नासिक भाग – २

त्र्यंबकेश्वर से कुछ ही दूरी पर स्थित ‘ब्रह्मगिरि’ पर्वत में उद्गमित गोदावरी नदी जब नासिक में प्रवेश करती है, तब पूरे नासिक शहर को ही वह एक पुण्यभूमि, तीर्थक्षेत्र, मुक्तिक्षेत्र बनाती है। गोदावरी के उद्गमस्थल पर ही भगवान शिव ‘त्र्यंबकेश्वर’ इस रूप में विराजमान हैं; वहीं, नासिक में इसके दोनों किनारों पर कई छोटे-बड़े मन्दिर हैं। उत्तर में काशीक्षेत्र में गंगाजी की जैसी महिमा है, वैसी ही यहाँ गोदावरीमैय्या की है और इसीलिए गोदावरी को ‘गौतमी गंगा’ भी कहा जाता है। ‘गौतमी गंगा’ इस नाम का सम्बन्ध गौतम ऋषि के साथ है, ऐस माना जाता है। इसे गंगा कहने के पीछे शायद दो उद्देश्य हो सकते हैं; एक तो गंगा की तरह ही मुक्ति-मोक्ष के साथ तथा पापक्षालन के साथ जुड़ा हुआ इसका नाम और दूसरा गंगा की तरह ही यह जिस जिस प्रदेश से गु़जरती है, उसे ‘सुजलाम्’, ‘सुफलाम्’ बनाती है।

त्र्यंबकेश्वर‘त्र्यंबक’ यह नासिक से लगभग २८ कि. मी. की दूरी पर बसा हुआ एक छोटासा गाँव है। इस छोटेसे गाँव में पाँच सदियों पहले आबादी भी नहीं थी, मग़र फिर भी त्र्यंबकेश्वर तो तब भी था। त्र्यंबक गाँव के इस शिवमन्दिर को पेशवाओं के काल में ऊर्जितावस्था प्राप्त हुई। नानासाहब पेशवा ने इस पुराने मन्दिर का जीर्णोद्धार किया और वहाँ पर विद्यमान मन्दिर बनवाया। त्र्यंबकेश्वर यह बारह ज्योर्तिलिंगों में से एक माना जाता है।

बहुत बार किसी स्थान के साथ कुछ ऐतिहासिक कथाएँ, किंवदंतियाँ, लोककथाएँ अथवा पुराणकथाएँ जुड़ी होती हैं।

त्र्यंबकेश्वर की उत्पत्ति के सन्दर्भ में भी ऐसी ही एक पुराणकथा कही जाती है। इस कथा के अनुसार एक बार ब्रह्माजी और विष्णु में बहस छिड़ गयी कि शिवजी के स्वरूप को हम दोनों में से कौन जान सकता है? फिर यह तय हुआ कि ब्रह्माजी शिवजी के मस्तक की खोज करें और विष्णुजी चरणों की। दोनों अपने काम में जुट गये। दरअसल ब्रह्माजी को लग रहा था कि मैं सृष्टिकर्ता होने के कारण शिवजी को जानता ही हूँ और इस बलबूते पर उन्होंने वैसा दावा किया। लेकिन देवादियों द्वारा जब इसकी जाँच-पड़ताल की गयी, तब ब्रह्माजी की बात में थोड़ासा भी सत्यांश नहीं दिखायी दिया। इस घटना से फिर ब्रह्माजी और शिवजी दोनों क्रुद्ध हो गये। आगे चलकर क्रोध शान्त होने के बाद हुआ ऐसा कि शिवजी भूतल पर पर्वतरूप में अवतरित हुए और ब्रह्माजी के नाम से उस पर्वत को ‘ब्रह्मगिरि’ कहने लगे। अत एव कुछ लोगों का मानना है कि त्र्यंबकेश्वर का मन्दिर हालाँकि ब्रह्मगिरि की तलहटी पर स्थित है, लेकिन मूल त्र्यंबकेश्वर तो ब्रह्मगिरि के ही रूप में स्थित है।

लगभग सव्वा चार ह़जार फूट ऊँचा ब्रह्मगिरि! इसी ब्रह्मगिरि पर गौतम ऋषि का आश्रम था और उन्होंने ही यहाँ पर चावल की खेती करने का पहला सङ्गल प्रयास किया था, ऐसा कहा जाता है। किसी समय में यहाँ पर आभीरों की राजधानी थी, ऐसा माना जाता है। पेशवाओं के जमाने में यहाँ पर सेना का एक विभाग भी था। लेकिन इन ऐतिहासिक महत्त्वों के साथ ही ब्रह्मगिरि को एक अनूठा आध्यात्मिक महत्त्व भी प्राप्त है। उसके एक पहलु को अभी हम देख ही चुके हैं।

