ग्वाल्हेर भाग – १

मध्यप्रदेश, भारत में मध्यवर्ति स्थान पर बसा हुआ प्रदेश। मध्यप्रदेश का नाम लेते ही याद आती है, इंदौर, जबलपुर, माहेश्‍वरी, चंदेरी इनकी और इन्हीं के साथ और एक नाम याद आता है, ‘ग्वालियर’।

स्कूल में इतिहास में कई बार इस शहर का परिचय मात्र हो चुका था। आगे चलकर यह बात ध्यान में आयी कि हमारे भारत के स्वतंत्रतापूर्व इतिहास में इस शहर का का़फी योगदान रहा है।

दरअसल किसी भी शहर को, शहर यह आकार और रूप प्राप्त होने से पहले विकास और विस्तार के कई पड़ावों से गु़जरना पड़ता है। अधिकांश बार हर एक शहर किसी एक छोटे गाँव के रूप में ही पहले जन्म लेता है और ङ्गिर धीरे धीरे उस गाँव में बसनेवालों की आबादी बढ़ती जाती है, उस गाँव की सीमाओं का धीरे धीरे विस्तार होते जाता है और देखते ही देखते वह इतना बड़ा बन जाता है कि उसे शहर कहा जाता है।

हर शहर या गाँव की अपनी कुछ ख़ासियत होती है। कभी वह भूगोलीय होती है, कभी ऐतिहासिक, कभी वहाँ के पोषाक़ से जुड़ी हुई या कभी वहाँ की खाने की ची़जों के बारे में।

ग्वालियर की भी अपनी एक ख़ासियत है और वह है, यहाँ के पहाड़ी पर बसा हुआ क़िला। लेकिन इस क़िले और शहर का निर्माण किसने और कब किया, इसके बारे में कोई प्रमाण नहीं प्राप्त होते।

मध्यप्रदेश

इस क़िले और नगर के विषय में एक दन्तकथा प्रचलित है। इस पहाड़ी के पास ‘कुन्तलपूर’ नाम का एक नगर था। वहाँ सूरजसेन नाम का कछवाहा राजवंश का राजा शासन कर रहा था। बदक़िस्मती से वह कुष्ठरोग से पीड़ित था। एक बार जब वह इस पहाड़ी पर शिकार करने गया था, तब उसे जोरों की प्यास लगी। पानी ढूँढ़ते हुए उसकी एक साधु से मुलाक़ात हुई और उसने राजा को एक तालाब दिखाया। उस तालाब के पानी से राजा की प्यास तो बूझ ही गयी, साथ ही अचरज की बात यह हुई कि राजा का कुष्ठरोग भी चला गया। अपनी प्यास बुझानेवाले और साथ ही अपने रोग का नाश करनेवाले साधु के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने के लिए राजा ने उसकी सेवा करने की इच्छा जाहिर की। उसपर उस साधु ने राजा से उस तालाब का विस्तार करने के लिए कहा। उसके अनुसार फिर राजा ने केवल तालाब का ही विस्तार नहीं किया, बल्कि उस पहाड़ी पर एक क़िले का निर्माण भी किया और उस क़िले का नाम रखा – ‘ग्वालियर’। उस राजा को मदद करनेवाले साधु का नाम था ‘ग्वालिप’ और उसके प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने के लिए राजा ने इस क़िले का नाम ‘ग्वालियर’ रखा। जिस तालाब के पानी से राजा की प्यास बूझी थी और उसकी बीमारी नष्ट हुई थी, उस तालाब का नाम उस साधु ने ‘सूरजकुंड’ रखा।

पुराने जमाने में यह स्थान ‘गोपालकक्ष’ के नाम से जाना जाता था, ऐसी एक राय है। प्राचीन शिलालेखों और साहित्य में इस क़िले को गोपाचल, गोपगिरी, गोपाद्री आदि नामों से सम्बोधित किया गया है। संक्षेप में, इस स्थान के नाम में ‘गोप’ यह शब्द प्रमुख रूप से दिखायी देता है। शायद यह गोपों का यानि कि गोपालों का प्रदेश होगा, ऐसा अँदा़जा हम लगा सकते हैं।

गोप अथवा गोपाल के लिए ‘ग्वाल’ यह भी एक शब्द है और इसी ‘ग्वाल’ शब्द से इस क़िले का और उसके आसपास के स्थान का ‘ग्वालियर’ इस प्रकार नामकरण हुआ होगा।

