चितोड भाग – १

चाहे गाँव हो या शहर, उसके बसने या उसे बसाने के पीछे कोई न कोई अवश्य रहता है। एक मनुष्य या मनुष्यों का एक समूह किसी जगह जा बसता है और फिर वह स्थान धीरे धीरे एक गाँव या शहर बन जाता है।उस गाँव या शहर में एक ऐसा स्थल अवश्य रहता है, जो उस गाँव या शहर के जन्म से लेकर आज तक के इतिहास का गवाह होता है।

राजस्थान के मरूस्थल में एक ऐसा ही गढ़ है, जो ‘चितोड’ नामक शहर के अतीत का गवाह है। दरअसल चितोड का इतिहास इस चितोडगढ़ के साथा जुडा हुआ है।

chittorgarh- ‘चितोड’

राजस्थान के इतिहास में चितोडगढ़ का महत्त्व अनन्यसाधारण है, क्योंकि यह वीरों की भूमि है, समरभूमि है और साथ ही भक्ति की भी भूमि है।

आज पूरा चितोड शहर इस गड़ की तलहटी में बसा हुआ है। मग़र एक समय ऐसा भी था, जब सारी आबादी इस गढ़ पर ही बस रही थी। इससे हम यह समझ सकते है कि चितोड शहर का इतिहास और चितोडगढ़ का इतिहास इन्हें एक दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता।

‘कुमारपालचरित्र’ नाम के एक संस्कृत ग्रंथ के वर्णन के अनुसार ‘मध्यमा’ नामक एक प्राचीन नगरी पर ‘चित्रांगद’ नामके राजा का शासन था। इसकी राजधानी से कुछ ही दूरी पर ‘चित्रगिरी’ नामक एक पहाड़ था और उस पहाड़ पर चित्रांगद राजाने एक मजबूत विशाल क़िले का निर्माण किया और उसे नाम दिया ‘चित्रकूट’ । फिर चित्रांगद ने इसी क़िले को अपनी राजधानी बनायी। राजा के साथ साथ उसकी प्रजा भी चित्रकूट पर बस गयी और फिर इस क़िले की आबादी कुछ ही समय में इतनी बढ़ गयी कि जिन्हें क़िले पर घर बनाना मुमक़िन नहीं था, वे तलहटी में बस गये। अर्थात् चितोडगढ़ के निर्माण के साथ साथ चितोड भी अस्तित्व में आ गया। चितोडगढ़ और चितोड शहर का इतिहास इनका परस्पर अटूट रिश्ता है। कुमारपालचरित्र के अनुसार चित्रांगद मौर्य वंश के राजा थे। इससे हम यह समझ सकते हैं कि मौर्य वंश की सत्ता के अंतिम चरण में इस गढ़ का निर्माण किया गया। तकरीबन 7 वीं सदी के आसपास की यह घटना है।

इसके बाद बाप्पा रावळ ने मौर्य वंश के राजा को परास्त करके इस गढ़ पर अपना शासन स्थापित किया। यह घटना ८ वीं सदी की है। बाप्पा रावळ ने ही मेवाड संस्थान की स्थापना की। बाप्पा रावळ ने चितोड को राजधानी का दर्जा दिया। कुछ लोगों की राय हैं कि बाप्पा रावळ ने चितोड को जीतकर उस पर अपना शासन स्थापित किया था, वहीं कुछ लोगों की राय से बाप्पा रावळ हा विवाह सोलंकी वंश की राजकुमारी के साथ हुआ था और विवाह में उपहारस्वरूप उन्हें ससुरालवालों से चितोड और स्वाभाविक रूप से चितोडगढ़ भी प्राप्त हुआ था।

