श्रीसाईसच्चरित : अध्याय-२ (भाग- ४५)

जिनके द्वारा प्राप्त हुआ परमार्थ मुझे। वे ही हैं सच्चे आप्त-भ्राता।
हितैषी नहीं है कोई दूजा उनके समान। ऐसा ही दिल से मैं मानता हूँ॥
कितने उपकार हैं उनके मुझपर। नहीं फेर सकता हूँ मैं उनके उपकार।
इसी खातिर केवल हाथ जोड़ कर। चरणों में यह माथा टेकता हूँ॥

काकासाहब दीक्षित और नानासाहब चांदोरकर इन दोनों के प्रति हेमाडपंत के मन में जिस तरह कृतज्ञता की भावना है, उससे भी कहीं अधिक कृतज्ञ भाव उन्हें साईनाथ के प्रति लग रहा है। बाबा का ही यह अनंत उपकार है, जिसे फेरना असंभव है। केवल बाबा के इन अनंत ऋणों का स्मरण करते हुए मैं बाबा के चरणों में माथा टेकता हूँ। हेमाडपंत यहाँ पर हमसे यह कह रहे हैं कि हमें सदैव बाबा के ही ऋणों में रहना चाहिए, अन्य किसी के भी ऋण में कभी भी नहीं रहना चाहिए। इसके साथ ही बाबा के ऋणों का सदैव स्मरण रखना चाहिए।

‘बैर, हत्या एवं ऋण ये जन्मजन्मांतर तक नहीं उतरते हैं’ यह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण तत्त्व आगे चलकर साईसच्चरित में हम पढते ही हैं। इसीलिए किसी के भी ऋण में न रहना यही हमारे लिए श्रेयस्कर है। यदि एक बार हम किसी के ऋण में फँस जाते हैं, तब अगले जन्म में भी हमें उसे फेरना ही पड़ता है। ऋण के कारण ही हमें जन्ममृत्यु के पाश में, प्रारब्ध के पाश में फँसना पड़ता है। कर्म के अटल सिद्धांत के अनुसार ऋण, बैर एवं हत्या का बोझ हमारे सिर से जन्म-जन्मातर तक नहीं उतरता है, इस बात का ध्यान हमें रखना चाहिए। हेमाडपंत इससे भी आगे आकर हमसे कहते हैं कि ऋण का बोझ जन्मजन्मांतर तक हमारे सिर से नहीं उतरता है, इस सिद्धांत का आकलन हो जाने पर इसी का उपयोग स्वयं के विकास के लिए श्रद्धावान को करना चाहिए। यदि ऋण नहीं उतरता है, तो फिर अन्य किसी के ऋण में रहने की अपेक्षा इस सद्गुरु साईनाथ के ऋण में हमें रहना चाहिए। साई का ऋण यदि सदैव मुझ पर रहता है, अन्य किसी का नहीं, तो फिर अपने-आप ही हर जन्म साई-ऋण में ही होगा और जन्मजन्मांतर तक साई का ही सहवास प्राप्त होगा।

काकासाहब दीक्षितअन्य किसी से यदि हम कुछ लेते हैं तो उसे लौटने के साथ-साथ उसके साथ संबंध प्रस्थापित होना भी अपरिहार्य है, फिर चाहे हमारी इच्छा हो या ना हो। और यदि मैं किसी का ऋण रखूँगा ही नहीं, केवल श्रीसाईनाथ के ही ऋण में रहता हूँ तो फिर मेरा केवल साईनाथ के साथ ही ऋणानुबंध रहेगा, अन्य किसी के भी साथ भी नहीं रहेगा और यही सबसे अधिक आनंददायी बात है। हर एक श्रद्धावान को इस बात का ध्यान बड़ी ही बारीकी के साथ रखना चाहिए और साई के अलावा अन्य किसी के भी ऋण में नहीं रहना चाहिए।

