प्रयाग (भाग-१)

कुछ दशक पूर्व अर्थात् लगभग हमारे दादाजी-नानाजी के समय में तीर्थयात्रा करना यह बड़े पुण्य का काम माना जाता था; लेकिन उस जमाने में तीर्थयात्रा करने में काफी  कठिनाइयाँ भी पेश आती थीं। दरअसल आज के युग में भी तीर्थयात्रा और पुण्यप्राप्ति इनका अटूट सम्बन्ध पुराने जमाने की तरह दृढ़ है ही। लेकिन जैसा मैंने कहा, वैसा पुराने जमाने में तीर्थयात्रा करना यह बड़ा मुश्किल काम था और इसकी अहम वजह थी, उस समय अधिक विकसित न हो चुके यातायात के साधन। इसी वजह से तीर्थयात्रा करने में काफी  दिक्कतें पेश आती थीं। लेकिन तीर्थयात्रा पूरी हो जाने के बाद वे यात्री ङ्गूले नहीं समाते थें और उनके मन में कृतार्थता की भावना रहती थी।

Rudrapryagमनुष्य के मन में उसकी निर्मिति के बाद ही इस सम्पूर्ण विश्‍व का सृजन करनेवाली उस एकमात्र शक्ति की खोज करने की, उस शक्ति के सामने नतमस्तक हो जाने की इच्छा उत्पन्न हुई और इसी में से मंदिरों एवं मूर्तियों का निर्माण हुआ। साथ ही, कहीं न कहीं तो अपने कर्म और पाप-पुण्य इनके सम्बन्ध के बारे में मनुष्य थोड़ा-बहुत जानने लगा। इस पाप-पुण्य की संकल्पना में से ही कहीं तो तीर्थ-तीर्थक्षेत्र-तीर्थयात्रा इनका आविष्करण हुआ।

प्राचीन समय से ही तीर्थयात्रा करने और तीर्थक्षेत्र जाने में पुण्य का संचय तथा पाप का नाश होता है, यह समीकरण मनुष्य के मन पर अंकित हो चुका है।

हमारे भारतवर्ष में ऐसे कईं तीर्थक्षेत्र हैं, जिनमें से ‘प्रयाग’ को ‘तीर्थराज’ या ‘प्रयागराज’ यह उपाधि प्रदान की गई है।

काशी-प्रयाग यह नामयुग्म तीर्थों के उल्लेख में एकसाथ आता है, यह तो हममें से बहुत लोग जानते ही हैं। जो यह बात नहीं जानते, उनके मन में यह प्रयाग कहाँ है? और उसके अन्य नाम क्या हैं? ये प्रश्‍न उपस्थित हो चुके होंगे।

‘प्रयाग’ अर्थात् आज हम जिसे ‘अलाहाबाद’ इस नाम से जानते हैं, वह शहर। उत्तर प्रदेश में स्थित इस शहर में गंगाजी, यमुनाजी और सरस्वतीजी इन तीन नदियों का संगम होता है। इस संगम को ही ‘त्रिवेणी संगम’ (तीन नदियों का संगम होने के कारण त्रिवेणी) कहा जाता है। इस त्रिवेणी संगम के कारण ही आज प्रयाग को ‘तीर्थराज’ यह उपाधि प्राप्त हो चुकी है।

Karnaprayag‘प्रयाग’ इस शब्द का अर्थ है, प्र+याग – ‘प्र’ अर्थात् निरन्तर और ‘याग’ अर्थात् यज्ञ। जहाँ निरन्तर यज्ञ किया जाता है, उस स्थान को प्रयाग कहते हैं।

‘प्रयाग’ इस शब्द का दूसरा अर्थ है, प्र+याग, ‘प्र’ – बड़ा, विशाल और ‘याग’ – यज्ञ। जहाँ पर बड़ा यज्ञ किया गया, उस स्थान को प्रयाग कहते हैं। प्रजापति ने यहाँ पर एक महायज्ञ किया था, इसीलिए इसे ‘प्रजापतिक्षेत्र’ कहा जाता है, ऐसी एक कथा कही जाती है।

ब्रह्माजी के यज्ञ की कुल पाँच यज्ञवेदियाँ मानी गयी हैं। वे हैं – कुरुक्षेत्र, गया, विराज, पुष्कर और प्रयाग। इन पाँच यज्ञवेदियों में प्रयाग को मध्यवेदी माना गया है।