सारांश यह है कि गोप, ग्वाल ऐसा परिवर्तन होते होते इस शहर का नाम ग्वालियर हुआ।

इस शहर के निर्माण की भले ही ऐसी कहानी हो, लेकिन यहाँ और आसपास के प्रदेश में का़फी पुराने समय से यानि कि मानवीय विकास अवस्था के काल में भी मानवीय आबादी होने के कुछ प्रमाण प्राप्त होते हैं। इनमें से पहला प्रमाण है, इन प्रदेशों की गुफाओं में मानव द्वारा अंकित चित्र। ये चित्र अश्मयुग के मध्यकाल के माने जाते हैं। साथ ही, यहाँ किये गये उत्खनन में कुछ बर्तन प्राप्त हुए हैं, जो लोहयुग – जब बर्तन बनाने में लोहे का इस्तेमाल किया जाने लगा, उस समय के है।

किसी भी छोटे से गाँव या प्रदेश का शहर में रूपान्तरण होने की प्रक्रिया इतिहास के माध्यम से उजागर होती है। जब मनुष्य लिखना नहीं जानता था, तब मौखिक परम्परा द्वारा कईं बातों का जतन किया जाता था। आगे चलकर जब मनुष्य को लेखनकला का ज्ञान हुआ, तब वह इतिहास की सबसे बड़ी उपलब्धी साबित हुई। शिलालेख, ताम्रपट, दानपत्र आदि के माध्यम से एकाद स्थान का इतिहास ज्ञात होने लगा।

इसवी छठी सदी में यहाँ पर ‘गुप्त’ राजवंश का शासन था। उससे भी पूर्व दूसरी सदी में यहाँ पर ‘नागवंश’ का शासन था। आगे चलकर यहाँ पर मिहीर कुल की सत्ता स्थापित हुई। उस समय इस क़िले पर मिहीर कुलवंशियों का अधिकार था। इसी दौरान यह क़िला जिस पहाड़ी पर स्थित था, वहाँ सूर्यमंदिर बनाया गया। इस सूर्यमंदिर में प्राप्त शिलालेख में इस क़िले का वर्णन आता है। इस क़िले में स्थित चतुर्भुज मंदिर के दो शिलालेखों से ऐसी जानकारी प्राप्त होती है कि यह क़िला प्रतीहार वंश के राजा ‘मिहीर भोज’ के राज्य में था। ये शिलालेख ९वीं सदी के हैं। इससे यह समझ में आता है कि ९वीं सदी के पहले से ही इस क़िले का अस्तित्व था। इसी कारण यह क़िला बहुत ही प्राचीन माना जाता है। आगे चलकर १०वीं सदी में यहाँ ‘धंग’ नामक चंदेल राजवंश के राजा का शासन था।

१०वीं सदी के अन्त में कछवाहा राजवंश के ‘वज्रदामन’ नामक राजा ने इस क़िले को जीता और वहाँ अपनी स्वतन्त्र हुकूमत स्थापित की। कछवाहा राजवंश का ग्वालियर पर लगभग दो सदियों तक शासन रहा। यही ग्वालियर का वैभवशाली समय था। इसी दौरान यहाँ पर कलाओं और विद्याओं का विकास हुआ और कई नयी वास्तुओं के निर्माण से ग्वालियर की सुन्दरता में चार चाँद लग गये।  कछवाहा राजवंश की यहाँ पर दो सदियों तक अबाधित रह चुकी स्थिर सत्ता, यह इसका एक महत्त्वपूर्ण कारण है, क्योंकि राजकीय स्थिरता के बिना किसी भी राज्य का अपेक्षित विकास नहीं हो सकता। दूसरा कारण है, यहाँ के शासकों द्वारा ज्ञान तथा कला के विकास में दिया गया योगदान। ग्वालियर का क़िला यह एक बेमिसाल क़िला माना जाता है और इस क़िले में स्थित कई वास्तुओं का निर्माण कछवाहा राजाओं के शासनकाल में हुआ है।

१३वीं सदी के पूर्वार्ध में यहाँ विदेशी आक्रमण हुआ। ‘इल्तुमिश’ ने इस क़िले को जीतकर यहाँ के राजाओं का संहार किया और आगे चलकर यह प्रदेश विदेशियों के कब़्जे में चला गया। लेकिन इसी दरमियान तैमूरलंग ने दिल्ली पर आक्रमण कर सुलतान महमूद को परास्त किया। इस घटना के कारण उत्तरी भारत में का़फी कुहराम मच गया। इसी स्थिति का फायदा उठाकर तोमर राजवंश के ‘वीरसिंहदेव’ नामक राजा ने विदेशियों के चँगुल से इस क़िले को जीत लिया और फिर एक बार ग्वालियर पर स्वकीयों का शासन स्थापित हुआ। इस तोमर राजवंश का ग्वालियर पर १०० वर्षों से भी अधिक समय तक शासन रहा।  उन्हींके शासनकाल में ग्वालियर का वैभव फिर से एक बार बुलँदी पर चढ़ गया। इसी दौरान यहाँ पर कई शिल्पों का निर्माण हुआ।

