संबलपुर भाग- २

पुराने समय से अस्तित्व में रहनेवाले संबलपुर का नाम जिस तरह इतिहास में द़र्ज किया गया है, उसी तरह ‘हिराकूड’ बाँध के कारण भूगोल में भी संबलपुर का नाम द़र्ज हो चुका है।

छत्तीसगढ़ में उद्भवित होनेवाली और उड़िसा राज्य में बहनेवाली महानदी के जल का उपयोग यहाँ के लोगों को काफ़ी समय पहले से हो ही रहा है। ‘नदी’ शब्द के साथ साथ दो प्रमुख प्राकृतिक आपदाओं के नाम हमारे सामने आ जाते हैं – बाढ़ और सूखा। तो फिर महानदी के जल पर जो प्रदेश निर्भर है, उस प्रदेश को इन दोनों आपदाओं से सुरक्षित रखना, यही इस बाँध के निर्माण का प्रमुख उद्देश्य है। इसवी १९३७ में आयी एक तीव्र बाढ़ के कारण महानदी पर निर्भर रहनेवाले इस प्रदेश का काफ़ी नुकसान हुआ और यहीं से महानदी पर बाँध बनाकर इन आपदाओं को स्थायी तौर पर हल करने की दिशा में कदम उठाये गये। फिर महानदी पर बनाये जानेवाले बाँध की योजना सामने आ गयी और मार्च १९४६ में उड़िसा के उस समय के गव्हर्नर के हाथों इस बाँध के निर्माणकार्य की नींव रखी गयी। इसवी १९४८ में भारत के पहले प्रधानमन्त्री द्वारा प्रत्यक्ष निर्माणकार्य का शुभारम्भ हुआ और इसवी १९५३ में बाँध का काम पूरा हो गया। लेकिन इस बाँध का औपचारिक तौर पर उद्घाटन जनवरी १९५७ में हुआ।

sambalpur४८०० मीटर्स की लम्बाई का यह बाँध ‘दुनिया का सबसे बड़ा बाँध’ माना जाता है। इस हिराकूड बाँध के कारण आसपास के इला़के के दो प्रमुख फ़ायदे हुए – १) खेती के लिए प्रचुर मात्रा में जल की उपलब्धि और २) इस बाँध के जल द्वारा बिजली का निर्माण। यह बाँध खेती के लिए इतना उपयोगी सिद्ध हुआ है कि जिससे संबलपुर यह आज उड़िसा का सबसे अधिक चावल उपजानेवाला प्रदेश बन गया है।

इस बाँध के निर्माण के कारण प्राणिजगत् की एक अजीबो-ग़रीब घटना घटित हुई है। इस बाँध के निर्माण के कारण जो गाँव जलव्याप्त हो जानेवाले थे, वहाँ के लोग गाँव छोड़कर दूसरी जगह जाकर बस गये। संबलपुर से ९० किमी की दूरी पर और हिराकूड बाँध के एक छोर पर स्थित एक गाँव के लोग स्थलांतरित हो गये; लेकिन गाँव छोड़ते समय कुछ लोगों ने उनके पालतू जानवरों को वहीं पर छोड़ दिया। बाँध के निर्माण के बाद वह गाँव जलमय हो गया और वे पालतू जानवर पास की पहाड़ी पर जाकर बस गये। आज यह पहाड़ी एक द्वीप के समान प्रतीत होती है। उस पहाड़ी पर बस चुके इन जानवरों का अब ‘पालतू’ इस शब्द के साथ कोई सम्बन्ध नहीं रहा। उनकी अगली नस्ल ‘जंगली’ जानवरों की तरह ही हैं। यह नस्ल वहाँ पर बसनेवाले मूल जानवरों से आकार में काफ़ी बड़ी है और ‘पालतू’ इस शब्द के साथ उनका कोई सम्बन्ध ही नहीं है।

