लेह-लद्दाख़ (भाग-२ )

Ladakh-.jpg- लद्दाख़ हिमालय में स्थित शीत रेगिस्तान अर्थात् लद्दाख़ का प्रदेश। हमारे भारत में कश्मीर से भी आगे बसा हुआ यह प्रदेश।

राजाओं का शासन लद्दाख़ पर शुरू होने के समय से लेकर लद्दाख़ का इतिहास प्राप्त होता है; लेकिन उससे पहले के समय की जानकारी इतिहास में नहीं मिल पाती। केवल पिछले भाग में जैसे वर्णित किया था, उसके अनुसार कुछ इतिहासकार एवं यात्रियों द्वारा किये गए वर्णनों में लद्दाख़ का उल्लेख मिलता है। एक महत्त्वपूर्ण बात यह है कि सिन्धु नदी लद्दाख़ में से बहती है। पुराने जमाने में साधारण तौर पर नदी का आश्रय लेकर अर्थात् नदी के आसपास के प्रदेश में मनुष्य अपनी बस्ती बसाते थें; इसी कारण उत्तरी दिशा से सिन्धु नदी तक आ पहुँचे मानवी क़बीले उस समय लेह-लद्दाख़ में बस गएँ। पुराने जमाने में अर्थात् लगभग आठवी सदी में लद्दाख़ के तिब्बत के साथ काफी  करीबी ताल्लुकात थें। जैसे कि हम पहले ही देख चुके हैं, लद्दाख़ और तिब्बत के बीच का यह सम्बन्ध व्यापार की दृष्टि से तो था ही; साथ ही धार्मिक और सामाजिक दृष्टि से भी था।

लद्दाख़ पर शासन करनेवाला राजवंश ‘नामग्याल’ इस नाम से जाना जाता है। लेकिन इस राजवंश की भी शुरुआती समय की कुछ विशेष जानकारी उपलब्ध नहीं है। केवल इतनी ही जानकारी प्राप्त होती है कि इस राजवंश के पाँचवे राजा का नाम उत्पल था और उसने कुलु, मुस्तंग और बाल्टिस्तान के कुछ हिस्से को जीत लिया था।

लेह-लद्दाख़ का प्रमुख धर्म बौद्धधर्म है और उसके पड़ोसी तिब्बत का भी यही प्रमुख धर्म है, इसी कारण १३ वी सदी के आसपास लद्दाख़ और तिब्बत में धार्मिक दृष्टि से गहरे सम्बन्ध प्रस्थापित हुए।

फिर आगे चलकर एक ऐसा वक़्त आ गया, जब लद्दाख़ पर कईं बार मुग़लों के आक्रमण होने लगे। इसके परिणामस्वरूप लद्दाख़ के एक भाग पर तक़पाबूम नामक राजा का शासन प्रस्थापित हुआ, वहीं लद्दाख़ के दूसरे भाग पर तक़बुमदे नामक राजा शासन करने लगा। लेह में राज करनेवाले तक़बुमदे नामक राजा के अधिपत्य को भगन नामक राजा ने नष्ट किया और लद्दाख़ प्रान्त के दोनो विभागों को एक कर दिया। इस राजा ने ‘नामग्याल’ यह उपाधि धारण की। ‘नामग्याल’ इस शब्द का अर्थ ‘विजयी’ यह है। इस भगन राजा के पश्चात् लेह-लद्दाख़ पर शासन करनेवाले हर एक राजा ने अपने नाम के आगे ‘नामग्याल’ इस उपाधि को धारण करना शुरू किया और आज भी यह राजवंश चल रहा है।

भगन राजा से शुरू हुए इस राजवंश का फिर लद्दाख़ पर शासन शुरू हुआ। १६ वी सदी में हुए ‘तशी नामग्याल’ नामक राजा ने लद्दाख़ पर हुए कईं विदेशी आक्रमणों को विफल कर दिया। इसी राजा ने ‘नामग्याल’ नामक पर्वत की चोटी पर एक राजमहल का निर्माण किया। ‘त्सेवंग नामग्याल’ नामक राजा ने चाहे कुछ अल्प समय तक ही क्यों न हों, अपने राज्य की सीमाओं का नेपाल तक विस्तार किया था।