जब ग्वालियर पर इस तोमर वंश का शासन था, तब यहाँ एक से बढ़कर एक राजा हुए। उनमें डोंगरसिंह, मानसिंह आदि राजाओं के नाम लिये जाते हैं। इनमें से मानसिंह ये तोमर राजवंश के सर्वश्रेष्ठ राजा माने जाते हैं। उन्होंने ग्वालियर को एक बेहतरीन नगर बनाया। शिल्पकला, स्थापत्यकला, संगीत आदि को प्रोत्साहित करनेवाले और उसमें दिलचस्पी रखनेवाले राजा मानसिंह ने ग्वालियर को एक सामर्थ्यशाली नगर भी बनाया।

लेकिन मानसिंह की मृत्यु से यह पूरा चित्र ही बदल गया। यह क़िला फिर से एक बार विदेशियों के कब़्जे में चला गया। इस दौरान इस नगरी की सुन्दरता बढ़ानेवालीं कई मूर्तियो तथा शिल्पों का का़फी नुकसान हुआ। आगे चलकर शेरशहा सूर ने क़िले को जीत लिया।

१६वीं सदी के मध्य के बाद अकबर ने ग्वालियर पर अपनी हुकूमत स्थापित की, जो कि आगे की लगभग दो सदियों तक चली। इस दौरान इस क़िले का उपयोग मुख्य तौर पर कैदखाने के रूप में किया गया। कई राजकीय बंदियों को यहाँ पर रखा गया था। सारांश, इस नगर की सुन्दरता कइयों के लिए बंदिवास बन गयी।

इन दो सदियों के बाद इतिहास ने एक अलग ही मोड़ ले लिया। १८वीं सदी के मध्य तक मराठों ने इस क़िले को जीत लिया। दख्खन से अटक (उत्तरी भारत का एक शहर) के उस पार झंड़ा गाड़ने चले मराठों ने यहाँ की विदेशी सत्ता को ख़त्म किया। इसवी १७७७ में पेशवा ने ग्वालियर का शासन ‘महादजी शिंदे’ के हाथों सौंप दिया। लेकिन दुर्भाग्यवश तब तक और एक विदेशी शत्रु भारत में अपना डेरा जमाने आ चुका था। ‘डिव्हाईड अँड रूल’ इस तत्त्व का आधार लेकर भारत को निगलने आये अँग्रे़जों के एक मेजर ने इस क़िले पर कब़्जा किया और फिर उसे गोहद के राजा को सौंप दिया।

लेकिन दो वर्षों बाद शिंदेजी ने फिर से एक बार इस क़िले को जीतकर ग्वालियर पर अपना शासन स्थापित किया। यहाँ से आगे ‘शिंदेजी का ग्वालियर’ यह समीकरण दृढ़ हुआ, जो भारत की आ़जादी तक क़ायम रहा।

इस क़िले ने इतने सालों में कई चढ़ाव उतार देखे, लेकिन उससे सम्बन्धित एक अविस्मरणीय घटना घटी – इसवी १८५७ के स्वतन्त्रतासंग्राम में; दरअसल इसी घटना से इस क़िले का नाम भारतीय स्वतन्त्रतासंग्राम में अंकित हुआ।

समय था, इसवी १८५७ का। पूरे देश में अँग्रे़जो के खिला़फ असन्तोष की पहली चिंगारी भड़क उठी थी। अब स्वतन्त्रतासंग्राम का यह यज्ञकुण्ड का़फी धधक चुका था और ह़जारों वीर इस यज्ञकुण्ड में समर्पण के लिए मानों एक पैर पर खड़े थे – केवल अपनी मातृभूमि – भारतभूमि की स्वतन्त्रता के लिए और इसी दौरान इन वीरों ने ग्वालियर के क़िले पर कब़्जा किया। फिर आगे क्या हुआ?

काश इस क़िले की ज़ुबान होती! तो वह हमें चीखचीखकर बताता….हाँ, मैंने देखा है झाँसी की रानी को, तात्या टोपेजी को और नानासाहब पेशवा को….

Leave a Reply

Your email address will not be published.