इस ब्रह्मगिरि पर्वत का और सन्त ज्ञानेश्‍वरजी के गुरु तथा ज्येष्ठ बन्धु सन्त निवृत्तिनाथजी का काफी गहरा रिश्ता था, ऐसा कहा जाता है। इसी पर्वत की एक गुफा में सन्त निवृत्तिनाथजी की मुलाक़ात उनके गुरु गहिनीनाथजी से हुई।

गुरु-शिष्य की इस मुलाक़ात का प्रसंग बहुत ही अद्भुत एवं रोचक माना जाता है। इस बारे में ऐसी कथा है कि निवृत्तिनाथजी अपने पिता, भाइयों और बहनसमेत ब्रह्मगिरि की प्रदक्षिणा कर रहे थे। इतने में उन्हें शेर की दहाड़ सुनायी दी और शेर के डर से ये सब अलग अलग दिशाओं में चले गये। इसी दरमियान निवृत्तिनाथजी एक गुफा में जा पहुँचे, जहाँ उन्हें गहिनीनाथजी के दर्शन हुए। यहीं पर गुरु-शिष्य की भेंट हुई और गुरु-उपदेश प्राप्त कर निवृत्तिनाथजी लगभग एक सप्ताह बाद लौटे।

आगे चलकर उन्होंने अपना समस्त अवतारकार्य किया और अवतारसमाप्ति के लिए अर्थात् समाधि लेने के लिए उन्होंने ब्रह्मगिरि को ही चुना। आज भी निवृत्तिनाथजी की समाधि इस ब्रह्मगिरि पर ही है।

२०वी सदी के प्रारम्भ तक ब्रह्मगिरि पर चढ़ना, यह का़फी मुश्किल काम था, क्योंकि इसके लिए केवल पगडंडी उपलब्ध थी। २०वी सदी की शुरुआत में किसी धनवान ने यहाँ पर सीढ़ियों का निर्माण किया, जिससे ब्रह्मगिरि चढ़ना श्रद्धालुओं के लिए आसान हो गया।

पुराने जमाने में ब्रह्मगिरि भले ही राजधानी या सेना का स्थान था, मग़र फिर भी आज वहाँ पर इससे सम्बन्धित किसी प्रकार के निशान दिखायी नहीं देते। ब्रह्मगिरि चढ़ते हुए ऐसा लगता है कि मानो हम आसमान को ही छूने जा रहे हैं। इस ब्रह्मगिरि पर से आसपास का कई मीलों तक का प्रदेश दिखायी देता है। साथ ही त्र्यंबकेश्वर मंदिर भी दिखायी देता है, लेकिन इतनी दूरी से देखकर थोड़े ही हमारा जी भरनेवाला है? तो फिर चलिए, ब्रह्मगिरि उतरकर मन्दिर में ही चलते हैं।
बहुत ही सुन्दर ऐसा यह मन्दिर हेमाडपन्ती वास्तुशैली द्वारा निर्मित है। मन्दिर की चहूँ ओर चहारदीवारी है और उसमें तथा मुख्य मन्दिर में का़फी प्रशस्त जगह है।

यह मन्दिर श्रीयन्त्राकार है, ऐसा कहा जाता है। इस मन्दिर की रचना अत्यन्त कुशलतापूर्वक की गयी है। मानो किसी ढले हुए धातु से बनाया गया हो। मन्दिर की बाहरी दीवारों पर शिल्पकारी की गयी है। यह शिल्पकारी इतनी सजीव प्रतीत होती है कि इन दीवारों पर बनाये गये कमल देखकर उन्हों छूने को मन करता है। लेकिन उन्हें छूने के बाद पता चलता है कि ये असली कमल नहीं हैं, बल्कि पत्थर में तराशे गये कमल हैं।

इस मन्दिर के आहाते में मुख्य मन्दिर के साथ साथ अन्य देवताओं के भी मन्दिर हैं। इस मन्दिर को पाँच स्वर्ण के कलश हैं।

