवाली दूसरी बात है, एक भव्य पुतला, जिसका निर्माण समुद्र में विद्यमान दूसरी बड़ी शिला पर किया गया है। यह पुतला है, ‘तिरुवल्लुवर’ नामक तमिल संतकवि का।

Vivekananda_Rock_Memorial

इस पुतले ऊँचाई कुल १३३ फ़ीट है। इस पुतले की ऊँचाई को जानकर ही आपको इसकी विशालता का अंदाज़ा तो आ ही गया होगा।

‘तिरुवल्लुवर’ ये एक तमिल संतकवि थे और उन्होंने ‘तिरुक्कुरल’ नामक रचना की, यह जानकारी उपलब्ध है। लेकिन उनके संदर्भ में अधिक जानकारी उपलब्ध नहीं होती। इतिहास अन्वेषकों के मत के अनुसार इनका समय इसवी पूर्व २ री सदी से लेकर इसवी ८ वी सदी के बीच का हो सकता है।

इस पुतले की ऊँचाई १३३ फिट होने का भला क्या कारण हो सकता है? इसका कारण यह है कि इन तिरुवल्लुवर द्वारा रचित ‘तिरुक्कुरल’ में १३३ प्रकरण (चॅप्टर्स) हैं और इसी कारण यह पुतला कुल १३३ फीट की ऊँचाई का बनाया गया है। दरअसल इतने ऊँचें पुतले का समुद्र में निर्माण करना, यह बहुत ही कठिन कार्य है, क्योंकि इस पुतले का निर्माण पत्थर से किया गया है और इसका कुल वजन है, ७००० टन।

इसका निर्माणकार्य सितम्बर १९९० में शुरू हुआ और लगभग १० सालों बाद जनवरी २००० में पूरा हो गया। इस पुतले के चेहरे की लंबाई १९ फिट है और चेहरे के विभिन्न विभाग यानि कि नाक, कान, आँखें, माथा आदि का निर्माण विभिन्न पाषाणों में से हाथों से किया गया है। इस पुतले का निर्माण इन तीन स्थानों पर किया गया – कन्याकुमारी, अंबसमुद्रम् और शंकरपुरम्। फिर इन स्थानों पर निर्मित अलग अलग हिस्सों को एक साथ जोड़कर संपूर्ण पुतले का निर्माण किया गया। इस पुतले का निर्माण यह रचनाशास्त्र का एक अजूबा है, ऐसे कहा जा सकता है।

इस पुतले के विषय में दो महत्त्वपूर्ण बातों का जिक़्र यहाँ पर अवश्य करना चाहिए। पहली बात यह है कि यह पुतला सिर से लेकर पाव तक अंदर से पूरी तरह पोला है और दूसरी बात यह है कि इस पुतले का निर्माण करनेवाले स्थापत्यकार ने उसे इस प्रकार बनाया है कि किसी भी अनपेक्षित तीव्रता के भूकंप से भी इस पुतले की किसी भी प्रकार की क्षति न हो।

इस पुतले की कुल १३३ फिट ऊँचार्ई में से पुतले की वास्तविक ऊँचाई ९५ फिट है और ३८ फ़ीट के चबूतरे पर यह खड़ा है। यह ३८ फ़ीट का चबूतरा प्रतीक है, तिरुक्कुरल इस रचना के प्रथम विभाग में विद्यमान ३८ प्रकरणों (चॅप्टर्स) का; इसका अर्थ यह है कि चबूतरे की यह ऊँचाई उन ३८ प्रकरणों का प्रतिनिधित्व करती है।

चलिए, अब जरा समुद्र के किनारे की ओर रूख करते हैं। कन्याकुमारी के पास ही सागरी तट पर १८ वीं सदी में एक क़िले का निर्माण किया गया। इस क़िले का नाम है, ‘वट्टकोटाई फोर्ट(क़िला)’। ‘वट्ट’ इस शब्द का अर्थ है, गोल आकार का। अर्थात् संक्षेप में कहा जाये तो इस क़िले का आकार गोल है।

