तिरुपति भाग-३

पद्मावती के दर्शन

तिरुचानूर में देवी पद्मावती के दर्शन कर अब हम चले हैं, भगवान व्यंकटेशजी के दर्शन करने। देखिए! बातों बातों में हम सप्तगिरि पर्वत चढ़कर मंदिर के महाद्वार तक आ भी गये। आइए, मंदिर की वास्तुरचना को देखते देखते आगे बढ़ते हैं।

आप तिरुपतिजी के मंदिर में कभी भी आइए, भाविकों की लंबी कतारें आपको यहाँ पर दिखायी देंगी। यहाँ की ख़ासियत यह है कि आप विशिष्ट मूल्य प्रदान करके दिन भर में भगवान व्यंकटेशजी को अर्पण किये जानेवाले उपचार देख सकते हैं।

दूर से ही दिखायी देता है, मंदिर का स्वर्ण से बना शिखर। विभिन्न समय की द्राविडी वास्तुशैलियों का मिश्रण यहाँ पर दिखायी देता है। विभिन्न शासकों द्वारा समय समय पर इसकी रचना में की गयी वृद्धि यही इसकी वजह है।

मंदिर के मुख्य प्रवेशद्वार को ‘पदि कवली महाद्वार’ कहा जाता है। दर्शन करनेवाले भक्तों को कतार में से आगे बढ़ते हुए यहाँ तक पहुँचने के लिए केवल उत्सव के दौरान ही नहीं, बल्कि प्रतिदिन भी कई घण्टों तक इंतज़ार करना पड़ता है। यह मंदिर पूर्वाभिमुख है। प्रवेशद्वार के पास ही हमें विभिन्न मूर्तियाँ दिखायी देती हैं।

मंदिर के तीन प्राकार हैं। पहला प्राकार है, ‘संपंगी प्रदक्षिणम्’। इस प्राकार में कई मंडप हैं। रंगमंडप, प्रतिमामंडप, तिरुमलराय मंडप आदि। इनके नामकरण के कुछ विशेष कारण भी हैं। जैसे कि ‘रंगमंडप’ नाम के मंडप में पुराने ज़माने में विदेशी आक्रमण के समय ‘श्रीरंगम्’ की रंगनाथजी की मूर्ति को सुरक्षित रखा गया था। ‘प्रतिमा मंडप’ में विजयनगर के शासक कृष्णदेवराय और उनकी रानियों के पुतलें हैं। साथ ही तुळुव वंश के अन्य शासकों के भी पुतलें हैं। अकबर के मन्त्री तोडरमल का भी पुतला यहाँ पर है।

दूसरा प्राकार है, ‘विमान प्रदक्षिणम्’। सामान्यत: इसी विमानप्रदक्षिणम् मार्ग पर से ही भगवान की प्रदक्षिणा की जाती है। इस प्राकार में कल्याणमंडप, पाकशाला (किचन), भगवान के वाहन रखने का स्थान, यागशाला इनजैसी विभिन्न रचनाएँ हैं। मंदिर के ध्वजस्तंभ को स्वर्ण का मुलामा किया गया है। इस प्राकार में ही वरदराज स्वामी, गरुड, रामानुज, योगनरसिंह आदि के भी मंदिर हैं। यहाँ की पाकशाला में दैनिक नैवेद्य बनाया जाता है।

सबसे आख़िरी यानि कि तीसरा और भीतरी प्राकार है, ‘वैकुंठ प्रदक्षिणम्’। इस प्राकार को केवल वैकुंठ एकादशी के पर्व पर ही खोला जाता है। यहीं से प्रमुख मूर्ति के दर्शन करने के लिए बनाया गया प्रवेशद्वार है। गर्भगृह में प्रवेश करने के लिए बनाया गया यह बड़ा द्वार स्वर्ण के पत्रे से आच्छादित है। जहाँ पर व्यंकटेशजी की मूर्ति है, उस गर्भगृह को ‘आनंदनिलयम्’ कहा जाता है। आनन्दनिलयम् में विराजमान व्यंकटेशजी के दर्शन करने दूर दूर से भक्तगण आते हैं और कईं घण्टों तक लंबी कतार में खड़े रहते हैं।