इस महानदी से सम्बन्धित एक और ख़ास बात है, ‘बिना दिये का दीपस्तंभ’! हालाँकि पुराने समय में यह नाविकों के लिए उपयोगी होता था, लेकिन अब बाँध के निर्माण के बाद इसकी उपयोगिता नहीं रही। यह ‘बिना दिये का दीपस्तंभ’ यानि कि महानदी के तट पर स्थित ‘घंटेश्‍वरी’ नामक स्थान। यहाँ पर इस नाम की देवता का एक मंदिर है और वहाँ पर अनगिनत घंटाएँ बँधी हुई हैं।

भौगोलिक दृष्टि से इस स्थान पर महानदी की तीन धाराएँ एकत्रित हो जाती हैं। यहाँ पर हवाएँ भी काफ़ी ते़जी से बहती हैं और तीन धाराओं के एकत्रित हो जाने के कारण यहाँ के जल में भँवर भी निर्माण होते हैं। इन भँवरों के कारण नौकाएँ डूब जाती हैं। यहाँ पर बहती हुई ते़ज हवाओं के कारण, बँधी हुई कईं घंटाओं से बहुत बड़ी ध्वनि उत्पन्न होती रहती थी और नाविकों को यहाँ के खतरे का इशारा देती थीं। इन घंटाओं की ध्वनि के इशारे के कारण नाविक इस स्थान के आसपास अपनी नौकाएँ नहीं लाते थे। मग़र हिराकूड बाँध के निर्माण के बाद अब यहाँ पर इस तरह का खतरा नहीं रहा और बिना दिये का दीपस्तंभ भले ही यहीं पर वैसा ही हो, लेकिन खतरे का इशारा देने का उसका काम अब समाप्त हो चुका है।

पीरियड़ समाप्त हो जाने की सूचना देनेवाली स्कूल की घंटी से लेकर मंदिर की घंटा तक की सभी घंटाओं से हम परिचित रहते हैं और उन घंटाओं के विभिन्न प्रकार के उपयोगों के बारे में भी हम जानते हैं। मग़र किसी कुदरती खतरे का इशारा देनेवाली मानवनिर्मित घंटा का इस तरह का उपयोग यह सचमुच ही चौंका देनेवाली एक ख़ास बात अवश्य है।
संबलपुर और अजूबों का नाता काफ़ी गहरा है। संबलपुर और उसके आसपास के कुछ इलाक़ों को ‘अजूबों का गाँव’ कहने में भी कोई ह़र्ज नहीं है।

क्योंकि संबलपुर से चन्द २३ किमी की दूरी पर एक और अजूबे के साथ हमारी मुलाक़ात होती है। आप यदि पिसा के झुके हुए मीनार के बारे में जानते हैं, तो आप इस अजूबे की कल्पना कर सकते हैं।

संबलपुर से २३ कि.मी की दूरी पर स्थित एक गाँव में शिवजी का मंदिर है और यह मंदिर एक तरफ़ झुका हुआ है। इसे ‘हुमा का शिवमंदिर’ कहा जाता है। यहाँ के प्रमुख देवता हैं, ‘विमलेश्‍वर शिव’।

इस शिवमंदिर का निर्माण संबलपुर के पाँचवे राजा ‘बलियर सिंह’ के कार्यकाल में किया गया, ऐसा कहा जाता है। यह प्रमुख शिवमंदिर एक तरफ़ झुकी हुई स्थिति में है। सबसे अहम बात यह है कि प्रमुख मंदिर जिस दिशा में झुका हुआ है, वहीं उसके इर्द-गिर्द के दूसरे छोटे मंदिर अन्य दिशाओं में झुके हुए हैं। इन सभी मंदिरों का झुका हुआ हिस्सा है, उनका शिखर। यह अजूबा केवल इन मंदिरों के प्रांगण में ही दिखायी देता है।