प्राचीन समय से यह स्थान ‘प्रयाग’ इस नाम से विख्यात है। लेकिन भारत पर हुए विदेशी आक्रमणों में जब उन आक्रामकों ने यहाँ पर अपना वर्चस्व प्रस्थापित किया, तब उन्होंने इस स्थान का नाम बदल दिया। अकबर ने जब इस नगर को अपने कब़्जे में ले लिया, तब उसने इस नगर का नाम ‘इलाहाबाद’ कर दिया। फिर  अंग्रे़जों ने उनकी सहुलियत के लिए इलाहाबाद का ‘अलाहाबाद’ कर दिया। इसीलिए प्रयाग नगरी, विदेशियों ने प्रदान किये हुए ‘इलाहाबाद’ तथा ‘अलाहाबाद’ इन दोनों नामों से भी जानी जाने लगी।

इस नगरी की महिमा का वर्णन करते हुए ‘क्षेत्रमाहात्म्य’ में कहा है – महाप्रलय हो जाने पर सारी दुनिया भी यदि डूब जाती है, तब भी प्रयाग नहीं डूबेगा और इस प्रलय के अन्त में श्रीविष्णु यहाँ वटपत्र पर शयन करेंगे। सभी देवगण, ऋषिगण, सिद्ध यहीं पर रहेंगे और इस क्षेत्र की रक्षा करेंगे।

तीर्थक्षेत्र जाना, वहाँ के दर्शन करना, पवित्र नदी या नदियों के संगम में स्नान करना और उस जगह दान करना, इनसे होनेवाली पुण्यप्राप्ति का विवेचन पुराणों ने विपुल प्रमाण में किया है। पद्मपुराण में कहा गया है – जिस तरह तारांगणों में सूर्य, ग्रहगोलों मे चन्द्र सर्वोत्तम है, उसी तरह तीर्थों में प्रयाग सर्वोत्तम है। कर्मपुराण ने प्रयाग को त्रिलोक का सर्वश्रेष्ठ तीर्थ कहा है, वहीं पद्मपुराण में साम्राज्यप्राप्ति और सदेह स्वर्गप्राप्ति के लिए प्रयाग में दान और स्नान करना महत्त्वपूर्ण माना गया है। प्रयाग क्षेत्र के बारे में यह धारणा समाजमन में है कि यहाँ के संगम में स्नान करने से स्वर्ग की प्राप्ति होती है और प्रयाग का मात्र स्मरण करने से ही पुनः जन्म नहीं लेना पड़ता। सारांश यह है कि तीर्थयात्रा करने से पुण्यप्राप्ति और मोक्षप्राप्ति होती है, यह संकल्पना मानवीय मन में पुराणों ने अंकित की।

Devprayagइस प्रयाग के त्रिवेणि संगम की विशेषता यह है कि गंगा और यमुना इन दो नदियों का यहाँ पर  होनेवाला संगम प्रत्यक्ष दिखायी देता है, लेकिन इनके साथ मिलनेवाली तीसरी नदी सरस्वती प्रत्यक्ष दिखायी नहीं देती, वह गुप्त रूप में इनके साथ मिल जाती है, ऐसा कहते हैं। ऋग्वेद में सरस्वती का वर्णन किया गया है, लेकिन उसके बाद यह सरस्वती गुप्त हो गई ऐसा कहा जाता है। अर्थात् वेदकाल में यह सरस्वती नदी अस्तित्व में थी, लेकिन वेदोत्तर काल में वह लुप्त हो गई।

यज्ञसंस्था का विकास मुख्य तौर पर वेदकाल में ही हुआ। ‘प्रयाग’ यह शब्द ही प्र – निरन्तरता और याग-यज्ञ इनसे बना है। इससे हमारी समझ में आ जाता है कि यहाँ निरन्तर रूप में यज्ञकार्य होते रहेंगे। इसीलिए जिस यज्ञसंस्था और वेदकाल का आपस में क़रीबी रिश्ता है, उस वेदकाल के साथ इस क्षेत्र का निकट का रिश्ता हो सकता है।

दर असल हमारे भारतवर्ष में इस तरह के कुल चौदह प्रयागक्षेत्र हैं। ये चौदह प्रयाग इसी प्रयाग की तरह नदियों के संगम के साथ संबंधित हैं।

१) प्रयागराज – गंगा – यमुना तथा गुप्त सरस्वती का संगम।
२) रुद्रप्रयाग – अलकनंदा – मंदाकिनी संगम।
३) कर्णप्रयाग – पिंडरगंगा – अलकनंदा का संगम।
४) देवप्रयाग – अलकनंदा – भागीरथी का संगम।
५) नन्दप्रयाग – अलकनंदा – नंदा इनका संगम।
६) सोमप्रयाग – सोम नदी – मंदाकिनी का संगम।
७) विष्णुप्रयाग – विष्णुगंगा – अलकनंदा का संगम।
८) इन्द्रप्रयाग – भागीरथी-व्यासगंगा संगम।
९) सूर्यप्रयाग – अलसतरंगिणी – मंदाकिनी संगम।
१०) हरिप्रयाग – हरिगंगा – भागीरथी संगम।
११) गुप्तप्रयाग – नीलगंगा – भागीरथी संगम।
१२) भास्करप्रयाग
१३) केशवप्रयाग – अलकनंदा – सरस्वती संगम।
१४) श्यामप्रयाग – श्यामगंगा – भागीरथी संगम।