कन्याकुमारी जब त्रावणकोर राज्य का एक हिस्सा था, तब सागरी सीमाओं की सुरक्षा की दृष्टि से तथा सेना के निवासस्थान के रूप में, इस क़िले का निर्माण किया गया।

यह क़िला कन्याकुमारी से लगभग ७ कि. मी. की दूरी पर है। समुद्र के समीप होने के कारण इस क़िले पर से सुंदर समुद्री दृश्य का दिखायी देना, यह तो स्वाभाविक ही है।

‘युस्टाशियस-द-लेनॉय’ नामक अधिकारी के मार्गदर्शन में इस क़िले का निर्माण किया गया, ऐसा कहा जाता है। द-लेनॉय पहले डचों के नाविक दल का अधिकारी था, जो आगे चलकर त्रावणकोर के शासक मार्तंड वर्मा के अधिपत्य में काम करने लगा। त्रावणकोर राज्य की सागरी सीमाओं की सुरक्षा करने के उद्देश्य से इस क़िले का निर्माण किया गया था।

इस क़िले का निर्माण ग्रॅनाइट के पत्थरों से किया गया है। आज क़िले की हालत पहले जैसी नहीं रही है, मग़र भारतीय पुरातत्त्व विभाग ने अब यहाँ पर पुनर्निर्माण का कार्य शुरू कर दिया है।

कन्याकुमारी की भौगोलिकता पर ग़ौर किया जाये, तो यह बात समझ में आ जाती है कि समुद्री तट पर होने के कारण यहाँ पर सागरी संपदा विपुल मात्रा में और बड़ी आसानी से प्राप्त होती है। इस सागरी संपदा में समावेश होता है, मछलियों का और समुद्र में पाये जानेवाले विभिन्न प्रकार के शंखों और सीपों का। इसी कारण कन्याकुमारी में जगह जगह बहुत बड़ी मात्रा में शंखों और सीपों से बनायी गयी विभिन्न आकर्षक ची़जें दिखायी देती हैं।

महात्मा गांधीजी के पार्थिव की रक्षा का समुद्र में विसर्जन करने से पहले उसे भारत में जहाँ जहाँ दर्शन के लिए रखा गया था, उनमें से एक स्थान कन्याकुमारी भी था। आज वह स्थान ‘गांधी मेमोरियल’ इस नाम से जाना जाता है। कहा जाता है कि इस गांधी मेमोरियल की रचना कुछ इस प्रकार से की गयी है कि गांधी जयंती के पर्व पर अर्थात् २ अक्तूबर को सूरज की पहली किरन उस स्थान को स्पर्श करती है, जहाँ पर गांधीजी की रक्षा को दर्शन के लिए रखा गया था।

हमने जब कन्याकुमारी के नामकरण की कथा देखी थी, तब हमने देखा था कि भगवान शंकर कुमारी देवी के साथ शादी करने के लिए आ रहे थें और जब वे ‘शुचीन्द्रम्’ नामक क्षेत्र तक आ पहुँचे, तब मुर्गे ने बांग दे दी और विवाह का मुहूर्त टल गया यह सोचकर भगवान शंकर और कुमारी देवी का विवाह संपन्न ही नहीं हो सका।

इस ‘शुचीन्द्रम्’ नामक स्थान पर एक अत्यधिक सुन्दर मन्दिर है। इस मंदिर की कई विशेषताएँ है, साथ ही यह मंदिर शिल्पकला के लिए विख्यात है।

चलिए, तो फ़िर इस मंदिर की विशेषताएँ देखते देखते ही आगे बढ़ते है।

यहाँ के मुख्य मंदिर में ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश इन त्रिमूर्ति की स्थापना लिंग रूप में की गयी है। इन त्रिमूर्ति के लिंग पर नाग के फन का छत्र है और उसमें चंद्र की सोलह कलाएँ विद्यमान है। इस मंदिर की दूसरी एक विशेषता या फिर हम उसे स्थापत्य शास्त्र का अजूबा कह सकते है, वह है – एक अखंड पाषाण में से तराशी गयी ‘आंजनेय’ अर्थात् ‘हनुमानजी’ की २२ फिट ऊँची मूर्ति।