हमें इस जन्म में जो सगे-संबंधी, रिश्तेदार, सहकर्मी आदि मिलते हैं, उनके मिलने के पीछे भी यह ऋण ही कारणीभूत होता है। हमारे सभी प्रकार के रिश्ते-नातें आदि के व्यावहारिक संबंधों का मूल कारण ये ऋण ही है। पिछले जन्म का कर्ज चुकाने के लिए मनुष्य के लिए उस प्रकार का व्यवहार करना ज़रूरी हो जाता है। इसमें केवल आर्थिक ऋण ही अंतर्भूत नहीं है, बल्कि सभी प्रकार के ऋणों का समावेश इसमें होता है। यदि हम किसी का समय लेते हैं, हमने किसी से सेवा करवायी है, किसी की मदद ली है तो उसे फेरना ही पड़ता है और उसे फेरने के लिए जन्म भी लेना ही पड़ता है। वह ऋण जिसे चुकाना होता है, वह भी हमारे संपर्क में आता है। पुन: इस प्रकार के रिश्ते-नातों में, व्यावहारिक धरातल पर होनेवाले संबंधों के झमेलों में हम फँस जाते हैं और हमारी नई आवश्यकताओं के अनुसार हम किसी से कुछ न कुछ लेते ही रहते हैं। मनुष्य की ज़रूरतें कभी भी खत्म नहीं होतीं, उलटे वे बढ़ती ही जाती हैं और इसी के अनुसार ऋण भी बढ़ते जाने की संभावना बनी रहती है। मनुष्य का हाथ लेने के लिए सदैव आगे रहता है, परन्तु देने के लिए सदैव पीछे ही रहता है। किसी को अपने पास से कुछ देने की तो बात ही छोड़ो, परन्तु किसी से जो हम लेते हैं वह भी देने के लिए हमारे हाथ आगे नहीं बढ़ते हैं।

यही वृत्ति हमें ऋणों के दलदल में खींचती चली जाती है। सर्वप्रथम किसी से हमें मुफ्त में कुछ लेना ही नहीं चाहिए। साईबाबा की एक कथा में हम पढ़ते हैं कि बाबा एक श्रमिक को उससे सीढ़ी लगवाने की मज़दूरी तुरन्त ही दे देते हैं। बाबा स्वयं के आचरण से ही हमें दिग्दर्शित करते हैं कि किसी का ऋण कभी रखना नहीं चाहिए। हमें भी इसी तत्त्व को हमेशा ध्यान में रखना चाहिए। हम भक्तिमार्ग पर हैं और इसीलिए व्यवहार का ध्यान रखना अति आवश्यक है। ‘ऋण उतरता नहीं है’ इस सिद्धांत को ध्यान में रखकर श्रद्धावान को उचित व्यवहार करना चाहिए। हम सामान्य मनुष्य हैं, इसीलिए हमें व्यवहार में किसी न किसी से कुछ न कुछ लेना ही पड़ता है, इसके बगैर हमारे गृहस्थी की गाड़ी चल भी नहीं पायेगी। परन्तु हम जिसके पास से भी कुछ लेते हैं, उसे ध्यानपूर्वक लौटा देना चाहिए। यह करना बहुत ज़रूरी है।

सर्वप्रथम हमें इस बात का ध्यान रखना ज़रूरी हैं कि हम जिस प्रकार का कर्ज़ चुका नहीं सकते हैं उस प्रकार का कर्ज़ लेना ही नहीं चाहिए। अपनी क्षमता को ध्यान में रखकर ही ऋण लेना चाहिए और उसे ध्यान में रखकर लौटा भी देना चाहिए। ‘ऋण लेकर खुशियाँ मनाना’ यह वृत्ति तो और भी अधिक घातक होती है। जीवन में हर एक कार्य करते समय कर्म के अटल सिद्धांत को ध्यान में रखकर ही कोई भी काम करना चाहिए। ‘ऋण कभी भी यूँ ही नहीं उतरता है’, इस अत्यन्त महत्त्वपूर्ण बात का पता चल जाने पर किसी का भी ऋण न रखना बहुत ज़रूरी है। यदि मुझे ऋण में रहना ही हैं तो केवल अपने इस साईनाथ के ही ऋण में रहना चाहिए। क्योंकि अन्य किसी के ऋण में रहना यह प्रारब्ध के ऋण में रहना है और साईनाथ के ऋण में रहना यह अन्य सभी ऋणों के बंधंन से मुक्त हो जाना है। इस तरह प्रारब्ध की चपेट से मुक्त होकर श्रीसाईनाथ के चरणों में बद्ध रहना चाहिए।