इन चौदह प्रयागों में से प्रयागराज, देवप्रयाग, रुद्रप्रयाग, कर्णप्रयाग और नन्दप्रयाग इन पाँचों को महत्त्वपूर्ण माना जाता है। लेकिन जो लोग हिमालय में स्थित पाँच प्रयागों को महत्त्वपूर्ण मानते हैं, उनके अनुसार इन पाँचों में प्रयागराज का अन्तर्भाव नहीं होता, बल्कि विष्णुप्रयाग का अन्तर्भाव होता है। (प्रयागराज के अलावा ऊपर उल्लेखित चार प्रयाग ही अन्य चार प्रयाग हैं।)

पुराणों में ययाति और प्रयाग का उल्लेख किया गया है। प्रयाग यह आर्यावर्त का एक महत्त्वपूर्ण स्थान माना जाता था। रामायणकाल में वनवास जाते हुए प्रभु श्रीरामचन्द्रजी यहाँ के भरद्वाज ऋषि के आश्रम में पधारे थें। हस्तिनापुर के शासक वत्स राजवंश के राजाओं की उस समय की राजधानी हस्तिनापुर में थी। लेकिन बाढ़ में वह नष्ट हो जाने के कारण उन्होंने प्रयाग के पास के कौशंबी में अपनी राजधानी स्थापित की। यह कौशंबी गाँव आज भी प्रयाग से ४८ कि.मी. की दूरी पर है। पुराने समय के चन्द्र राजवंश की राजधानी प्रतिष्ठानपुर भी प्रयाग के पास में ही है, जिसे आज हम ‘झुंसी’ इस नाम से पहचानते हैं।

रामायण की तरह महाभारत में भी प्रयाग का उल्लेख किया गया है। महाभारत के वनपर्व में गंगा-यमुना इनके दोआब (संगम) को अर्थात् प्रयाग को भारत का कटिप्रदेश कहा गया है। महाभारत के युद्ध के बाद स्वकीयों का नाश करने के पाप के कारण मायूस हो चुके युधिष्ठिर को मार्कंडेय मुनि ने प्रयाग की यात्रा करने के लिए कहा और उसने वह की।

विभिन्न कालखण्डों में प्रयाग पर विभिन्न राजाओं ने शासन किया। मौर्य, गुप्त राजाओं के साथ साथ कुशाणों का भी शासन यहाँ पर था। प्रयाग क्षेत्र में की गयी खोदाई में पायी गयी वस्तुओं के द्वारा किस कालखण्ड में किन शासकों ने यहाँ पर शासन किया था, इसका पता लगाया गया। इस खोज के अनुसार पहली सदी में प्रयाग यह कुशाण साम्राज्य का एक हिस्सा था।

सम्राट हर्षवर्धन के साम्राज्य में भी प्रयाग का समावेश हो चुका था। इसी हर्षवर्धन के शासनकाल में भारत पधारे हुए चिनी यात्री ह्यु-एन-त्संग के स़ङ्गरनामे में प्रयाग का उल्लेख किया गया है।

प्रयाग की एक और पहचान है, यहाँ पर होनेवाला कुम्भमेला। सम्राट हर्षवर्धन भी इस कुम्भमेले में हिस्सा लेता था, यहाँ विभिन्न पण्डितों की सभाओं में परिचर्चाओं का आयोजन करता था और साथ ही ग़रीब, जरूरतमन्द याचकों को दान भी करता था।

भगवान गौतम बुद्ध का प्रयाग नगरी के साथ कुछ समय तक के लिए सम्बन्ध था। भगवान गौतम बुद्ध का कुछ समय तक यहाँ पर निवास था। श्रीशंकराचार्यजी ने कुमारीलभट्ट इस विख्यात मीमांसक के साथ वैदिक धर्म की रक्षा करने के लिए यहीं पर बातचीत की थी, ऐसा कहते हैं।

बारहवी सदी के अन्त में यह क्षेत्र विदेशियों के कब़्जे में चला गया। प्रयाग क्षेत्र पर अकबर की सत्ता स्थापित हो जाने के बाद उसने इस नगरी की पुनर्रचना की और मुख्य तौर पर इसका नाम बदलकर ‘इलाहाबाद’ कर दिया।

One Response to "प्रयाग (भाग-१)"

  1. onkar wadekar   September 3, 2016 at 4:39 pm

    इस लेख को पढ़ने से पहले प्रयाग के बारे में मेरा ग्यान और रूचि नाम मात्र थी। परंतु इस क्षेत्र का माहात्म्य बहुत ही सरहानीय है।

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