१७ वी सदी में राजगद्दी पर बैठे हुए ‘सेंगे नामग्याल’ नामक राजा के शासनकाल में लद्दाख़ का विकास तो हुआ ही, साथ ही इससे पूर्व के समय में लद्दाख़ पर हुए विदेशी आक्रमणों के कारण लद्दाख़ में स्थित जिन धार्मिक वास्तुओं का नुकसान हुआ था, उनकी क्षति-पूर्ति की गई। इस राजा के शासनकाल में कईं प्रार्थनामन्दिरों का पुनर्निमाण किया गया। इस राजा ने अपने राज का भी विस्तार किया। लेकिन इस राजा के पश्चात् उसके पुत्र के काल में लद्दाख़ का वैभवशाली युग समाप्त हो गया और लेह-लद्दाख़ पर विदेशियों ने कब़्जा जमा लिया। इस प्रकार लेह-लद्दाख़ प्रान्त मुग़लों के कब़्जे में चला गया।

१९ वी सदी के आरम्भ में कश्मीर और पंजाब में सिखों का साम्राज्य स्थापित हुआ। इसवी १८३४ में कश्मीर का राजा गुलाबसिंह के सेनापति जोरावरसिंह ने लद्दाख़ पर हमला किया। उस समय लद्दाख़ पर त्शेस्पाल नामग्याल नामक राजा का शासन था। जोरावरसिंह ने लद्दाख़ प्रान्त को जीत लिया और त्शेस्पाल नामग्याल राजा को ‘स्तोक’ नामक स्थान पर भेज दिया। इस प्रकार लेह शहर के साथ लद्दाख़ प्रान्त कश्मीर में शामिल हो गया। भारत स्वतन्त्र होने के पश्चात् भी यह कश्मीर का ही हिस्सा रहा है।

हमारे भारत की दृष्टि से लेह-लद्दाख़ को एक असाधारण महत्त्व है और वह है, हमारे देश की रक्षा की दृष्टि से। लद्दाख़ प्रान्त के पड़ोस में ही चीन और पाकिस्तान ये देश बसे हुए हैं। हमारे साथ युद्ध करके इन देशों ने हमारे साथ होनेवाले उनके सम्बन्धों का परिचय हमें दे ही दिया है और किसी न किसी तरह से आज भी ये राष्ट्र हमें उनके साथ होनेवाले सम्बन्धों का परिचय दे ही रहे हैं।

इसवी १९९९ में कारगिल का नाम इसी विषय में हमारे सामने आया, लेकिन इसवी १९९९ के पूर्व भी कारगिल युद्धभूमि बन चुका था। कारगिल के साथ ही द्रास, गुमरी इनजैसे कुछ नामों से आज हम परिचित हो चुके हैं। ये स्थान लेह-लद्दाख़ के आसपास ही हैं। अर्थात् हमारे देश की रक्षा की दृष्टि से इस लेह-लद्दाख़ प्रान्त को अनन्यसाधारण महत्त्व है।

देश की रक्षा की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण होनेवाले इस प्रान्त में हमारे सैनिक हमेशा सिद्ध रहते हैं। जिन जिन स्थानों से देश की सुरक्षा को खतरा हो सकता है, ऐसे स्थानों पर, फिर चाहे वे भला कितनी भी ऊँचाई पर स्थित हों, वहाँ हमारे सैनिक हमारी मातृभूमि और हम सबकी रक्षा के लिए सिद्ध रहते हैं। ऐसे अत्यन्त विषम एवं प्रतिकूल स्थिति में रहकर हमेशा चौकन्ने रहनेवाले हमारे सैनिकों पर हमें ना़ज होना ही चाहिए।

हमने अभी देखा कि यहाँ का मौसम विषम तथा प्रतिकूल है। यहाँ केवल नदियों और झीलों के आसपास थोड़ीबहुत हरियाली दिखाई देती है। समुद्री सतह से साधारणतः ४००० – ४५०० मीटर्स की ऊँचाई तक खेती की जाती है। इसी कारण खेती यह यहाँ के लोगों का प्रमुख व्यवसाय है। साथ ही वे जानवरों को पालते हैं। इन जानवरों से प्राप्त होनेवाली ऊन और दुग्धजन्य पदार्थों से यहाँ के लोगों की जरूरतें पूरी होती हैं। यहाँ बारिश बहुत ही कम होती है। इसी कारण पीने और खेती के लिए नदियों और पिघलनेवाले बर्फ के पानी का इस्तेमाल किया जाता है।