दर असल तिरुपतिजी का मंदिर बहुत विशाल है। ऊपरोक्त वर्णन से आपको इसकी रचना की एक झलक मिल ही चुकी होगी। मंदिर के नित्यक्रम की शुरुआत होती है, प्रात: के ‘सुप्रभातम्’ स्तोत्र से। भगवान को जगाने की इस विधि को ‘सुप्रभातम्’ कहते हैं। उसके बाद ‘शुद्धि’ इस नित्य विधि के अन्तर्गत मंदिर को साफ़ किया जाता है। फिर ‘निजपद दर्शनम्’ होता है यानि कि भाविक भगवान के चरणों के दर्शन कर सकते हैं।

सुप्रभातम् स्तोत्र के बाद शयन मंडप स्थित भोगश्रीनिवास की मूर्ति को गर्भगृह में ले जाया जाता है। वहाँ पर ‘नवनीत-आरती’ की जाती है। गाय का दूध और मक्खन-शक्कर को नैवेद्य के रूप में अर्पण किया जाता है।

शुद्धि उपचार के बाद मूल मूर्ति के स्वर्ण-आवरणों को तथा भोगश्रीनिवास की मूर्ति को मन्त्रों के साथ अभिषेक किया जाता है। अभिषेक के बाद भगवान व्यंकटेशजी की प्रमुख मूर्ति को विभिन्न प्रकार के फूलों से सजाया जाता है। इसे ‘थोमूल सेवा’ कहते हैं।

इसके बाद सहस्रनामों के साथ भगवान की पूजा की जाती है, जिसे ‘सहस्रनाम अर्चना’ कहते हैं।

दिन भर भाविक दर्शन कर सकते हैं। इस दर्शन के लिए कोई मूल्य नहीं लिया जाता है। इसे ‘सर्वदर्शन’ कहते हैं।

भगवान को भोग चढ़ाने से पहले उसे शयन मंडप में लाकर रखा जाता है और फिर घण्टानाद के घोष में उसे व्यंकटेशजी को अर्पण किया जाता है। उस समय ‘नालायिर प्रबंधम्’ का पाठ किया जाता है, इसे ‘सथुमुरै’ कहते हैं।

मध्याह्न (दोपहर) के समय पुन: भगवान का पूजन किया जाता है। उस व़क़्त व्यंकटेशजी के वराहपुराणोक्त १०८ नामों के द्वारा उनका पूजन कर नैवेद्य अर्पण किया जाता है।

‘कोलुवू श्रीनिवास’ के दरबार के बारे में पिछले लेख में हम पढ़ ही चुके हैं। रात को शयन के पूर्व व्यंकटेशजी का फिर एक बार पूजन किया जाता है। उस समय उन्हें मिठाई का भोग चढ़ाया जाता है। इसे ‘पव्वलिंपू सेवा’ और ‘अर्धयाम सेवा’ कहते हैं।

इस तरह के नित्यक्रम के बाद भगवान सोते हैं। उस समय झूले पर मखमल की सेज सजाकर उसपर भोगश्रीनिवासजी की मूर्ति को रखा जाता है। भगवान को दूध, मिठाई इत्यादि नैवेद्य अर्पण किया जाता है। सुप्रभातम् स्तोत्र यह जिस तरह भगवान को जगाने के लिए गाया जानेवाला गीत है, उसी तरह शयन के व़क़्त भी गायन किया जाता है। इस विधि के बाद भगवान सोते हैं, अत: भक्तगण उनके दर्शन अब अगले दिन सुप्रभातम् के बाद ही कर सकते हैं।

