श्रीसाईसच्चरित : अध्याय – २ (भाग – ५०)

शिरडी में साईनाथ से हुई अपनी पहली मुलाक़ात की कथा बताते समय हेमाडपंत सर्वप्रथम साईनाथ की चरणधूलि-भेंट का वर्णन करते हैं। साई के चरणस्पर्श से, दर्शन से एवं बाबा की चरणधूल में लोटकर लोटांगण करने से उन्हें किस तरह अद्भुत आनंद की प्राप्ति हुई, इस बात का वर्णन भी वे करते हैं। बाबा की इस चरणधूलभेंट से ही मुझे नये जीवन की प्राप्ति हुई, उसी पल से मेरे नये जीवन का आरंभ भी हुआ, यह बात भी वे पूरे विश्‍वास के साथ कह रहे हैं। अब जब नया जीवन प्राप्त हुआ है, तब नाम भी तो नया होना चाहिए, है ना! इसीलिए वे इस बात का उल्लेख करते हुए कहते हैं कि बाबा ने उनका ‘हेमाडपंत’ यह नामकरण कैसे किया इसकी कथा मैं अब बता रहा हूँ।

आते ही शिरडी में पहले दिन। बालासाहब भाटे के साथ।
आरंभ हुआ वाद-विवाद (बहस) का। क्या है गुरु की आवश्यकता॥ 

शिरडी में आते ही पहले ही दिन हेमाडपंत की बालासाहेब भाटे के साथ बहस हुई। वादविवाद का मुद्दा यह था कि गुरु की आवश्यकता ही क्या है? बाबा की धूलभेंट के पश्‍चात् हेमाडपंत साठे वाडा में अपना बोरिया-बिस्तर रख दिया। स्नान-संध्या आदि आह्निक एवं नित्य कर्म करने के पश्‍चात् वहाँ पर रहनेवाले अन्य लोगों के साथ दीक्षितजी ने हेमाडपंत की पहचान करवायी और इसके पश्‍चात् उनकी आपस में चर्चा आरंभ हुई। गपशप भी शुरु हुई। इसी में बालासाहेब भाटे ने ‘सद्गुरु सिवाय अन्य कोई चारा ही नहीं है, सद्गुरु की ज़रूरत हर किसी को होती ही है। सद्गुरु का अनुग्रह होने पर जड़मूढ़ भी सभी संकटों को पार कर भवनदी को सुखरूप पार कर जाता है और सद्गुरु का अनुग्रह न होने पर वेदशास्त्रव्युत्पन्न पंडित होने पर भी वह प्रगति नहीं कर सकता’ इस तरह अपना मन्तव्य प्रस्तुत किया।

हेमाडपंत के मन में स्वयं के स्नेही (मित्र) को प्राप्त हुआ अनुभव तो ताज़ा ही था। सद्गुरु के पास ले जाने के बावजूद भी उनके मित्र का इकलौता जवान बेटा बच न सका और वह भी अच्छा-खासा था केवल थोडे से ही बुखार से पीडित होने के कारण उसकी मृत्यु हुई थी। इसी कारण हेमाडपंत को भाटे की बात कुछ जची नहीं। यदि प्रारब्ध के अनुसार जो होना है वही होगा, वह होना अटल ही है, तो फिर गुरु की आवश्यकता ही क्या है? जो किया है वह फल तो देगा ही, कर्म का यह अटल नियम ही होता है तो फिर गुरु की आवश्यकता ही क्या है? जो किया है वह तो भुगतना ही है, यह बात यदि कर्म के अटल सिद्धांत के अनुसार अटल ही है, तो फिर इस में गुरु क्या करेंगे? जो हाथ-पैर हिलाये बगैर केवल सोते ही रहेगा, उसे भला कोई क्या दे सकता है?

