उदयपुर भाग- ४

उदयपुर के सिटी पॅलेस में प्रवेश करते ही सामने के राजमहल की ओर जब हम देखते हैं, तो उसी पल हम उसकी भव्यता और विशालता को महसूस करते हैं। प्रवेशद्वार में से प्रवेश करते ही सामने दिखायी देता है, बहुत बड़ा आँगन और उसके बाद जैसे जैसे हम आगे बढ़ते हैं, वैसे वैसे हमें उदयपुर का इतिहास, वहाँ के शासकों का कलाप्रेम और सुन्दरता भरी दृष्टि इनके बारे में पता चलता है।

इस राजमहल का हर एक महल अपने आपमें अनोखा है। आइए, हम शुरुआत करते हैं, इन्हीं में से एक अनोखे महल से, जिसका नाम है,‘शीश महल’। ‘शीश महल’ इस नाम से आप शायद समझ ही गये होंगे, लेकिन यदि नहीं, तब भी कोई बात नहीं है। इस शीशमहल में अलग अलग क़िस्म के शीशों का मानो मेला ही लगा है। इसलिए यदि कोई अकेला व्यक्ति भी इसे देखने जाता है तो यहाँ पर उसीके अनेकों प्रतिबिंब उसके साथी बन जाते हैं। ‘मोती महल’ उसके नाम की तरह ही मोती जैसा ही सुन्दर है। क्रिस्टल और पोर्सेलिन की विभिन्न वस्तुओं को हम देख सकते हैं, ‘माणिक महल’ में।‘चिनी का चित्रमहल’ मशहूर है, वहाँ की डच तथा चिनी टाईल्स के कारण।

यहाँ के कुछ महलों में बनाये गये चित्र भी यहाँ की एक ख़ासियत है। ये चित्र मेवाड चित्रशैली की पहचान हैं। ‘कृष्णाविलास’ नाम का महल वहाँ के विभिन्न प्रकार के चित्रों के लिए ही मशहूर है। उन चित्रों को देखते ही हमें दिखायी देता है, महाराणाओं के समय का उदयपुर। विभिन्न उत्सवों के प्रसंग, शाही शोभायात्रा के प्रसंग, विभिन्न खेल आदि चित्र उस समय के महाराणाओं की जीवनशैली से परिचित कराते हैं। ‘भीम विलास’ महल में तो श्रीकृष्ण के जीवनचरित्र को ही वॉल पेंटिंग्ज के द्वारा साकार किया गया है। ‘दिलखुश महल’ में भी चित्रकला का अनोखा नज़ारा देखने मिलता है। मेवाड चित्रशैली के चुनिंदा चित्र इसी राजमहल के ‘लक्ष्मीविलास चौक’ में हम देख सकते हैं।

यहाँ पर बग़ीचे में एक महल का निर्माण किया गया है, जिसे ‘बड़ा महल’ कहते हैं। यह कल्पना ही कुछ अनोखी सी है। ‘रंगभवन’ यह राजा की तिजोरी है और राजा की तिजोरी तो किसी अलमारी जितनी छोटी तो हो नहीं सकती, वह तो बड़े दालान की तरह ही होगी।

सिटी पॅलेस के इन महलों का निर्माण विभिन्न महाराणाओं के शासनकाल में किया जाने के कारण उनमें विविधता है। इस पूरे राजमहल का शिखरबिंदु है, ‘अमरविलास’। विभिन्न बग़ीचें, फ़व्वारें और बड़ी बड़ी अटारियाँ इसकी शोभा बढ़ाती हैं। इस वर्णन से आपकी समझ में यह आ ही गया होगा कि इस महल का का़फ़ी हिस्सा पर्यटक देख सकते हैं। इसी राजमहल में म्युज़ियम भी है और वहाँ पर दिखायी देते हैं, अतीत के निशान।

सिटी पॅलेस का यह म्युज़ियम दुर्लभ ख़ज़ाना ही है। अब तक इन महलों में देखे गये चित्रों से हम यहाँ के शासकों की जीवनशैली से परिचित तो हो चुके हैं, लेकिन उस उस समय के महाराणा, उनकी रानियाँ, उनके परिजन किस तरह की पोशाक़ करते थे, उनके गहने कैसे थे, वे शिकार कैसे करते थे और किन अस्त्रशस्त्रों से दुश्मन को मात देते थे, इसकी पूरी जानकारी यहाँ पर मिलती है। संक्षेप में, यह म्युज़ियम देखते देखते हम उस ज़माने का एक हिस्सा बन जाते हैं।

राजस्थान के कई राजमहल आज भी सुस्थिति में हैं और उदयपुर भी इसके लिए अपवाद नहीं है। इनमें से ही कुछ को आज ‘हेरिटेज हॅाटेल’ में तबदील कर दिया गया है। ‘शिवनिवास पॅलेस’ और ‘फ़तेह पॅलेस’ ये उदयपुर के दो राजमहल आज ‘हेरिटेज हॅाटेल’ में बदल गये हैं। इनमें से ‘फ़तेह पॅलेस’ में क्रिस्टल से बनी विभिन्न वस्तुओं का एक अनोखा संग्रह है। महाराणा सज्जनसिंहजी ने उनके शासनकाल में विदेश से क्रिस्टल की विभिन्न वस्तुओं को मँगवाया था। लेकिन दुर्भाग्यवश उन्हें उनके जीवनकाल में इन वस्तुओं को देखना नसीब नहीं हुआ। इन्हीं वस्तुओं का संग्रह हम ‘फ़तेह पॅलेस’ में देख सकते हैं।