व्यंकटेशजी के मंदिर के ये नित्यविधि पुराने समय से होते आ रहे हैं।

इन नित्यविधियों के साथ साथ मंदिर में विशेष उत्सवों तथा पर्वों के अवसर पर विशेष उपचार भी अर्पण किये जाते हैं। इनमें पुलंगी सेवा, सहस्रघट अभिषेक इत्यादि का समावेश होता है। इनके अलावा यहाँ पर मनाया जानेवाला प्रमुख उत्सव है, ‘ब्रह्मोत्सव’।

ब्रह्मोत्सव के पहले दिन सजाये गये घटों में धान के बीज बोये जाते हैं। उत्सव के पहले दिन ‘ध्वजारोहण’ किया जाता है। यहाँ से ब्रह्मोत्सव की शुरुआत होती है। ब्रह्मोत्सव के दौरान व्यंकटेशजी की उत्सवमूर्ति की विभिन्न रथों में से शोभायात्रा निकाली जाती है। इस उत्सवकाल में भगवान को झूले पर बिठाकर झुलाया जाता है। उन्हें पुष्करिणी में नहलाया जाता है।

ब्रह्मोत्सव जितना ही महत्त्वपूर्ण उत्सव है, ‘कल्याणोत्सव’। यह है व्यंकटेशजी के विवाह का समारोह। यह बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है।
तिरुपतिजी के मंदिर में अन्य उत्सव भी मनाये जाते हैं।

मुक्कोटी एकादशी को ‘अध्ययनोत्सव’ का प्रारंभ होता है। इसमें वेदमंत्रों तथा ‘तमिल प्रबंधम्’ के स्तोत्रों का पाठ किया जाता है। यह उत्सव बीस दिनों तक चलता है।

नित्योत्सव, वसंतोत्सव, पवित्रोत्सव एवं जलविहार उत्सव आदि उत्सव भी यहाँ पर मनाये जाते हैं।

दैनिक उपचारों में ‘सहस्रघट अभिषेक’ यानि कि हज़ार घटों में जल भरकर उसके द्वारा भगवान को अभिषेक करना। हर शुक्रवार को हलदी, चंदन, दूध इत्यादि द्वारा भगवान को यह अभिषेक किया जाता है। ‘पुलंगी सेवा’ में व्यंकटेशजी की विशेष पूजा की जाती है। उस समय मूर्ति के लगभग सभी अलंकार निकाले जाते हैं और इस वजह से मूर्ति के दर्शन अच्छी तरह होते हैं। अन्य एक उपचार में भगवान की मूर्ति को कस्तूरी, कपूर आदि का लेपन किया जाता है। इसे ‘श्रीपादरेणू’ कहते हैं।

तिरुपति मंदिर के आसपास तथा तिरुमला में कई तीर्थ एवं मंदिर हैं। इन तीर्थों में से ‘स्वामी पुष्करिणी’ यह सप्तगिरी के तीर्थों में से एक महत्त्वपूर्ण तीर्थ है। अन्य मंदिरों में से रामानुजाचार्य द्वारा बनाया गया ‘गोविंदराज’ मंदिर यह प्रमुख मंदिर माना जाता है।

तिरुपति मंदिर के पास ही व्यंकटेशजी के मंदिर से भी पुराना माना जाने वाला ‘वराहस्वामी’ मंदिर है। भगवान विष्णु सर्वप्रथम यहाँ पर वराह रूप में प्रकट हुए थे, ऐसा माना जाता है। इसीलिए व्यंकटेशजी के दर्शन करने से पहले ‘वराहस्वामी’ के दर्शन करने की परंपरा है।

देखिए, देखते देखते काफ़ी व़क़्त बीत गया। अब हमें वापस लौटना चाहिए। चलिए, तो फिर व्यंकटेशजी को मन:पूर्वक प्रणाम करके निकलते हैं। लेकिन एक बात निश्‍चित है, हम यहाँ से भले ही लौट जाये, मग़र ‘श्रीवेंकटाचलपते तव सुप्रभातम्’ के सुर हमारे मन में कई दिनों तक गूँजते ही रहेंगे।

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