सन्तश्रेष्ठ श्री तुलसीदासजी ने कहा ही है- ‘कर्म प्रधान विश्‍व रचि राखा। जो जसु करहुँ सो तसु फल चाखा॥ जो जैसा करेगा वह वैसा भरेगा। साईनाथजी ने भी कहा है- ‘जो जो जैसा जैसा करेगा। वह वैसा ही अपने कर्म का फल भुगतेगा।’ मग़र फल प्राप्त करने के लिए कोशिश तो करनी ही पड़ती है। जो कुछ करेगा ही नहीं उसे गुरु भला क्या देंगे? ‘जो करता है वही भरता है’ यह यदि सत्य है तो फिर हम अपनी स्वतंत्रता छोड़कर गुरु की परतंत्रता क्यों ओढ़कर बैठे? हम यदि अपने कर्तव्य में दक्ष रहेंगे तो हमें गुरु की आवश्यकता ही क्या है?

चरणधूल

हेमाडपंत ने इस पक्ष में विवाद शुरू रखा है। बालासाहेब भाटे ने अपना पक्ष दृढ़तापूर्वक रखा। अब और क्या होगा? इस दुराग्रह पर वाद-विवाद कायम रहा। ‘मैं जो कहता हूँ वही सत्य है’ इस दुराग्रह के कारण ही वादविवाद का जन्म होता है। हमारे जीवन में वाद-विवाद (बहस) का कारण भी यही दुराग्रह ही होता है। मैं जो कहता हूँ वही सामने वाले को मान लेना चाहिए, इसी अहंकारी तानाशाही से वादविवाद उत्पन्न होता है।

हमें यहाँ पर ऐसा लगता है कि हेमाडपंत को बाबा की चरणधूल की भेट में इतना विलक्षण अनुभव आने पर भी ‘आखिर सद्गुरु की आवश्यकता ही क्या है’ इस विषय पर उन्होंने कुछ ही देर बाद भाटे के साथ वादविवाद क्यों किया? ऐसा कैसे हुआ? सुबह शिरडी में पैर रखते ही जिन हेमाडपंत को साईदर्शन का, साईचरणस्पर्श का, बाबा की चरणधूल का जो अद्भुत अनुभव प्राप्त हुआ था, वे हेमाडपंत ही ‘गुरु की आवश्यकता ही क्या है’ इस संबंध में भाटे से वादविवाद कैसे करते हैं?

हेमाडपंत यहाँ पर यह निर्देशित करते हैं कि सद्गुरु की चरणधूल में लोटने के पश्‍चात् भी, लोटांगण का सुख मिलने के पश्‍चात् भी हम अपने अहंकार के कारण वादविवाद की दलदल में लोटने में किस तरह आनंद का अनुभव करते हैं? सच पूछा जाये तो जिसे सद्गुरु के घर का अन्न नसीब हुआ है, उसे अन्य कुछ खाने की इच्छा ही कैसे होगी? हेमाडपंत कहते हैं कि बाबा के दर्शन एवं चरणधूल पा लेने के पश्‍चात् मुझे अंदर ही अंदर कहीं न कहीं अब भी ऐसा ही लगता था कि मेरे पूर्वजन्म की पुण्यराशि का यह फल है। इन सबके पीछे काम कर रही होगी, मेरी पूर्वजन्म की भक्ति। मेरी भक्ति के कारण इस जन्म में बाबा के चरण देखने का सौभाग्य मुझे प्राप्त हुआ है।

पूर्व जन्मों के न जाने कितने पुण्यकर्मों के कारण।
ये जो साईमहाराज हैं, वे मुझे मिले ॥

हेमाडपंत के मन में कहीं पर तो यह बात घर कर चुकी थी कि मेरे पूर्वजन्मों के संचित के कारण ही, पूर्वजन्म की भक्ति के कारण ही बाबा से मेरी मुलाकात हुई। इस प्रकार के स्वकर्तृत्त्व का अहं सिर उठा रहा होगा। बाबा के सामर्थ्य के प्रति उनके मन में किंचित् मात्र भी शंका नहीं थी। बाबा ही मेरे राम हैं, ये साईनाथ ही साक्षात् ईश्‍वर हैं। बाबा के प्रति भी उनके मन में तिलमात्र भी संदेह नहीं था। परन्तु अभी तक अहंकार का बीज पूर्णरूपेण नष्ट नहीं हुआ था। बाबा से मुलाकात होना, उसमें प्रेम का, आनंद का श्रेष्ठ अनुभव प्राप्त होना इसमें कही तो मेरे कर्तृत्व का हिस्सा शामिल है। यही भाव अब तक बना हुआ था और इसी अहंकार के कारण ही वादविवाद का आरंभ हुआ। वे स्वयं ही इससे संबंधित चर्चा करते हुए कहते हैं-

