श्रीसाईसच्चरित : अध्याय-३ (भाग-१९)

हेमाडपंत को साईनाथजी से साईबाबा का चरित्र लिखने की अनुमति मिल गयी। बाबा की आज्ञा हेमाडपंत ने सिर आँखों पर रखकर अपना कार्य किया और उनके मन में सदा ही यही भाव था कि यह कार्य काफ़ी क़ठिन है और स्वाभाविक है कि यह कार्य स्वयं साई ही करनेवाले हैं। कहने का तात्पर्य यही है कि साई ही यह कार्य उनसे पूरा करवायेंगे। इसीलिए हेमाडपंत कहते हैं,

साईनाथजी का चरित्र लिखने का न तो है मुझ में अधिकार।
निश्‍चित ज्ञान भी नहीं है मुझ में, बस चिंदियों की भरमार ।
ऐसे में साईचरित्र लिखने की यह बडी ज़िम्मेदारी।
पता नहीं कैसे निभा पाऊँगा मैं॥

यदि कार्य मुश्किल है फिर भी जब साई की आज्ञा हो जाती है तो मान लो कि वह कार्य साई ही पूरा करवाते हैं, हमें बस साई की आज्ञा का पालन करना होता है। हेमाडपंत के मन में अपनी क्षमता की मर्यादा का जिस तरह पूरा अहसास था, उसी तरह साई के प्रति यह विश्‍वास भी अटल था।

कोशिश किए बगैर यूँ ही बैठे रहने से।
बन जाऊँगा आज्ञाभंग करने वाला पातकी॥
आज्ञापालन करने जाऊँ तो भी।
कर पाऊँगा यह कार्य मैं कैसे॥

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क्योंकि जब स्वयं परमात्मा ही कोई आज्ञा देते हैं अथवा कार्य करने को कहते हैं, उस वक्त वे स्वयं ही उस कार्य को पूर्णत्व प्रदान करते हैं।

समर्थ साई की निजस्थिति।
यथार्थ वर्णन कैसे करें।
स्वयं ही वे भक्त पर कृपा करके।
अपना चरित्र लिखवायेंगे ॥

साई ही स्वयं इस ग्रंथ को लिखवानेवाले हैं, यह बात हेमाडपंत निर्धारपूर्वक श्रोताओं से कह रहे हैं। इसी कारण बारंबार वे यही कहते हैं कि इसमें मेरा ‘मैं’ कहीं पर भी नहीं है।

उठा ली मैंने जब हाथ में कलम।
बाबा ने हर लिया मेरा ‘मैं’ पन॥
लिखते रहे अपनी कथा स्वयं ही।
साईनाथजी की लीला उन्हें ही शोभा देती है॥

हेमाडपंत इसके लिए विभिन्न उदाहरण देते हैं। बाँसुरी अथवा हारमोनियम (पेटी) इन वाद्यों के मन में ‘हम कैसे बजेंगे’ इस बात की चिंता नहीं होती हैं। उन वाद्यों को किस तरह बजाना है, इस बात की चिंता उन्हें बजानेवाले को करनी होती है। ठीक वैसे ही चंद्रकांत नाम की मणि जिन किरणों का उत्सर्जन करती है, वह किरणें उसकी अपनी नहीं होती हैं। वे तो चंद्र के कारण अर्थात चंद्र की किरणों के कारण ही चंद्रकांत मणि में से बाहर निकलती हैं।

कैसे बजेगी बाँसुरी अथवा हारमोनियम।
चिंता नहीं उन वाद्यों के मन में॥
यह तो उस बजानेवाले का कर्तृत्व है।
फिर हम क्यों चिन्ता करें साई के होते हुए॥
यह चंद्रकांत जो स्रवित करता है।
वह अमृत क्या उसके पेट में होता है॥
वह तो होती है उस चंद्र की करामात।
चंद्र का कर्तृत्व चंद्रोदय के बाद ॥