महाशिवरात्री के पर्व पर यहाँ पर एक बड़ा मेला लगता है। लेकिन इस झुके हुए अजूबे को देखने आनेवाले तो सालभर यहाँ आते रहते हैं।

गत ४०-५० सालों से ये मंदिर इसी स्थिति में हैं और इस अवधि में वे और झुके भी नहीं है, ऐसा यहाँ के निवासियों का कहना है, लेकिन इन मंदिरों के झुकने की वजह के विषय में किसी भी प्रकार की खोज नहीं की गयी है और साथ ही इस सन्दर्भ में किसी भी प्रकार के ऐतिहासिक अथवा भौगोलिक दस्तावे़ज भी प्राप्त नहीं होते।

एक और ख़ास बात है, महानदी के यहाँ के पात्र में पायी जानेवाली विशिष्ट प्रजातियों की मछलियाँ। इन्हें ‘कुडो मछलियाँ’ कहा जाता है। इन कुडो मछलियों पर भगवान का हक़ है, ऐसा माना जाता है और इसीलिए कोई भी इन मछलियों को नहीं पकड़ता। इन मछलियों के बारे में एक अनोखी बात कही जाती है। मंगल पर्वों (जिन दिनों को हम धार्मिक दृष्टि से पवित्र मानते हैं) पर इन मछलियों को उनके नाम से बुलाकर उन्हें भगवान का प्रसाद खिलाया जाता है। है ना यह अनोखी बात!

संबलपुर और उसके आसपास का इलाक़ा वनसम्पदा से भरपूर है। इस संबलपुर प्रदेश में यहाँ के आदिवासियों की कला और परम्परा भी हम देख सकते हैं। इस प्रदेश में लोकसंगीत, लोकनृत्य और लोककला तथा इस प्रदेश के साथ जुड़ी ख़ास ‘संबलपुरी बोली’ का अनुभव भी हम यहाँ पर प्राप्त कर सकते हैं।

करघे पर बुने जानेवाले ‘संबलपुरी वस्त्रों’ के लिए भी संबलपुर मशहूर है। वस्त्र शब्द के साथ साथ यक़ीनन हमें याद आती है, साड़ी की। महिलाओं का यह पसन्दीदा वस्त्रप्रकार है। संबलपुरी साड़ी का निर्माण करघे पर किया जाता है। इनमें सोनेपुरी, पासपली, बोमकाई, बारपली इत्यादि विभिन्न प्रकार की साड़ियाँ बनती हैं। साड़ियों के ये विभिन्न नाम उनका निर्माण जिन गाँवों में किया जाता है, उनके आधार पर रखे गये हैं।

संबलपुरी वस्त्र का एक और महत्त्वपूर्ण प्रकार है, संबलपुरी बांधनी। इसमें वस्त्र को विशिष्ट पद्धति से बाँधा जाता है और फिर उसे रंग दिया जाता है। इस पद्धति से बँधनेवाले वस्त्रों को ‘संबलपुरी बांधनी’ कहा जाता है।

जिस सामलेश्वरी देवी के नाम से इस शहर का नाम संबलपुर हो गया, उस देवी का मंदिर भी इसी शहर में है।

‘सामलाई गुडी’ का यानि कि सामलेश्वरी देवी के मंदिर का निर्माण १६ वीं सदी में किया गया, ऐसा कहा जाता है और १७ वीं सदी में उसका पुनर्निर्माण किया गया, ऐसी भी एक राय है। सामलेश्वरी देवी की मूर्ति पत्थर की बनी है।

जिस देवी के कारण इस शहर का नाम संबलपुर हो गया, उस सामलेश्वरी देवी का निरंतर वास्तव्य, महानदी का सदा का साथ और अनोखे तथा अचम्भित कर देनेवाले स्थानों की उपस्थिति होनेवाला यह शहर इतिहास के साथ साथ भूगोल पर भी अपनी मुहर लगाये हुए विद्यमान है।

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