सम्बलपुर भाग -१

स्कूल में भूगोलशास्त्र में हमेशा पूछा जानेवाला सवाल होता था – भारत की नदियाँ और उनपर बनाये गये बाँध। इसी सन्दर्भ में ‘महानदी’ पर बनाये गये ‘हिराकूड’ नामक बाँध, यह सबसे अधिक लंबाई का बाँध है, यह भी कण्ठस्थ किया था। फिर स्कूल के बाद कॉलेज जाने के बाद भूगोल के साथ तो सम्बन्ध नहीं रहा। लेकिन हिराकूड और महानदी दोनों हमेशा के लिए याद रहे। एक दिन पढ़ते-पढ़ते अचानक एक बार हिराकूड का नाम पढ़ा और इस बार हिराकूड के बारे में निश्चित रूप से अधिक जानकारी भी प्राप्त हुई। ओरिसा के सम्बलपुर नाम के शहर से यह बाँध तकरीबन १५ कि.मी. की दूरी पर है, यह भी ज्ञात हुआ और ओरिसा-सम्बलपुर-महानदी-हिराकूड यह सम्बन्ध भी समझ में आ गया।

sambalpur- सम्बलपुरतो ऐसा यह सम्बलपुर। यह सम्बलपुर शहर प्राचीन समय से अस्तित्व में है, इस सन्दर्भ में कईं ऐतिहासिक प्रमाण उपलब्ध हैं। ‘टोलेमी’ ने दूसरी सदी में लिखे अपने पुस्तक में इस शहर का उल्लेख किया है। उसने किये हुए वर्णन के अनुसार ‘संबलक’ शहर ‘मनद’ नाम की नदी के तट पर बसा था। संबलक यानि कि आज का ‘सम्बलपुर’ और ‘मनद’ नदी यानि कि ‘महानदी’ के नाम से आज हम जिसे जानते हैं, वह नदी।

यहाँ की ‘सामलेश्‍वरी’ देवी के नाम से इस शहर का नाम ‘सम्बलपुर’ हुआ ऐसा कहा जाता है। इतिहास के विभिन्न कालखंडों में सम्बलपुर ‘संबलक’, ‘हिरखण्ड’, ‘दक्षिण कोशल’ इन नामों से भी जाना जाता था। इसी सम्बलपुर में पहले बहुत बड़े पैमाने पर हीरों का व्यापार होता था और इसी कारण इस स्थान को ‘हिरखण्ड’ कहते होंगे। १७ वीं सदी के फ्रान्सिसी व्यापारी ‘जीन बाप्टिस्ट तवेर्निअर’ ने अपने सफ़रनामे में यहाँ के हीरों के व्यापार के बारे में लिखा है। ‘जीन बाप्टिस्ट’ का यह सफ़रनामा अंग्रे़जी में ‘ट्रॅव्हल्स इन इंडिया’ इस नाम से अनुवादित हो चुका है। इस वर्णन में ये फ्रान्सिसी यात्री ‘सुमेलपुर’ की (सम्बलपुर की) कईं हीरों की खानों का उल्लेख करते हैं। वे कहते हैं कि जब वे यहाँ पर पधारे थे, तब यहाँ की हीरों की खानों में लगभग ८००० लोग काम कर रहे थे। हालाँकि उस समय सम्बलपुर हिरों की खानों तथा हिरों के व्यापार के लिए मशहूर था, मग़र आज यहाँ पर हीरें प्राप्त नहीं होते। यहाँ के आसपास के इलाकों में बहुमूल्य रत्न प्राप्त होते हैं।

ह्यू-एन-त्संग इस भारत आये हुए चीनी यात्री के सफ़रनामे में भी सम्बलपुर का ज़िक्र किया गया है। ‘इन्द्रभूति’ नाम के राजा द्वारा किये गये वर्णन में भी सम्बलपुर का उल्लेख प्राप्त होता है। इतिहास में सम्बलपुर के जिन राजाओं का उल्लेख किया गया है, उनमें से ‘इन्द्रभूति’ ये सबसे पुराने हैं।