मन्दिर के मुख्य देवता है, ‘त्र्यंबकेश्‍वर’! त्र्यंबकेश्वर इस शब्द में विद्यमान तीन इस संख्या का सम्बन्ध मुख्य देवता के रूप से जुड़ा हुआ है। साधारणतः जलहरी (शिवलिंग स्थापित करने का अरघा) तथा शिवजी की पिंडी इन दोनों से शिवलिंग बनता है। लेकिन त्र्यंबकेश्वर में जलहरी न होकर केवल अंगुष्ठमात्र के तीन लिंग हैं, जिनपर एक गगरी पानी समाने जितनी जगह है। ये तीन लिंग यानि कि ब्रह्मा-विष्णु-महेश तीनों एकत्रित हैं, ऐसा माना जाता है। इनमें से मुख्य देवता त्र्यंबकेश्वरजी के माथे पर एक छोटासा छेद है, जिसमें से निरन्तर जल बहता रहता है। इस भगवान का स्वर्ण का मुखौटा और रत्नजड़ित मुकुट है, जो पेशवा ने त्र्यंबकेश्‍वर को अर्पण किया था।

यह त्र्यंबक नाम का गाँव, जो कि ५०० साल पहले तक वीरान था, वहाँ पर पेशवाओं के आने से का़फी चहल-पहल होने लगी और तब से लेकर आज तक त्र्यंबकेश्वर में निरन्तर यात्रा चल रही है।

शिवजी को नित्य प्रिय ऐसा उनका नंदी यहाँ उनके सामने स़फेद पाषाण के रूप में स्थित है। शिवजी को प्रिय दूसरी बात अभिषेक। इस मन्दिर में उसके निर्माण के समय ही, मन्दिर के बाहर के एक हौ़ज से गर्भगृह तक जल ले आनेवाली रचना का निर्माण किया गया है।

ऐसे ये गोदावरी के उद्गम के पास नित्य स्थित त्र्यंबकेश्‍वर। यहाँ का कुशावर्त नामक तीर्थ पवित्र माना जाता है। यह पानी का एक चौकोर कुण्ड है, जिसमें उतरने के लिए चहुँ ओर से सीढ़ियों का निर्माण किया गया है।

गोदावरी को ‘गौतमी गंगा’ के नाम से भी जाना जाता है। इसका कारण यह है कि गौतम ऋषि उसे यहाँ पर ले आये थे। इसके बारे में भी एक कथा बतायी जाती है।

ब्रह्मगिरि पर जब गौतम ऋषि का आश्रम था, तब उनके आश्रम को छोड़कर आसपास के पूरे प्रदेश में अकाल पड़ गया। एक बार गौतम ऋषि के खेत में चरनेवाले एक पशु पर दर्भ फेंकने के कारण उस पशु की मृत्यु हो गयी। अब इस पशुहत्या के पातक से मुक्त होने के लिए गौतम ऋषि क्या करें? इसका हल यह निकला कि वे शिवजी के मस्तक पर स्थित गंगाजी को भूतल पर ले आयें, तो उन्हें इस पातक से मुक्ति मिलेगी।

फिर गौतम ऋषि ने शिवजी को प्रसन्न कर उनके माथे पर स्थित गंगाजी को माँग लिया और शिवजी ने उसके अनुसार गंगाजी को अपने माथे से भूतल पर सर्वप्रथम इसी ब्रह्मगिरि पर उतारा। इस प्रकार गौतम ऋषि द्वारा लाये जाने के कारण उसे ‘गौतमी गंगा’ कहा जाने लगा। आज भी एक पेड़ के नीचे बहुत ही कम पानी रहनेवाले एक कुण्ड को मूल गंगा का प्रवाह बताया जाता है। आगे चलकर यह गंगा ब्रह्मगिरि के पूर्व भाग में प्रकट हुई। वहाँ उसके द्वार पर एक गोमुख और साथ ही गंगाजी का एक छोटा सा मन्दिर भी है।

शायद इसका एक अर्थ ऐसा हो सकता है कि आसपास के प्रदेश में जब अकाल पड़ा था, तब गौतम ऋषि ने पर्वत में पानी के स्रोत को ढूँढ़ निकाला और उस स्रोत से निकलनेवाले पानी को योजनाबद्ध मार्ग से आसपास के प्रदेश में प्रवाहित किया होगा। यही है वह अथाह परिश्रमों की गंगा, जो एक छोटे स्रोत के रूप में प्रकट हुई और आगे चलकर गोदावरी नाम से बहती हुई समूचे प्रदेश को अकालमुक्त करती गयी।

गोदावरी के उद्गम के पास स्थित तीथों की जानकारी तो हम ले चुके, लेकिन मुख्य नासिक शहर में जो तीर्थ और मन्दिर इसके तट पर स्थित हैं, उनकी जानकारी लेना तो अभी बाकी है।

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