यहाँ पर गेहूँ, जौ, बाजरा आदि अनाज और सेव, अखरोट, जर्दालु आदि फल उगाये जाते हैं। ऊँचा पहाड़ी इलाका होने के कारण भेड़ और याक यहाँ के प्रमुख जानवर हैं।

इस लद्दाख़ प्रान्त का प्रमुख धर्म बौद्ध है। यहाँ पर कईं बुद्ध प्रार्थनामन्दिर हैं, जिन्हें ‘गोम्पा’ या ‘मॉनस्टरी’ कहा जाता है। लद्दाख़ पर मुग़लों के आक्रमण के साथ ही वे अपने धर्म को भी यहाँ ले आएँ। लेह शहर में इसवी १८८५  में मोराविएन चर्च के मिशनरियों ने एक चर्च का निर्माण किया।

लेह यह लद्दाख़ प्रान्त का एक महत्त्वपूर्ण शहर है। पहले यह लद्दाख़ की राजधानी था। यह शहर समुद्री सतह से लगभग ३५०० मीटर्स की ऊँचाई पर स्थित है।

हमने लद्दाख़ का इतिहास देखते हुए जिन नामग्याल राजाओं का जिक्र किया, उन्होंने इसी लेह राजधानी से शासन किया।

१७  वी सदी में ‘सेंगे नामग्याल’ नामक राजा ने इस लेह शहर में एक राजमहल का निर्माण किया। यह राजमहल ‘लेह पॅलेस’ नाम से जाना जाता है। यह पॅलेस इस कदर ऊँचाई पर बनाया गया है, कि जहाँ से पूरा लेह शहर दिखाई देता है। यह पॅलेस नौ मंजिला है। लेकिन आज इसकी हालत उतनी अच्छी नहीं है। यह पॅलेस तिब्बती शिल्पकला का उत्तम उदाहरण माना जाता है। तिब्बत के ल्हासा शहर में स्थित पोटाला पॅलेस और लेह पॅलेस इनके निर्माण और रचना में काफी  समानता दिखाई देती है। इस नौ मंज़िला पॅलेस के ऊपरि मंज़िलों पर राजा एवं राजपरिवार का वास्तव्य था और नीचली मंज़िलों पर जानवरों के तबेले थें और वहाँ अनाज तथा वस्तुओं का संग्रह किया जाता था। जोरावरसिंह द्वारा किये गये हमले के कारण राजा को यह पॅलेस छोड़कर स्तोक नामक स्थान पर जाना पड़ा।

जब तक भारत और मध्य एशिया के देशों के बीच व्यापार जारी था, तब तक लेह शहर में व्यापारियों का ताँता लगा रहता था; लेकिन व्यापार के बन्द होते ही इस शहर का विकास कुछ रुक सा गया। आज लेह और लद्दाख़ प्रान्त पर्यटनदृष्टि से भली-भाँति विकसित हो रहा है। यह प्रदेश भले ही शीत मरुस्थल के रूप में जाना जाता हो, फिर भी लेह और अन्य स्थानों पर वह प्राकृतिक सौन्दर्य से समृद्ध है। इसी कारण आज यहाँ पर्यटन यह एक महत्त्वपूर्ण व्यवसाय बन चुका है। लेह शहर से बाकी के जग से संपर्क बनाये रखने के लिए आवश्यक ऐसी टेलीफोन  आदि सुविधाएँ उपलब्ध हैं।

यहाँ पर प्रकृति का रूप जितना अनोखा, वैसे ही यहाँ के लोग। इस विषम मौसम में रहनेवाले इन लोगों के उत्सव, त्योहार और नृत्य उनके जीवन में कुछ अलग ही रंग भर देते हैं। उनके जीवन के इन रंगों को देखेंगे अगले भाग में।

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