हेमाडपंत आगे चलकर एक और भी उदाहरण देते हैं। वे कहते हैं कि सागर अथवा समुद्र में ज्वार-भाटा आ गया, ऐसा हमारा मानना होता है। परन्तु वास्तविकता तो यही होती है कि समुद्र में ज्वार-भाटा आने के पीछे का कारण चांद ही होता है।

सागर में आता है ज्वार-भाटा ।
क्या वह उसकी निजकृति होती है।
वह भी चंद्रोदय की ही करामात होती है।
नहीं यह कर्तृत्व सागर का ॥

इस उदाहरण से हेमाडपंत हम से यही कह रहे हैं कि कार्य जहाँ पर होता हुआ दिखायी देता है, वह कार्य का कर्ता न होते हुए कर्ता कोई और ही होता है। ठीक इसी तरह इस साईसच्चरित के कर्ता स्वयं श्रीसाईनाथ ही हैं। इससे हमें इस बात का पता चलता है कि हेमाडपंत उनके द्वारा किये गये श्रीसाईसच्चरित-लेखन-कार्य का अहंकार उन में रत्ती भर भी न आये इसलिए कितने सतर्क थे।

वे साई से साफ साफ कहते हैं कि हे साईबाबा, मेरे पास ज्ञान के नेत्र नहीं हैं, आध्यात्मिक दृष्टि से मैं दृष्टिविहीन हूँ, इसीलिए आप ही मेरी लकड़ी बन जाइए और उस लकड़ी के सहारे ही मैं साईसच्चरित लेखन की राह चलूँगा।

श्रुति-स्मृति ये माने जाते हैं ब्राह्मण-नयन।
काना वह है जो हो एक से हीन॥
अंधा ही है जो उभय-विहीन।
हीन दीन वैसा मैं॥
आप ही हो मुझ अंधे की ला़ठी।
मुझ में ऐसा कुछ भी नहीं हैं॥
आपके पीछे-पीछे ला़ठी टेकते-टेकते ।
सीधे-सरल मार्ग का अनुसरण करूँगा॥

इसीलिए हे साईबाबा, तुम्हीं मुझे बुद्धि प्रदान करो और यह चरित्र-लेखन का कार्य मुझसे करवा लो, ऐसी प्रार्थना हेमाडपंत बाबा से करते हैं।

अब आगे क्या करना है।
मैं पामर क्या जानूँ।
आप ही बुद्धिदाता बनकर।
संपादन करवा लीजिए निजकार्य का॥

साईबाबा की अतर्क्य शक्ति अर्थात उनकी कृपा क्या कर सकती हैं, यह बात हेमाडपंत भली भाँति जानते हैं। जो चल नहीं पाता है, ऐसा अपाहिज़ व्यक्ति भी सद्गुरुतत्त्व की कृपा से चलने लगता है, गूंगा बोलने लगता है।

अब यह होता तो है, मग़र कैसे होता है? दर असल यह सब क्यों और कैसे होता है, इसका पता किसी भी मानव को नहीं चल सकता, क्योंकि इसका आकलन करना यह मानवीय बुद्धि के परे की बात है। इन बातों के कारणों का यदि कोई पता करना भी चाहें, तब भी वह इन सब कारणों का पता नहीं लगा पायेगा। परन्तु परमात्मा की कृपा पर, उनकी अकारण करुणा पर जिसका विश्‍वास दृढ़ रहेगा, वह इन घटनाओं के कारणों के बारे में शंकित नहीं होगा।

गूँगा बृहस्पति के समान बोलने लगता है।
अपाहिज मेरु पर्वत लाँघ जाता है॥
यह सब करवाने की अतर्क्य शक्ति है जिन के पास।
उनकी युक्ति वे ही जाने॥

और इसीलिए हेमाडपंत साईनाथ से अत्यन्त सुंदर प्रार्थना कर रहे हैं –

साई, मैं तो केवल आपके चरणों का दास।
मत करना मुझे उदास॥
जब तक चल रही है इस देह में साँस।
करवा लीजिए आप जो करवाना चाहते हो मुझ से॥

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