सच चाहे जो भी हो , लेकिन बाप्पा रावळ के शासनकाल से लेकर आगे के कुल ८३४ वर्षों तक चितोड शहर ‘मेवाड की राजधानी’ बना रहा। इतिहास से ज्ञात होता है कि इसवी ७३४ में चितोड पर बाप्पा रावळ का शासन स्थापित हुआ था और वहीं से लेकर इसवी १५६७ तक चितोड पर रजपूतों का शासन था। तकरीबन इस ८००-८५० वर्षों की अवधि में चितोड पर कई बहादुर शासकों ने राज किया। मग़र इस अवधि के आख़िरी २००-२५० वर्षों में चितोड ने ‘समरभूमि’ इस नाम को सार्थक बनाया, क्योंकि १४ वीं सदी की शुरुआत में ही एक ऐसी घटना हुई, जिस घटना ने बहादुरी, हिम्मत और आत्मसम्मान का इतिहास रचा।

चितोड की रानी पद्मिनी के साथ हमारी मुलाक़ात होती है, इतिहास एवं आख्यायिका के जरिये। रानी पद्मिनी बहुत ही सुंदर थीं। उनके बारे में एक कथा कही जाती है, वह कुछ इस प्रकार है। रानी पद्मिनी की अनुपम सुंदरता के बारे में सुनकर उन्हें हासिल करने की दुष्ट वासना से अल्लाउद्दिन खिलजी ने चितोड पर हमला बोल दिया। चितोड को घेरकर उसने अपनी दुष्ट इच्छा, चितोड के राजा, पद्मिनी के पति, राणा रतनसिंह तक पहुँचायी। आख़िर इसका हल इस तरह निकाला गया कि अल्लाउद्दिन खिलजी रानी पद्मिनी के प्रतिबिंब को देख सकता है, लेकिन इसके लिए उसे निहत्था आना होगा। जैसा तय हुआ था वैसा हुआ, लेकिन जाते जाते खिलजी ने दगाबाजी करके राणा रतनसिंह को बंदी बना लिया। राजा को दुश्मन के कब्जे में से छुडाने के लिए स्वयं रानी ने ही दुश्मन की छावनी की ओर कूच किया। रानी के साथ कई स्त्रियों ने भी पालकी में सवार होकर चितोडगढ़ से प्रस्थान किया। हर एक पालकी के साथ छ: पालकीवाहक थे। पालकियाँ दुश्मन की छावनी में पहुँच गयी। खिलजी इसी पल की राह देख रहा था, लेकिन इसके बाद जो हुआ उससे खिलजी के होश ठिकाने आ गये। क्योंकि उन पालकियों में से बाहर निकले बहादुर योद्धा और उन योद्धाओं ने अपनी वीरता से अपने राजा को तो मुक्त किया। मग़र इस युद्ध में लगभग ७००० योद्धा शहीद हो गये। इस घटना से क्रोधित होकर खिलजी ने फिर एक बार चितोड पर ज़ोरदार आक्रमण किया और यहीं पर लिखा गया समर इतिहास का एक नया पन्ना। दुश्मन के इस हमले का मुक़ाबला करना अब चितोड के लिए मुमक़िन नहीं था, क्योंकि हाल ही में उनके अपने ७००० जाँबाज सिपाही शहीद हो चुके थे। मग़र फिर भी बिना टक्कर दिये युद्ध से पीछे हट जाना चितोडवासियों के खून में नहीं था।

फिर छोटे छोटे बच्चों को वफ़ादार सेवकों के साथ मह़फूज जगह पर भेज दिया गया और उस समय चितोडगढ़ की सारी महिलाओं ने अपने शील की रक्षा करने के लिए एक अनोखे मार्ग को अपनाया। रानी पद्मिनी समेत सारी महिलाओं ने धधकती अग्नि की ज्वालाओं में अपनेआप को झोंक दिया और जिस क्षण उनके शरीर जलकर राख हो गये, उसके बाद सारे योद्धा गढ़ के द्वार खोलकर दुश्मन  से जूझने के लिए आगे बढ़े। गढ़ तो दुश्मन के कब्जे में चला गया, लेकिन जिन्हें हासिल करने के लिए  दुश्मन ने धावा बोला था, उन्हें दुश्मन नहीं हथिया सका, क्योंकि रानी पद्मिनी तो बलिदान कर चुकी थी।