सिटी पॅलेस के अहाते में ‘जगदीश मंदिर’ है, जो उदयपुर का सब से बड़ा मन्दिर है। भगवान विष्णु इस मन्दिर के प्रमुख देवता है। महाराणा जगतसिंहजी ने १७ वीं सदी में इसका निर्माण किया था। लगभग तीन मंज़िला ऊँचे इस मन्दिर में अलंकृत स्तम्भ, दीवारें और छत की चित्रकला इनका अनोखा संगम है और मन्दिर का शिखर बेतहाशा ख़ूबसूरत है।

उस ज़माने में इसके निर्माण का खर्च था, लगभग १.५ करोड़। चतुर्भुज विष्णुजी की अखंडित काले पत्थर में तराशी गयी मूर्ति यहाँ के गर्भगृह में है।

अब मन्दिरों की बात चली ही है तो उदयपुर के पास में स्थित एक महत्त्वपूर्ण मन्दिर का ज़िक्र करना ज़रूरी है।

उदयपुर के पास ‘कैलाशपुरी’ में ‘एकलिंगजी का मन्दिर’ है। मेवाड और उदयपुर के राजघरानों के ये कुलदेवता हैं। ‘भव्य’ और ‘सुन्दर’ इन दो शब्दों में इस मन्दिर का वर्णन किया जा सकता है। इसका निर्माण बाप्पा रावल ने ८ वीं सदी में किया ऐसा कहा जाता है। एकलिंगजी यानी शिवजी। यहाँ के शिवजी के चार मुख हैं।

उदयपुर के राजमहलों की सैर करते करते हम अचानक मन्दिरों की ओर चल पड़े। अब फ़िर मुड़ते है, राजमहलों की ओर।

‘उदयविलास पॅलेस’ इस राजमहल के निर्माण में १० साल लग गये। दर असल शिकार करने जाते हुए या वहाँ से लौटते हुए आराम करने के स्थल के रूप में इसका निर्माण किया गया। अब यह महल भी हेरिटेज हॅाटेल में रूपान्तरित हो चुका है।

राजस्थान की मरुभूमि का लोकजीवन रंगबिरंगी है और इसकी झलक हम इन महलों में देख ही चुके हैं। संगेमर्मर, शीशें और आकर्षक रंग इनका इस्तेमाल पूरे राजस्थान में किया गया है और उदयपुर में भी यही बात दिखायी देती है। आज के उदयपुर में संगेमर्मर की तथा चांदी की कलात्मक वस्तुएँ उपलब्ध हैं। साथ ही यहाँ के कलाकारों ने मेवाड की चित्रशैली का जतन किया है। आज भी यहाँ पर मेवाड चित्रशैली की विभिन्न पेंटिग्जस् उपलब्ध हैं।

प्राचीन समय से भारत के हर एक प्रदेश में लोककलाएँ प्रचलित हैं और वह उस संबंधित प्रदेश की ख़ासियत भी है। राजस्थान और उदयपुर की बात करें, तो यहाँ के विशेष लोकनृत्यों में – घूमर, कैबेलिया, गैर, गौरी, भवाई आदि कई लोकनृत्यों का समावेश होता है। लोकसंगीत के माध्यम से पुराने समय से कई लोककथाएँ, बोधकथाएँ, शौर्यकथाएँ, प्रेमकहानियाँ प्रचलित हैं। ये लोकनृत्य और लोकगीत उस समय के समाज के मनोरंजन के साधन भी थे और साथ ही एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति अथवा व्यक्तिसमूह को संदेश प्रसारित करने के माध्यम भी। इनसे समाज आपस में जुड़ा रहता था। राजस्थान का नाम लेते ही याद आती है, ‘कठपुतली के खेल’ की या आज की भाषा में कहना हो, तो ‘पपेट शो’ की।

समय करवटें लेता रहा और आधुनिक युग की पौ फ़टते ही लोककला कहीं पिछड़ तो नहीं गयी है, इस आशंका ने सब को घेर लिया। लोककला प्रस्तुत करनेवाले कलाकारों की संख्या भी घट रही थी। तो क्या भविष्य में अगली पीढ़ी इससे वंचित रहेगी? इस समस्या के उपाय के तौर पर उदयपुर में ‘भारतीय लोककला म्युज़ियम’ की स्थापना की गयी और इसके ज़रिये भविष्यकाल के लिए लोककलाओं को जतन किया गया।

जिस तरह राजमहल यह उदयपुर की ख़ासियत है, उसी तरह उदयपुर की एक और ख़ासियत है, वहाँ की हवेलियाँ। बड़े मकान को हवेली कहते हैं। उदयपुर में आज भी पुराने समय की कुछ हवेलियाँ सुस्थिति में हैं।

उदयपुर से संबंधित एक और खास बात है-‘सहेलियों की बाड़ी।’ दर असल क्या हमने कभी सोचा है कि किसीने महारानियों की दासियों के मनोरंजन के बारे में भी कभी सोचा होगा? सहेलियों की बाड़ी यह महारानियों की दासियों/ सखियों के लिए बनाया गया एक विशाल बग़ीचा है। कहा जाता हैं कि किसी महारानी के मायके से उसके साथ आयी ४८ दासियों के लिए इसका निर्माण किया गया।

भव्यता और सुंदरता इनका अनोखा मेल जहाँ पर है, ऐसे इस शहर ने विज्ञान का हाथ भी दृढतापूर्वक थामा है। इसी विचार से फ़त्तेसागर लेक में स्थित एक भूभाग पर इसवी १९७५ में ‘सोलर ऑब्सर्व्हेटरी’की स्थापना की गयी।

आज इस शहर की स्थापना होकर सदियाँ बीत गयी, लेकिन आज भी इसकी खूबसूरती बरकरार है, दरअसल बढ़ती ही जा रही है; क्योंकि इसका नाम ही है- उदयपुर।

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