श्रीसाईसच्चरित : अध्याय २ (भाग- ८)

जयजयजयाजी साईराया। दीनदुखियों की छत्रछाया॥
वर्णू कैसे तुम्हरी अगाध माया। किजिए कृपा इस दास पर॥
छोटा मुँह बड़ी बात पर। वैसे ही आये मुझमें साहस॥
होने न देना मेरा उपहास। चाहता हूँ लिखना यह ‘इतिहास’॥

हेमाडपंत यहाँ पर सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण बात बता रहे हैं कि यह ‘श्रीसाईसच्चरित’ अर्थात किसी भी काल्पनिक कथाओं का संग्रह न होकर साक्षात ‘इतिहास’ ही है। जो जैसे घटित हुआ उसे वैसा का वैसा ही लिखना अर्थात ‘इतिहास’ श्रीसाईसच्चरितग्रंथ के महत्त्व का अहसास हमें यहीं पर होता है। यह मनोरंजक कथाओं का, काल्पनिक कथाओं का अथवा स्वरचित कहानियों का संग्रह न होकर ‘प्रत्यक्ष’ इतिहास ही है। बाबा एवं बाबा के भक्तों की कथा जैसे-जैसे घटित हुई बिलकुल उसी प्रकार उसे यहाँ पर संग्रहित किया गया है। यहाँ पर कहीं पर भी अनचाही बातों को मनोरंजन हेतु कल्पना के आधार पर नमक-मिर्च लगाकर थोपा नहीं गया है। बल्कि प्रत्यक्षरुप में जो कुछ भी घटित हुआ है उसे उसी प्रकार लिखा गया है। इसीलिए हम साईभक्तों के लिए यह साईसच्चरित ग्रंथ अत्यन्त महत्त्वपूर्ण एवं प्रमाण (बोधप्रद) ग्रंथ है। हेमाडपंत का यह ग्रंथ आप्तवाक्य, आप्तप्रमाण ही है।

‘इतिहास’

स्वयं हेमाडपंत ने अथक परिश्रम करके इस ग्रंथ की रचना की है। बाबा के एक श्रेष्ठ भक्त बालासाहेब देव ने इस ग्रंथ के प्रस्तावना में ही इस बात का विवरण दिया है। श्रीसाईसच्चरित में जिन कथाओं अथवा लीलाओं का वर्णन किया गया है, उनमें से अधिकार हेमाडपंत ने स्वयं अपनी आँखों से, ‘प्रत्यक्ष’ देखा है। अन्य कथाएँ यानी भक्तों को बाबा के जो अनुभव आये, वे अनुभव उन भक्तों ने या तो ‘ज्यों के त्यों’ लिखकर हेमाडपंत को भेजे या फिर ‘प्रत्यक्ष’ रूप में मिलकर स्वयं अपनी ज़बानी बताये हैं। बाबा की उन सभी लीलाओं को तथा भक्तों के अनुभवों के आधार पर हेमाडपंत ने अपने प्रासादिक दिन एवं रसमयवाणी में कथास्वरूपी पद्यमय भाषा का सुंदर आवरण चढ़ाकर उनका हृदयंगम वर्णन श्रीसाईसच्चरित में किया है।

स्वाभाविक है कि ये सारी कथाएँ साक्षात घटित हुई हैं और उन सभी की सभी कथाओं को उसी प्रकार से हेमाडपंतजी ने यहाँ पर प्रस्तुत किया है। इससे यह सिद्ध होता है कि श्रीसाईसच्चरित ग्रंथ अध्यात्मिक दृष्टि से तो महत्त्वपूर्ण हैं, ही साथ ही यह ऐतिहासिक दृष्टि से भी अनमोल है। सबसे महत्त्वपूर्ण बात तो यह है कि यह ग्रंथ सच्चाई एवं वास्तविकता के साथ पूर्णत: एकनिष्ठ है। इस में असत्य एवं अवास्तविकता के लिए कोई स्थान नहीं है, ना ही कल्पना अथवा काल्पनिकता के लिए कोई स्थान है। इसकी हर एक कथा प्रत्यक्ष रुप में घटित होने वाली घटना है। इसी लिए हेमाडपंत यहाँ पर इस अध्याय में कहते हैं कि यह साईसच्चरित रुपी ‘इतिहास’ लिखना चाहिए ऐसी मेरी इच्छा है।
‘चाहता हूँ मैं यह इतिहास लिखना॥ ’