यदि हमें कुछ माँगना ही है तो वह केवल अपने साईनाथ से ही माँगे, अन्य किसी से भी नहीं। ना तो अन्य किसी भी व्यक्ति से और ना ही किसी क्षुद्र देवता से। अन्य किन्हीं क्षुद्र दैवताओं से यदि हम कुछ माँगते हैं तो वह भी हमें लौटाना ही पड़ता है, क्योंकि उनसे हम जो कुछ भी स्वीकार करते हैं, उसे लौटाना भी जरूरी होता है, क्योंकि वे भी कामनाधिष्ठित होते हैं, काल के अखतियार में होते हैं, इसीलिए वहाँ पर भी लौटाना ही पड़ता है और वह भी ब्याजसहित।

वहीं, इस साईनाथ से स्वीकारी गई हर चीज़ श्रद्धावान का उद्धार करनेवाली ही होती है। क्योंकि यही एकमेव सद्गुरुदाता ऐसे हैं, जिनका हिसाब-किताब ही बिलकुल अलग होता है। वे सदैव प्रेमपूर्वक श्रद्धावान को जो उचित होगा वही देते हैं और साथ ही उस श्रद्धावान के द्वारा भक्तिसेवा करवाकर ही उसे अन्य ऋणों से मुक्त करते रहते हैं। बाबा के ऋण में रहने का तात्पर्य यह है कि सभी बंधनों से मुक्त होकर प्रेम के सूत्र में बंधे रहना, आनंद के सागर में रहना, सही मायने में अनृणी (ऋणमुक्त) हो जाना।

हम जब अपाहिज़, वृद्ध, जरूरतमंद लोगों की सेवा निरपेक्ष भाव से करते हैं और ‘साईनाथापर्णमस्तु’ इस निष्ठा से करते हैं, उस वक्त हम उन ऋणों के बंधनों से मुक्त होते रहते हैं, जिनके बारे में हमें पता भी नहीं होता है। हमारे साईनाथ सभी प्रकार के ऋणों के पाशों से हमें छुड़ाते रहते हैं। हमें तो इस बात का भी पता नहीं होता है कि हम कब-कब और कौन-कौन से ऋणों के पाश में फँसें होते हैं। परन्तु ये साईनाथ सब कुछ जानते हैं और ये ही अपने भक्त को कभी भी किसी भी ऋण में फँसने नहीं देते। ‘अपने ही जिगर का टुकड़ा कर्ज में डूबा रहे’, यह किस माँ-बाप को अच्छा लगेगा? तो फिर यहाँ पर तो ये मेरे सच्चे माँ-बाप यानी श्रीसाईनाथ हैं। वे भला हमें कर्ज में डूबा हुआ कैसे देख सकते हैं! ये पिता तो हमारे हित के लिए निरंतर प्रयास करते ही रहते हैं। ये पिता तो हमारे हित के लिए निरंतर प्रयास करते ही रहते हैं, हम ही भक्तिसेवा करने में कम पड़ जाते हैं। परन्तु अब हेमाडपंत के मार्गदर्शन के द्वारा बाबा जो बोध हमें करवाना चाहते हैं; उसे समझ कर हमें यही निश्‍चय करना चाहिए कि हम केवल साईनाथ के ऋण में ही रहेंगे अन्य किसी के भी ऋण में नहीं रहेंगे और बाबा के अनंत ऋणों का एहसास एवं स्मरण सदैव रखेंगे ही।

Leave a Reply

Your email address will not be published.