हमारे भारत का ओरिसा राज्य वहाँ की प्राकृतिक सम्पदा के लिए विख्यात है। यहाँ पर बड़े बड़े वृक्षों के जंगल और उनमें बसनेवाले प्राणि पाये जाते हैं। सम्बलपुर यह शहर ओरिसा के पश्चिम विभाग में स्थित है और यह विभाग भी प्राकृतिक सम्पदा से समृद्ध है। दरअसल पश्चिमी ओरिसा की विपुल प्राकृतिक सम्पन्नता की ओर ले जानेवाला द्वार ही सम्बलपुर को माना जाता है। साथ ही यह व्यापार और शिक्षा का भी केन्द्र है।

भौगोलिक दृष्टि से यह शहर काफ़ी दूर बसा हुआ है, ऐसा हमें भले ही प्रतीत हो रहा हो, लेकिन भारत के सभी प्रमुख महानगरों के साथ वह यातायात के साधनों से अच्छी तरह से जुड़ा हुआ है। पहले जिस महानदी का उल्लेख किया गया, वह महानदी उसके नाम के अनुसार ही महा यानि कि बहुत बड़ी है। इस नदी का उद्गमस्थल छत्तीसगढ़ में है और वह ओरिसा राज्य में से बहती हुई बंगाल के उपसागर में जा मिलती है। इसी महानदी पर सम्बलपुर से मह़ज १५ किमी. की दूरी पर विख्यात ‘हिराकुड बाँध’ का निर्माण किया गया है। सम्बलपुर को महानदी का सान्निध्य भी मिला है और साथ भी।

सम्बलपुर के विभिन्न नामों से साथ कलिंग राजा खारवेल के कार्यकाल में एक और नाम भी जुड़ गया। खारवेल राजा के समय में यह स्थान ‘अट्टभिक’ इस नाम से जाना जाता था।

इतिहास में प्राचीन समय से सम्बलपुर का उल्लेख प्राप्त होता है। भूतकाल में विभिन्न कालखण्डों में विभिन्न राजवंश के राजाओं ने इस शहर पर शासन किया है, यह इतिहास से ज्ञात होता है।

४थी सदी में समुद्रगुप्त नामक राजा ने महेन्द्र नाम के कोशल-कोसल राज्य के राजा को परास्त कर दिया। उस समय सम्बलपुर यह कोसल राज्य का एक हिस्सा था। ४थी सदी में सम्बलपुर पर समुद्रगुप्त का शासन प्रस्थापित हो गया।

पाँचवी और छठी सदी में समय के साथ हु़कूमत भी बदल गयी और सम्बलपुर पर सर्भपुरियों की हु़कूमत स्थापित हो गयी। सातवी सदी में यहाँ पर त्रिवरदेवों का शासन था और उसके बाद नौंवी सदी के आसपास जनमेजय-प्रथम-महाभावगुप्त ने  जब अपने राज्य का विस्तार किया, तब सम्बलपुर जिले के प्रदेश का अपने राज्य में समावेश कर दिया। आगे चलकर जनमेजय राजा का वंश ही ‘सोमवंश’ इस नाम से जाना जाने लगा। सोमवंशी राजाओं के शासनकाल के बाद ‘कलचुरी’ राजाओं की सम्बलपुर पर सत्ता स्थापित हो गयी।

इसके बाद कलचुरी राजाओं का सम्बलपुर पर शासन था, लेकिन १३वी सदी में कलचुरी और गोंड इनके बीच हुई जंग के बाद इस प्रदेश पर गोंडों की सत्ता स्थापित हुई। इस तरह सदियों के साथ सम्बलपुर की हु़कूमतों में परिवर्तन होता रहा।

ओरिसा के इस पश्चिमी विभाग पर १४वी सदी के मध्य में ‘रामाई देव’ ने ‘चौहान वंश’ की सत्ता स्थापित की और इसके बाद सम्बलपुर पर १९वी सदी की शुरुआत तक चौहान राजवंश की हु़कूमत थी।