चितोड के इतिहास में रानी पद्मिनी और गढ़ पर स्थित सारी महिलाओं ने किये हुए इस ‘जौहर’ के प्रसंग को ‘पहला शाका’ कहा जाता है। अब चितोड विदेशी आक्रमकों के कब्जे में जा चुका था।

इसवी १३०३ में विदेशी आक्रमकों के कब्जे में जा चुके चितोड को इसवी १३२६ में ‘हम्मीर सिंह’ ने पुन: जीत लिया। इन्ही हम्मीरसिंह से उदय हुआ ‘सिसोदिया’ राजवंश का।

१६ वीं सदी में चितोड की राजगद्दी सँभालनेवाले ‘राणा संगा’ ने कई राजपूत वीरों को एकत्रित कर मुग़लों के खिलाफ जंग छेड दी। लेकिन दुर्भाग्यवश उन्हें इस जंग में कामयाबी नहीं मिल सकी।

बाद में गुजरात के ‘बहादुर शाह’ नामक सुलतान ने चितोड पर आक्रमण किया। इस बार चितोड ने फिर एक बार महिलाओं के जौहर को देखा। उस समय चितोड पर महाराणा संग्रामसिंह का शासन था। जब दुश्मन का पलड़ा भारी होते हुए दिखायी देने लगा, तब रानी कर्मवती ने गढ़ पर उपस्थित सारी महिलाओं के साथ जौहर करके  अपने शील की रक्षा की। यह प्रसंग यानि की चितोड के इतिहास का ‘दूसरा शाका’।

इसवी १५६८ में चितोड पर जब अकबर की हुकूमत स्थापित हो गयी, तभी चितोड के इतिहास का ‘तिसरा शाका’ घटित हुआ। अकबर ने जब चितोड को जीत लिया, तब गढ़ पर उपस्थित सारी महिलाओं ने अपने शील की रक्षा करने जौहर किया। उस समय चितोडगढ़ पर महाराणा उदयसिंह (द्वितीय) राज कर रहे थे। अकबर के कब्जे में चितोड के चले जाते ही महाराणा उदयसिंह (द्वितीय) गढ़ छोडकर अन्य स्थान पर चले गये।

इन्हीं महाराणा उदयसिंह(द्वितीय) के बेटे महाराणा प्रताप ने चितोड को पुन: जीतने के लिए जीवनभर संघर्ष किया। महाराणा प्रताप, चेतक और हलदी घाटी इन तीनों को ना तो इतिहास कभी भूल सकता है और ना ही हम।

अपनी चितोड इस मातृभूमि को मुग़लों से मुक्त करने के लिए महाराणा प्रताप जीवनभर निरन्तर जूझते रहे। अरवली के पहाड़ियों में रहकर, सभी सुख ऐशो-आराम को त्यागकर, केवल चितोड की आजादी के लक्ष्य को सामने रख कर अपने चुनिंदा साथियों और मर्यादित शस्त्रसामग्री के साथ महाराणा प्रताप आख़िर तक संघर्ष करते रहें।

कहा जाता है कि महाराणा प्रताप स्वयं बाँस की कुटी में रहते थे, पेड के पत्तों पर भोजन करते थे और ज़मीन पर सोते थे।

अपनी आख़िरी साँस तक चितोड की आजादी का ध्येय रखनेवाले महाराणा के जीवनकाल में चितोड को मुग़लों से वे आजाद नहीं कर सके।

इसी चितोड के साथ अर्थात् चितोडगढ़ के साथ जुड़ी हुई है भक्ति की शक्ति । मीराबाई की कृष्णभक्ति। ‘मेरे तो गिरिधर गोपाल। दुसरों न कोई।’ कहनेवालीं और दरअसल इस अंतिम सत्य को प्रतिपादित करनेवालीं मीराबाई का चितोड और चितोड की मीराबाई।

दरअसल भक्ति करना यह वीरों का काम है और युद्ध करना यह भी वीरों का ही काम है। तो फिर जहाँ भक्तिरस और वीररस एक साथ घुलमिल गये हैं, उस चितोड को ‘वीरों की कर्मभूमि’ ही कहना चाहिए।

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