हमें इस ग्रंथ का पठन, पारायण, अध्ययन करते समय यह भाव सदैव रखना चाहिए कि बाबा के इस सच्चरित की कथाएँ साक्षात् इतिहास ही है। इस में कही पर भी पक्षपाती दृष्टिकोन नहीं है, असत्य नहीं हैं, अवास्तविकता नही हैं, काल्पनिकता नहीं है। बाबा की हर एक लीलाएँ १०८ प्रतिशत सत्य हैं। इसीलिए कल को यदि कोई उठकर कहे की क्या ऐसा भी कही हो सकता है? क्या ऐसी लीलाएँ घटित हो सकती है क्या? तो हमें मुँहपर तुरंत उत्तर देने आना चाहिए कि हाँ, ऐसा हुआ है, ऐसी घटना घटित हुई है कारण श्रीसाईसच्चरित यह एक ‘इतिहास’ है, बाबा की अनेक लीलाओं के बारे में शंका-कुशंका करनेवालों को हेमाडपंत ने स्वयं ही जोरदार उत्तर दे रखा है कि यह ‘इतिहास’ ही है।

हेमाडपंत, काकासाहेब दिक्षित, बालासाहेब देव, नानासाहेब चांदोरकर, दासगणु महाराज के समान श्रेष्ठ भक्त हमें इस साईसच्चरित के इतिहास के बारे में विश्‍वासपूर्वक बतलाते हैं, फ़िर दूसरा कोई कुछ भी क्यों न कहे तब भी कोई फ़र्क नहीं पड़ता। हेमाडपंत ने इस ग्रंथ में ई.सन. के अनुसार ही कथाओं का वर्णन कई स्थानों पर किया है। जैसे-जैसे उन्हें वे कथाएँ प्राप्त हुई ऊपर दिए गए श्रेष्ठ भक्तों के वचन हमारे लिए आप्तवचन हैं। स्वयं दासगणु ने भी बाबा का संक्षिप्त चरित्र लिखा ही है और वह भी एक ऐतिहासिक प्रमाण ही है।

हेमाडपंत इस अध्याय में इसी बात का निर्देश करते हैं। जिस प्रकार सन १७०० में श्रीमहापति ने संतों का चरित्र लिखा था। उसी प्रकार सन १८०० में बाबा ने दासगणु से संतचरित्र लिखवाया था। भक्तिलीलामृत एवं संत कथामृत दासगणु के इन दो ग्रंथों में आर्वाचीन संत एवं श्रेष्ठ भक्तों का चरित्र हैं। उनमें से भक्तलीलामृत में तीन अध्यायों में बाबा का चरित्र दासगणु ने लिखा ही है, उसी प्रकार अध्याय ५७ में भी बाबा की कथा उन्होंने लिखी है। रघुनाथराव तेंडुलकर एवं उनकी पत्नी ने मिलकर रघुनाथ-सावित्री भजनमाला की रचना की है और उस में उन्होंने साई की अलौकिक लीलाओं का संग्रह किया है। गुजराती भाषीयों के लिए अमीदास भवानी मेथा (मेहता) ने भी बाबा की कुछ कथाओं का वर्णन अत्यन्त प्रेमपूर्वक किया है।

