श्रीसाईसच्चरित : अध्याय – २ (भाग-५१)

आते ही शिरडी में पहले दिन। बालासाहब भाटे के साथ।
आरंभ हुआ वाद-विवाद (बहस) का। क्या है गुरु की आवश्यकता॥

शिरडी में आते ही पहले ही दिन हेमाडपंत और बालासाहेब भाटे इनके बीच वाद-विवाद आरंभ हो गया और उसका विषय था कि गुरु की आवश्यकता ही क्या है? बालासाहेब भाटे की राय यह थी कि कोई व्यक्ति यदि वेदपारंगत पंडित हो तब भी बगैर सद्गुरु का अनुग्रह प्राप्त किये बिना उसकी प्रगति नहीं हो सकती है, वह केवल शब्दपांडित्य का ही धनी होता है। हेमाडपंत की राय यह थी कि कर्म का अटल सिद्धान्त सभी को समान रूप से लागू है, ङ्गिर हर किसी को अपने हिस्से का भोग भुगतना अपरिहार्य है। ऐसे में फिर सद्गुरु की आवश्यकता ही क्या है? काफीदेर तक दोनों में बहस चलती रही और वे दोनों ही अपने-अपने मत की पुष्टि कर रहे थे और एक-दूसरे के पक्ष में रहनेवाली त्रुटियाँ निकाल रहे थे। इससे विवाद बढ़ता ही चला जा रहा था। कोई भी पीछे हटने को तैय्यार नहीं था।

और फिर इसी में यह विवाद भी छिड़ गया कि कौन महान है, दैव अथवा कर्तृत्व? हेमाडपंत का कहना यह था कि केवल दैव पर भार डालने से क्या होगा? तब भाटे ने उत्तर दिया जो निश्‍चित है वह टल नहीं सकता है। मैं, मैं करने वाले प्रारब्ध के आगे हतबल हो जाते हैं। प्रारब्ध के आगे किसी की नहीं चलती। एक करने जाओ तो होता कुछ और ही है, तुम्हारी भी चतुराई किसी काम की नहीं। हेमाडपंत पुन: अपना पक्ष प्रस्तुत करने लगे। ‘‘तुम ऐसा कैसे कह सकते हो? जो जैसा कर्म करेगा उसे वैसा फल प्राप्त तो होगा ही। जो आलसी बनकर बैठा रहता है, उसकी भगवान भी क्या सहायता कर सकते है? ‘उद्धरेत् आत्मना आत्मानम्’ यह स्मृतिवचन है।’’ तात्पर्य यह है कि मैं स्वयं ही अपने उद्धार का या घात का कारण रहता हूँ। जो कुछ भी होते रहता है वह सब कुछ हमारे कर्म के अनुसार ही होता है। इस स्मृतिवचन का अनादर करके कैसे चलेगा? इसके बगैर बेडा पार होना मुश्किल है। जिसका जो कर्तव्य है वह उसका कर्तव्य उसे ही करना पड़ता है और इसीलिए बेफिक्र रहकर व्यर्थ ही गुरु के पीछे पड़े रहने का क्या मतलब है? हमें अपनी सद्बुद्धि को साधन बनाकर चित्तशुद्धि करनी पड़ती है, परन्तु यह न करते हुए जो दुर्बुद्धि-प्रेरित आचरण करता है, ऐसे व्यक्ति की गुरु भी क्या सहायता करेंगे?

गुरु की आवश्यकता

इस तरह इन दोनों के बीच वाद-विवाद चलता रहा। इस वाद-विवाद का कोई अंत ही नहीं था। इसी कारण यह वाद यूँ ही बढ़ता रहा, तो फिर इस वितण्डवाद से भला क्या निष्पन्न हो सकता था? कुछ भी नहीं। हेमाडपंत अथवा बालासाहेब भाटे इन दोनों में से किसी को भी क्या लाभ हुआ? कुछ भी नहीं। इस वाद से ना तो किसी को कुछ बोध हुआ और ना ही इस वाद से उन दोनों में से किसी की भी कोई प्रगति हुई। केवल दोनों के दिल को एक-दूसरे के बर्ताव के कारण चोट पहुँची, अहंकार और भी अधिक बढ़ गया और सबसे महत्त्वपूर्ण बात तो यह रही कि दोनों का समय भी व्यर्थ गया।

इस विवाद का अंत नहीं। निष्पन्न कुछ हुआ नहीं।
चित्तस्वास्थ्य को भी हानि ही पहुँची। यही मैंने हासिल किया।

हेमाडपंत यहाँ पर हम सब की आँखों में अंजन डाल रहे हैं। वितंडवाद करके हम स्वयं अपना ही नुकसान करते रहते हैं, इस बात का स्पष्ट निर्देश हेमाडपंत यहाँ पर करते हैं। हम श्रीसाईसच्चरित का पठन करके यदि, ‘बाबा को संस्कृत का ज्ञान था अथवा नहीं?’, ‘बाबा ने चांदोरकर को गीता का श्‍लोक अवग्रहसहित समझाया या नहीं?’, इस तरह की बातों पर बहस करेंगे, तो हम ही हमारा नुकसान करेंगे। बाबा जब धरती पर सगुण साकार अवतार रूप में थे, उस समय भी कुछ लोग इसी प्रकार के वितंडवाद में सदैव उलझे रहे और जब बाबा ने देह का त्याग कर दिया, तब भी कुछ ने, ‘बाबा को बुट्टी वाडे में रखना चाहिए या नहीं’, इस बात पर भी विवाद खड़ा कर दिया। बाबा के मुख से स्पष्ट आज्ञा होने के बावजूद भी कुछ लोग बाबा की बातों को अनसुना कर स्वयं के दुराग्रह के कारण वाद निर्माण करते ही रहे और बढ़ाते भी रहे, जिससे कुछ भी निष्पन्न नहीं होने वाला था, उलटा इससे हम सभी का कीमती समय यूँ ही व्यर्थ चला जाता है। इस प्रकार के वितंडवाद से ग्रसित होकर हम क्या प्राप्त करते हैं? हमें कम से कम इस बात का विचार तो करना चाहिए।