इस मंदिर में लगभग ७ स्तंभ ऐसे हैं, जिन पर आघात करने से संगीत के स्वरों का उनमें से निर्माण होता है। अलंकार मंडप में विद्यमान इन स्तंभों को स्वतंत्र पत्थरों में से तराशा गया है। इनमें से किसी स्तंभ में से तानपुरे की, किसी में से मृदंग की, किसी में से सितार की तो किसी में से जलतरंग की ध्वनि सुनायी देती है। ये संगीत-स्तंभ इस बात की गवाही देते हैं कि उस समय के शिल्पशास्त्र एवं वास्तुशास्त्र ने किस बुलंदी को छू लिया था। यहाँ के नंदी की लंबाई १३ फिट है।

यह मंदिर उस पर की गयी ऩक़्क़ाशी के लिए मशहूर है। इस तरह के लगभग १०३५ स्तंभ यहाँ पर हैं। इस मंदिर का गोपुर सात मंज़िला है। इस मंदिर का निर्माण विभिन्न कालखंडों में किया गया है, ऐसी जानकारी इतिहास से प्राप्त होती है। यह मंदिर भारतीय शिल्पकला का एक अनोखा उदाहरण है।

जिस त्रावणकोर राज्य का कन्याकुमारी यह एक हिस्सा था, उस राज्य की राजधानी थी, ‘पद्मनाभपुरम्’। यह पद्मनाभपुरम् कन्याकुमारी के पास ही है और यहाँ पर विद्यमान पॅलेस आज भी का़फ़ी अच्छी स्थिती में है, जो ‘पद्मनाभपुरम् पॅलेस’ इस नाम से जाना जाता है। इसका निर्माण साधारणत: १६०१ में ‘इरावी पिल्लई इरावीवर्मा कुलशेखर पेरुमल’ नामक शासक ने किया।

यह पॅलेस केरलीय शैली के वास्तुशास्त्र का एक उत्तम उदाहरण है। इस राजमहल को देखने के बाद उसकी सुंदरता को बयान करनेवाला एक ही शब्द कहता है- ‘ख़ूबसूरत’।

इस पॅलेस में कई विभाग एवं वास्तुएँ विद्यमान हैं और आज भी वे का़फ़ी अच्छी स्थिति में हैं।

मंत्रशाला, थाई कोट्टारम्- राजमाता का महल, नाटकशाला, थेकी कोट्टारम्- दक्षिणी दिशा में स्थित महल; इन सबके साथ ही चार मंज़िला प्रमुख वास्तु का समावेश भी इस पॅलेस में होता है। इनमें से मंत्रशाला की यानि कि मंत्रियों के साथ मंत्रणा करने के लिए राजा के ख़ास स्थान की ज़मीन कुछ ख़ास पद्धति से बनायी गयी है। इसके निर्माण में जले हुए नारियल की करोटियाँ, अंडे का स़फ़ेद भाग तथा अन्य चीज़ों का उपयोग किया गया हैं। इस पॅलेस में ६४ प्रकार की औषधि वनस्पतियों की लकड़ी से बनाया गया एक पलंग भी है। डच व्यापारियों ने राजा को यह पलंग उपहारस्वरूप दिया था। यहाँ की ३०० साल पुरानी घड़ी आज भी चल रही है।

१८ वीं सदी के अंत में त्रावणकोर की राजधानी स्थलांतरित कर दी गयी और इस पॅलेस में रहनेवाले राजपरिवार के सदस्य भी नयी राजधानी में जाकर बस गयें, मग़र आज पर्यटक इस पॅलेस में जाकर इसे देख सकते हैं।

समुद्र की लहरें कहाँ से आती हैं और कहाँ जाती हैं, यह तो कोई भी नहीं जानता। लेकिन कन्याकुमारी के तट पर ये लहरें आती है, उन देवी कुमारी को अभिवादन करने के लिए, जो उनके रहस्य को जानती हैं।

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