फ़िर इन सब के होते हुए साईसच्चरित की क्या ज़रूरत थी? इसका उत्तर बिलकुल आसान है, कि सद्गुरु के चरित्र का गुरुचरित्र जैसे पंक्तिबद्ध स्वरुप में विस्तृत वर्णन, कथाओं का प्रसंगानुसार हृदयंगम विवेचन होने पर वह भक्तों के लिए अत्यन्त बोधप्रद होगा और साथ ही भक्तिमार्ग का सच्चा स्वरुप स्पष्ट करनेवाले ‘प्रमाण’ के रुप में स्थापित होगा तथा इसी माध्यम से आने वाले समय में हर किसी के लिए भक्तिमार्ग का सच्चा मार्ग प्रकाशित करता रहेगा। स्वयं हेमाडपंत का गुरुचरित्र का अच्छा-खासा अध्ययन था और उन्होंने गुरुचरित्र का अनेक बार पारायण भी किया था। गुरुचरित्र का महत्त्व तो वे जानते ही थे और गुरुचरित्र जैसा प्रभावकारी बाबा का चरित्र लिखने पर भोले भाले भक्तों के लिए तो वह एक सहज सुंदर सेतु ही सिद्ध होगा। इसी कारण गुरुचरित्र के धरातल पर श्रीसाईनाथ का चरित्र लिखूँ ऐसी इच्छा हेमाडपंत के मन में प्रकट हुई।

एक बार चरित्र लिखने की इच्छा उनके मन में उत्पन्न होते ही, उन्होंने अपना कार्य पूरे आत्मविश्‍वास के साथ शुरु कर दिया। चरित्र तो गद्यात्म भाषा में भी लिखा जा सकता था, परन्तु पद्यमय चरित्र की प्रासंगिकता, रसात्मकता, गद्यात्मक भाषा में लाना मुश्किल था। इसके अलावा गुरुचरित्र, ज्ञानेश्‍वरी, भागवत, दासबोध जैसे ग्रंथों का पंक्तिबद्ध रचना का प्रभाव जनमानस पर था ही तथा उन रचनओं का माधुर्य, सौंदर्य पाठकों एवं श्रोताओं के मन को तुरंत ही गहराई तक छू जाता था, और उन्हें (उससे ज्ञान भी मिलता था, उसका बोध भी होता था।) इस बात को हेमाडपंत अच्छी तरह से जानते थे।

इसी हेतु से इस पंक्तिबद्ध रचना में चरित्र लेखन का निर्णय उन्होंने लिया। हेमाडपंत से हमें यही सीखना चाहिए कि यदि हम कोई भी काम करने का निश्‍चय करते हैं तो उसके प्रति सभी ओर से विचार करके, उसके सभी पहलुओं का चिंतन करके उसे चुस्त कैसे बनाया जा सकता है (APT) इस बात का निर्णय लेना चाहिए।

हेमाडपंत ने गुरुचरित्र के समान बाबा का विस्तारपूर्वक चरित्र लिखने का निश्‍चय करने का कारण स्पष्ट करते समय बालासाहेब देव ने भी कहा है कि साई का आरंभिक चरित्र तो सुंदर है ही, परन्तु वे बहुत ही कम शब्दों में हैं अर्थात संक्षिप्तरुप में हैं, इसीलिए अध्ययन, पठन, पारायण एवं साप्ताहिक रुप में पढ़ने के लिए और बाबा की अधिकाअधिक लीलाएँ, बाबा का गुणवर्णन, बाबा के श्रीमुख से निकलने वाले वचन, बाबा का आचरण आदि बाबा से संबंधित सभी बातों का व्यापक रुप में विवेचन किया गया है। श्रीसाईसच्चरित यह पंक्तिबद्ध ग्रंथ लिखने का हेमाडपंत ने निश्‍चय किया। हेमाडपंत का अथक परिश्रम, उनकी अढ़ल निष्ठा एवं अपार साईप्रेम के कारण ही यह ग्रंथ आज हमें प्राप्त हुआ है। हेमाडपंत का यह ऋण कभी भी किसी से भी भूलाया नहीं जा सकता है। और ना ही साईनाथ का।

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