व्यवहार में भी हम इसी प्रकार के वाद-विवाद का शिकार बनते रहते हैं। हमारी चर्चा का रूपांतरण वाद-विवाद में कब हो जाता है, इस बात का हमें पता भी नहीं चल पाता है। क्रिकेट के संबंध में हमारा वाद अकसर जोर पकड़ लेता है। टॉस जीतने पर हमारी टीम के कप्तान को पहले बल्लेबाज़ी करनी चाहिए थी या नहीं, यहीं से हमारे वाद का आरंभ होता है। खेल-खेलने की अपेक्षा उस पर वाद-विवाद करके अकसर हम अपना समय व्यर्थ गंवाते रहते हैं। कई बार तो ऐसा भी होता है कि जिस विषय का विशेष ज्ञान हमें नहीं होता है, ऐसे विषयों पर भी मैं बहस करता हूँ। मेरी राय आगे चलकर व्यर्थ ही साबित होती है। हेमाडपंत यहाँ पर हमें स्पष्ट रूप में कहते हैं कि वाद-विवाद से कुछ भी साध्य नहीं होता, उलटे निम्न बातें घटित होने से हमारा ही नुकसान होता है।

१) वाद-विवाद के कारण हमारी मेहनत व्यर्थ जाती है।
२) वाद-विवाद के कारण हमारा कीमती समय नष्ट होता है।
३) यह वाद-विवाद हमारे अहंकार की पुष्टि करता है।
४) एक-दूसरे की खींचा-तानी करने में व्यर्थ ही मन दुखी होता है।
५) संभाषण करनेवाली हितकारी प्रवृत्ति से हम दूर हो जाते हैं और वाद-विवाद की ओर ही मन दौड़ते रहता है।
६) इस वादा-वादी से कुछ भी निष्पन्न नहीं होता।
७) सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण बात तो यह है कि उतने समय के लिए हम भगवान को भूल जाते हैं। उनका गुणसंकीर्तन करने के बजाय हमारे ही ‘गुण’ उछालते रहते हैं और इस तरह हम अपने ही विकास से मुँह फेर लेते हैं।
८) ‘मैं जो कह रहा हूँ वही सत्य है और जो मैं कह रहा हूँ वही हर किसी को मान लेना चाहिए।’ यह दुराग्रह-वृत्ति बढ़ती है और यही वृत्ति सभी क्षेत्रों में हमारा घात करती है।
९) वादावादी की वृत्ति के कारण मैं केवल अपनी ही बात सुन सकता हूँ, अन्य किसी की कोई भी बात सुनने की मेरी तैयारी नहीं होती है। फिर भला भगवान की बात मैं कैसे सुन सकूँगा? फिर जहाँ पर श्रवण भक्ति का पायदान ही मैं इस वादावादी के कारण नहीं चढ़ सकूँगा, वहाँ मेरे जीवन में आगे की प्रगति कैसे होगी?
१०) बहस करके मैं ही अपनी निरीक्षण शक्ति को कमज़ोर बनाते रहता हूँ, क्योंकि मैं केवल एक तरफा ही विचार करते रहता हूँ, अपनी आँखों पर अहंकाररूपी पर्दा चढ़ा लेता हूँ, फिर ऐसी स्थिति में भला मैं सभी पहलुओं पर विचार कैसे करूँगा?
११) वादावादी के कारण मेरा ‘मैं’ मेरे जीवन के केन्द्र स्थान पर आ जाता है और मैं अपने प्रारब्ध के प्रदेश में फँस जाता हूँ और साईकृपा के प्रदेश से दूर चला जाता हूँ।

हमें इन मुद्दों का विचार करके यह निश्‍चित करना होता है कि वादावादी को छोड़कर संभाषण का दामन थाम लेना चाहिए। श्रीसाईसच्चरित की इस कथा के द्वारा बाबा हम से यही कहना चाहते हैं कि ‘टूट जाये जिससे वाद, वह संवाद ही हितकारी है’। इसका सरलार्थ इस प्रकार है कि जिस संवाद से वादावादी को पूर्णविराम मिलता है वह संवाद ही हितकारी होता है। उसी प्रकार इसका भावार्थ इस प्रकार भी है कि वादविवाद से दूर करनेवाला सृजनात्मक संभाषण तो हितकारी होता ही है, परन्तु यह संभाषण जिनकी कृपा से हमारे जीवन में आता है, ‘वे’ ही यानी परमात्मा साईनाथ ही हमारा हित करनेवाले हैं, अर्थात ‘उन्हीं’ परमात्मा साईनाथ के साथ ही किया जाने वाला संवाद ही सभी वादों को खत्म कर देनेवाला है। इसीलिए वादावादी से मुक्त होने के लिए सहज, सुंदर एवं आसान उपाय है- साईनाथ के साथ ही संभाषण करते रहना। इस संवाद से ही हमारा सर्वथा उचित होगा, भला होगा।

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