अंग में दुर्घट देहाभिमान। यहीं से वादावादी का जतन।
अहंभाव की यही पहचान। ना हो इसके बगैर वाद कहीं॥

हमारे साथ ही अकसर यही होता है। सद्गुरु का दर्शन होता है, उनसे मुलाकात होती है। सेवा का अवसर भी मिलता है, साईनाथ का अनुभव भी आता है और फिर हम सोचते हैं कि मेरी भक्ति ही इतनी थी इसीलिए यह सब कुछ मुझे प्राप्त हुआ।

‘भगवान की कृपा से ही मुझे सामर्थ्य प्राप्त हुआ, मुझे दिशा मिली और इसीलिए भगवान की कृपा से ही मुझे ये सब कुछ प्राप्त हुआ है। इस में मेरा कर्तृत्व कुछ भी नहीं है।’ इस सत्य से मैं अपने अहंकार के कारण दूर चला जाता हूँ। ‘मेरी भक्ति-सेवा के कारण ही मुझे यह सब कुछ प्राप्त हुआ है’। इस अंहकार के कारण हम उन्मत्त हो जाते हैं और अपने भगवान से दूर हो जाते हैं। इस अहंकार की चरमसीमा है रावणवृत्ति। इसीलिए भक्तों में इस अहंकार को भगवान शेष नहीं रहने देते हैं।

‘मैं भक्ति सेवा करता हूँ’ इस कर्तरी प्रयोग के लिए भक्त के जीवन में कभी भी कोई स्थान नहीं होता है। ‘भगवान ने ही मुझसे यह सब करवाया है’ यह कर्मणी प्रयोग ही उसके जीवन में प्रवाहित रहता है। ‘मेरे कर्तृत्व से ही यह सब मुझे नसीब हुआ है’ यह भाषा उसके जीवन में कभी नहीं होती है, उलटे ‘भगवान की कृपा से ही मुझे यह सब कुछ प्राप्त हुआ है। यह सब कुछ उसने ही मुझे दिया है’ यही भाव वह रखता है।

यहाँ पर हेमाडपंत में जो दिखाई दे रहा है वह उनका सात्विक अहंकार है। परन्तु उसे भी साईनाथ को खत्म करना है और इसीलिए सद्गुरुतत्त्व नामकरण लीला रचाते हैं। भक्त के पास ‘मैं भक्ति करता हूँ’, ‘मेरे द्वारा भक्ति भली भाँति किये जाने के कारण ही मेरा विकास हो रहा है’ यह सात्विक अहंकर भी उनके अंदर न रहने पाये, ऐसी बाबा की इच्छा है। हेमाडपंत नामकरण कथा के माध्यम से बाबा हम से कहना चाहते हैं कि भक्तिमार्ग में अहंकारवृत्ति ही सबसे बड़ी बाधा होती है। ङ्गिर भले वह सात्विक अहंकारवृत्ति ही क्यों न हो! इसीलिए हमें यहाँ पर यह सीखना चाहिए कि मैं भक्ति करता हूँ अथवा मेरा पुण्यकर्म अच्छा है, इसलिए बाबा ने मुझे अपनी ओर खींच लिया है, इस प्रकार का अहंकार न रखते हुए, ‘बाबा ने मुझे अपनाया है, वह उनके भक्तवात्सल्य के कारण ही, यह सब कुछ उनकी भक्तवात्सल्यता के ही कारण है, यह सब उस साईनाथ का ही कर्तृत्व है, इसमें मेरा कुछ भी कर्तृत्व नहीं है’, यह भाव रखना चाहिए। हमारे जीवन में सदैव कर्मणी प्रयोग ही होना चाहिए और कर्ता केवल साईनाथ ही होने चाहिए।

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