यह हम देख ही चुके हैं कि सामलेश्‍वरी या सामलामाता देवी के नाम से इस शहर का नाम सम्बलपुर हो गया। सामलामाता की पत्थर की मूर्ति बलराम देव नामक चौहानवंशीय राजाको प्राप्त हुई थी और यही से इस स्थान का नाम ‘सम्बलपुर’ हो गया।

बलराम देव और सम्बलपुर के सन्दर्भ में एक कथा कही जाती है। नरसिंह देव नाम का राजा बलराम देव का बड़ा भाई था। वह पास के ही राज्य का राजा था। बलराम देव ने एक बार अपनी जान जोखिम में डालकर नरसिंह देव की पत्नी की जान बचायी थी। अपने भाई की बहादुरी से खुश होकर नरसिंह देव ने बलराम देव को एक बहुत बड़ा प्रदेश बहाल कर दिया और यही प्रदेश आगे चलकर ‘सम्बलपुर’ इस नाम से जाना जाने लगा।

सम्बलपुर पर बहुत ही थोड़े समय तक मराठों का भी शासन था। वारिस न होने की वजह से चौहान राजवंश का सम्बलपुर पर होनेवाला शासन समाप्त हो गया और भारत के इस प्रदेश तक पहुँच चुके अंग्रे़जों ने इस बात का फ़ायदा उठाकर इस प्रदेश को भी हड़प लिया।

साधारणतः १९वी सदी में अंग्रे़जों की हु़कूमत यहाँ पर स्थापित हो गयी और १९वी तथा २०वी सदी में अंग्रे़जों ने उनके शासनकाल में सम्बलपुर का समावेश विभिन्न प्रान्तों में किया।

मग़र अंग्रे़जों की इस हु़कूमत को चुनौती देनेवाले एक वीर का जन्म यहाँ पर हुआ। ‘वीर सुन्दर साई’ उपाख्य ‘वीर सुरेन्द्र साई’ नामक इस वीर ने उनके कईं साथियोंसमेत अंग्रे़जों के साथ संघर्ष किया।

१८५७ की आ़जादी की पहली जंग में कईं योद्धा मातृभूमि की भक्ति से अंग्रे़जों के ख़िलाफ़ डटकर खड़े रहे, जिनमें से ये एक सम्बलपुर के वीर योद्धा थे।

सम्बलपुर की राजगद्दी को ठेंठ वारिस न होने के कारण अंग्रे़जों ने सम्बलपुर पर अपना कब़्जा जमा लिया था। राजगद्दी के अन्य वारिसों को उन्होंने पूरी तरह ऩजरअन्दाज कर दिया था और यहीं से सुरेन्द्र साई ने अंग्रे़जी हु़कूमत के खिलाफ़ संघर्ष करना शुरू कर दिया, क्योंकि राजपरिवार के एक सदस्य होनेवाले सुरेन्द्र साई के हक़ को मानने से अंग्रे़ज पूरी तरह इन्कार कर रहे थे। अंग्रे़जों का कहना था कि सुरेन्द्र साई का, हाल ही में मृत्यु हुई राजा के साथ ठेंठ किसी भी प्रकार का सम्बन्ध नहीं है, वे तो ४थे चौहान वंश के राजा के वंशज हैं। इस तरह अंग्रे़जों के साथ शुरू हो चुका सुरेन्द्र साई का संघर्ष उनकी आखरी साँस तक मातृभूमि की आजादी तक चलता रहा।

सम्बलपुर शहर यह सम्बलपुर जिले  का प्रमुख एवं मध्यवर्ती शहर है और इस शहर तथा उसके आसपास के कुछ जिलों को मिलाकर इस प्रान्त को ‘सम्बलपुरी प्रान्त’ कहा जाता है। इस पूरे प्रान्त की वस्त्र, लोकनृत्य, लोककला, वनसम्पदा, प्राणिसम्पदा ये बातें वैशिष्ट्यपूर्ण हैं।

इस महानदी के साथ ही सम्बलपुर का प्रवास भी प्राचीन समय से चला आ रहा है। इन दोनों के इस प्रवास में पिछली सदी में एक नाम उनके साथ जुड़ गया – हिराकूड बाँध का।

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